ऐसे नहीं बनेगा भोपाल मैट्रो
31-Jul-2014 09:40 AM 1234829

मध्यप्रदेश सरकार प्रदेश की राजधानी भोपाल शहर को मैट्रो शहर में तब्दील करने का सपना देख रही है। कलेक्टर गाइड लाइन में जमीनों के दाम तो बढ़ा ही दिए गए हैं और कृषि भूमि का उपयोग आवासीय शैक्षणिक, औद्योगिक, वाणिज्यिक प्रयोजन के लिए करने की अनुमति भी दी जाने लगी है। उधर सुप्रीम कोर्ट ने बिना डायवर्सन टैक्स जमा कराए भी जमीन की रजिस्ट्री की स्वीकृति प्रदान कर दी है। एयरपोर्ट के रनवे की लम्बाई 9 हजार तीन फिट होने से अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट का दावा भी मजबूत हुआ है। भोपाल नगर निगम भी अपना कार्यालय 19 मंजिला बनाने जा रहा है। आसपास के लगभग 147 गांवों को भोपाल मैट्रो शहर का हिस्सा बनाने की कवायद की जा रही है। प्रदेश के पूर्व नगरीय विकास मंत्री बाबूलाल गौर भोपाल को पैरिस बनाने का सपना पहले ही देख चुके हैं।
नए मास्टर प्लान में भोपाल का विस्तार सीहोर, होशंगाबाद, रायसेन व विदिशा तक करने की योजना है और भोपाल को दिल्ली एनसीआर की तरह मैट्रो पॉलिटन क्षेत्र के तौर पर विकसित किया जाएगा। इसका अर्थ है जिस प्रकार की सुविधाएं भोपाल के लोगों को मिल रही हैं, वैसे ही आसपास के 50 से 60 किलोमीटर के दायरे के क्षेत्रों को भी मिलें। भोपाल मास्टर प्लान का निवेश क्षेत्र वर्तमान में 600 वर्ग किलोमीटर के करीब है जो बढ़कर 15 हजार किलोमीटर के करीब हो जाएगा। लेकिन सवाल यह है कि जिस भोपाल में इतनी महत्वाकांक्षी योजनाएं लागू की जा रही हैं। उस भोपाल की हालत क्या है। क्या आज के भोपाल को देखकर यह कहा जा सकता है कि यह एक ऐसे प्रदेश की राजधानी है जो देश में सर्वाधिक विकास दर तक पहुंचने वाले राज्यों में से एक है। भोपाल के जर्जर हालात तो यही बयां करते हैं कि आने वाले दिनों में भोपाल को एक सुव्यवस्थित और विशाल शहर में तब्दील करना केवल स्वप्न ही बनकर रह जाएगा या फिर भोपाल अधूरी पड़ी योजनाओं का कबाड़ खाना बन जाएगा।
भोपाल में पिछले 10 वर्ष में कायाकल्प करने के कई प्लान सामने आए मास्टर प्लान तो हमेशा नए आते ही रहते हैं और शहर में विकास कार्य भी चलते रहते हैं, लेकिन भोपाल का दर्द यह है कि यहां विकास के नाम पर 80 प्रतिशत जनता हमेशा कष्ट सहती रहती है। पहले बीआरटीएस कॉरीडोर के चलते सारा शहर अस्त-व्यस्त रहा अब नर्मदा लाइन ने आधे शहर को खोदकर रखा है। उधर मानसून के चलते तकरीबन सारी कालोनियों की सड़कें धराशायी हो गई हैं। सड़कों पर अतिक्रमण और गलत निर्माण ने सारे शहर में लगभग हर चौराहे पर जाम की स्थिति पैदा कर दी है। जल निकासी की उचित व्यवस्था न होने से पूरा शहर पानी के डबरे में तब्दील हो चुका है और निचली बस्तियों में सडांध पैदा होने से बीमारियां फैल रही हैं। भोपाल संभाग के कमिश्नर-कलेक्टर, प्रदेश की सारी ब्यूरोक्रेसी, नगर निगम कमिश्नर, पूर्व नगरीय विकास मंत्री बाबूलाल गौर, उनकी बहु तथा शहरी की महापौर कृष्णा गौर सारे शहर में भ्रमण करते रहते हैं। क्या इन लोगों को शहर की समस्याएं नहीं दिखाई देती। क्या नगर निगम सिर्फ अधिकारियों, मंत्रियों, रसूखदारों की सेवा में लगा होता है। 20 लाख की जनसंख्या वाले शहर के प्रति उसका कोई दायित्व नहीं है। अरबों रुपए शहर विकास में खर्च करने के बावजूद शहर की स्थिति इतनी दयनीय क्यों है।
शहर के विकास के लिए तमाम योजनाएं आए दिन प्रारंभ की जाती हैं, लेकिन ये योजनाएं अपने अंजाम तक सही समय में नहीं पहुंचा करतीं। इस बीच नई समस्याएं जन्म ले लेती हैं। बीआरटीएस कॉरीडोर का उदाहरण लें तो यह कॉरीडोर तकनीकी रूप से गलत बनाया गया है ऐसा विशेषज्ञों का कहना है। इस कॉरीडोर के भीतर बसों के टकराने की कई घटनाएं हो चुकी हैं और कॉरीडोर के बाहर वाहनों की आवाजाही के लिए बहुत संकरा सा रास्ता बचा है जो भोपाल की वाहनों की बढ़ती तादाद के मद्देनजर बहुत छोटा है। आने वाले पांच वर्षों में सबसे ज्यादा जाम इसी कॉरीडोर के चलते लगा करेंगे और अंतत: कॉरीडोर को तोड़कर फेंकना होगा। ऐसा विशेषज्ञों ने उसी समय कहा था जब यह कॉरीडोर बनकर तैयार हुआ है। वैसे कॉरीडोर में बहुत से काम अधूरे हैं। जिन शहरों में ये कॉरीडोर बने हुए हैं वहां रोड क्रॉस करने के लिए तकरीबन सभी स्टाप पर फुटओवर ब्रिज बनाए गए हैं ताकि यात्री दुर्घटना से बच सकें, लेकिन भोपाल में कॉरीडोर के पैदल पथ पर रेडलाइट लगाकर नगर निगम ने इतिश्री कर ली है। इन रेडलाइटों को कोई नहीं मानता और अक्सर दुर्घटना की संभावना बनी रहती है। होशंगाबाद रोड स्थित कॉरीडोर में तो इतना घटिया निर्माण किया गया है कि इसका अधिकांश हिस्सा अभी जर्जर हो चुका है और रैलिंग हवा में लटक रही है कुछ समय पहले एक बस स्टॉप ट्रक की टक्कर से गिर गया था इसका श्रेय डिजाइन में कमी को ही दिया गया था।
भोपाल जिले में 4 हजार 886 व्यक्ति प्रतिवर्ग किलोमीटर रहते हैं। इसका अर्थ यह है कि भारत के तमाम घने शहरों में भोपाल भी शामिल हैं जो शहर बढ़ती जनसंख्या के कारण लगातार दबाव में आ रहे हैं वहां नगर नियोजन की स्थिति ऐसी नहीं हो सकती कि तात्कालिक उपाए किए जाएं और कुछ दिन बाद फिर हालात वैसे ही हों। ऐसे शहरों में दूरगामी योजनाएं बनानी पड़ती हैं जो आगामी 30-40 वर्षों में जनसंख्या के बढ़ते घनत्व और वाहनों की बढ़ती संख्या से समायोजन कर सकें। भोपाल के आसपास उपनगरीय इलाकों में तो कोई योजना ही नहीं है और वे बेतरतीब विकसित हो रहे हैं। पिछले दिनों मानसून की पहली बारिश के बाद 30 घंटे बिजली नहीं आई। बाद में पता चला कि मानसून के पूर्व मेंटेनेंस ठीक से नहीं किया गया था। बिजली बंद होने से अधिकतर ट्रैफिक सिग्नल बंद हो गए और जाम की स्थिति बनी। कुछ सिग्नल खराब भी हो गए थे, जिस कंपनी पर इन सिग्नलों के मेंटेनेंस का दायित्व था वह सो रही थी। जलभराव की समस्या भी भयावह है। प्रशासन अकादमी, ग्यारह सौ क्वाटर्स, हबीबगंज अंडरब्रिज, भोपाल टॉकीज चौराहा सहित लगभग दो दर्जन स्थान ऐसे हैं जहां थोड़ा पानी गिरते ही पानी लबालब भरा जाता है। क्योंकि भोपाल का ड्रेनेज सिस्टम बहुत खराब है। भोपाल ऊंचाई पर बसा हुआ शहर है यहां जलभराव की समस्या नहीं होनी चाहिए। भोपाल मुंबई नहीं है कि पानी चारों तरफ से वापस लौटे यहां तो पानी की निकासी कई रास्तों से की जा सकती है पर नगर निगम सालभर सोता रहता है और बरसात के समय फौरी उपाय किए जाते हैं।
सड़कों की भी हालत चिंता का विषय है। दुनिया जानती है कि भारत में सड़कें बिना भ्रष्टाचार के नहीं बन सकतीं। मध्यप्रदेश भी अपवाद नहीं है। आंटे में नमक बराबर भ्रष्टाचार बर्दाश्त किया जा सकता है, लेकिन भोपाल शहर में तीन माह पहले बनी सड़कें जिस तरह बह गई हैं और बड़े-बड़े गड्ढे सड़कों पर बन गए हैं। 600 करोड़ रुपए खर्च करने के बाद भी शहर की सड़कों को स्तरीय नहीं कहा जा सकता। अधिकारियों से बात करो तो वे टका सा जवाब देते हैं कि सड़कें खराब नहीं है, जबकि आए दिन समाचार पत्रों में सड़क के बड़े-बड़े गड्ढों के समाचार छापे जाते हैं। कुछ दिन पहले भोपाल के होशंगाबाद रोड पर सांची दूध डेरी के सामने सड़क उखड़ गई थी जिसे थेगड़ा लगाने के लिए ठेकेदार ने एक ट्रक मसाला और कुछ मजदूर भेजे। उन्होंने सड़क पर 15-20 जगह थेगड़े लगाए इसके बाद तेज बारिश आ गई और सड़कें फिर से वैसी हो गईं, गड्ढे पहले से ज्यादा गहरे हो गए क्योंकि थेगड़ा लगाने में जो मटेरियल उपयोग किया गया था वह इतना घटिया था कि थेगड़ा लगाना महज औपचारिकता ही साबित हुई। इससे समझा जा सकता है कि सड़क बनाने के समय तो भ्रष्टाचार होता ही है, लेकिन सड़कों पर थेगड़ा लगाने के लिए जो सामग्री लाई जाती है उसमें भी भ्रष्टाचारी डंडी मार लेते हैं। यही स्थिति भोपाल की जन सुविधाओं की है। जिन शौचालयों और सार्वजनिक जगहों का मैंटेनेंस कुछ अच्छी निजी कंपनियों के हाथ में है उनको छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर सार्वजनिक शौचालय और पेशाबघर बदबू तथा गंदगी से भरे हुए हैं। शहर का एक भी इलाका ऐसा नहीं है जहां सड़ांध न आ रही हो। भारत टॉकीज से बरखेड़ी के बीच लकड़ी की दुकानों के पीछे गंदगी से खदबदाते नाले की बदबू पिछले 4 दशक से बढ़ी है कम नहीं हुई। जिंसी चौराहे से मैदामील की तरफ आते हुए सड़ांध मारती बदबू को पिछले कई दशकों से मिटाया नहीं गया है। उधर नया शहर भी कचरे का डब्बा बनता जा रहा है। अयोध्या बायपास के निकट भानपुर के पुल के आसपास तमाम कालोनिया खड़ी हो रही हैं, लेकिन यहां सारे शहर का कचरा कई वर्षों से पड़ा है। कुछ समय पहले इस कचरे को हटाने की बात चली थी, लेकिन यह योजना भी कागजों में कहीं गुम हो गई। यह कचरा आसपास के निवासियों के लिए जहर के समान है क्योंकि इसने जमीन के नीचे जल के स्रोतों को भी बुरी तरह प्रदूषित कर दिया है। भोपाल ऐसी तमाम समस्याओं से घिरा हुआ है। परिवहन यहां एक चुनौती है और इस शहर के निवासियों को आए दिन कोई न कोई सपना दिखा दिया जाता है।
अधूरे पड़े ओवरब्रिज
हाल ही में कमला पार्क से रेतघाट तक केबल स्टे ब्रिज बनाने की योजना का श्रीगणेश हुआ है यह 300 मीटर लंबा और 17 मीटर चौड़ा ब्रिज दो साल में बनेगा जिस पर 29.47 करोड़ रुपए का खर्च बैठेगा। यह पुराने और नए शहर को जोड़ेगा। इसके अतिरिक्त और भी कई फायदे मिलेंगे, लेकिन हबीबगंज आरओबी और जेएडी फ्लाईओवर की लेटलतीफी को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि फिलहाल अगले पांच वर्ष तक तो कुछ नहीं होने वाला। हबीबगंज रेलवे ओवरब्रिज तथा जीएडी फ्लाईओवर 2013 में बनकर तैयार होने थे, अब इनके लिए नई डेड लाइन दिसंबर 2014 की बनाई गई है, लेकिन यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि जिस गति से काम चल रहा है उसके चलते दिसंबर 2015 तक भी ये कार्य पूरे हो जाए तो बड़ी बात होगी।
राजधानी में बीते छह सालों में तेरह फ्लाई ओवर सहित एक रेलवे ओवर ब्रिज का खाका खींचा गया। इसमें बीडीए, सीपीए, पीडब्लूडी सहित नगर निगम भी शामिल था। निगम ने जवाहर लाल नेहरू शहरी नवीनीकरण मिशन-जेएनएनयूआरएम के तहत बीआरटीएस को आकार दिया, जिसकी डेड लाइन तीन बार बढ़ाई गई। तब कहीं जाकर काम पूरा हो सका। हालांकि इसके तहत बनने वाले हबीबगंज रेलवे ओवर ब्रिज (आरओबी) और जीएडी फ्लाईओवर का काम अभी भी अधूरा है।  मोती मस्जिद से पीरगेट फ्लाई ओवर अब बीते वक्त की बात हो चुका है और इसकी जगह टू-लेन सड़क बनाई जानी है, लेकिन अब तक इस सड़क का काम भी शुरू नहीं हुआ। इस मामले में निगम की दलील है कि भू-अर्जन विभाग को सड़क निर्माण के लिए जमीन अधीग्रहण करना है, जो नहीं किया जा सका है।
बीआरटीएस कॉरीडोर रूट पर जीएडी फ्लाईओवर निर्माण दो सालों से सुस्त रफ्तार से चल रहा है। जिससे लोगों को न सिर्फ परेशानियों का सामना करना पड़ता है, बल्कि उनकी जान पर बन आती है। इस पर नगर निगम की दलील है कि उसे लोगों को हो रही परेशानियों और हादसों पर खेद है, लेकिन वह इसके लिए जिम्मेदार नहीं है। बीआरटीएस कॉरीडोर के तहत रॉयल मार्केट में काला दरवाजे से जीएडी क्रॉसिंग तक फ्लाईओवर का निर्माण कराया जा रहा है। फ्लाईओवर काम 10 जून 2011 में शुरू हुआ और जून 2013 में पूरा होना था, लेकिन आज तक पूरा नहीं हुआ। लिहाजा निगम ने डेड लाइन दिसंबर 2014 तक बढ़ा ली। बकौल नगर निगम जीएडी फ्लाईओवर निर्माण का वर्क आर्डर 10 जून 2011 को जारी हुआ। जिसके तहत निर्माण अवधि 2 साल निर्धारित की गई। लेकिन सुपरविजन एवं क्वालिटी कंट्रोल कंसलटेंसी का चुनाव 23 फरवरी 2012 को हुआ। जिसकी वजह से काम में देरी हुई। इसके बाद फ्लाईओवर निर्माण के लिए सरकारी और गैर सरकारी भवनों एवं निजी भूमि अधिग्रहण और विस्थापन में दिक्कतें आई। इसके साथ ही इंदिरा गांधी की प्रतिमा शिफ्ट करने को लेकर सहमति न बनने की वजह से डेड लाइन बढ़ाई गई। इसके अलावा सीवेज, बिजली लाइनें, पाइप लाइन की शिफ्टिंग में समय लगा। फ्लाईओवर के दोनों तरफ 1120 रनिंग मीटर सर्विस रोड बनाया जाना है। निगम का दावा है कि उसने 391 रनिंग मीटर सर्विस रोड बना दी है और पूरा काम 31 दिसंबर तक पूरा कर लिया जाएगा। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि यहां सर्विस रोड का काम शुरू ही नहीं हुआ है।

2064.69 करोड़ का बजट, घाटा ज्यादा, काम शून्य
भोपाल नगर निगम परिषद ने मई माह में ही 2064.69 करोड़ रुपए के बजट को स्वीकृति दी थी, जिसमें 94.6 करोड़ का तो घाटा ही था। बजट में फिर से उन्हीं प्रोजेक्ट्स के लिए प्रावधान हुए जो अरसे से चल रहे हैं। जेएनयूआरएम, राजीव आवास योजना, मुख्यमंत्री अधोसंरचना योजना इत्यादि के तहत शहर में 150 किलोमीटर लंबी नई सड़कों का निर्माण किया जाना था और 70 किलोमीटर सड़क चौड़ी बनाते हुए डेढ़ हजार मकान बनाने का प्रावधान भी था। इसके अतिरिक्त पैदल यात्रियों के लिए फुटओवर ब्रिज फुटपाथ से लेकर महिलाओं के हॉकर्स कार्नर तक का प्रावधान इस बजट में था, लेकिन सड़कों के हालात देखें जा सकते हैं। एक भी फुटओवर ब्रिज फिलहाल बीआरटीएस में नहीं है। सीवेज, ड्रेनेज के लिए जो प्रावधान किए गए थे उनमें से एक चौथाई भी पूरे नहीं हो पाए हैं। थोड़ी सी बारिश ने शहर का क्या हाल किया यह जाना जा सकता है। शहरी परिवहन भी इसी तरीके का है। बजट पूरा खर्च ही नहीं हो पाता। पिछले 4 वर्षों में लगभग प्रतिवर्ष बजट का 34 प्रतिशत हिस्सा (700 करोड़ रुपए) ही खर्च हो पाया है। जो चुनावी बजट पेश किया था उसमें 200792.27 लाख की आय तथा 206469.55 लाख का व्यय बताया गया है। देरी से प्रस्तुत बजट में कोई विजन नहीं था, जिसका नतीजा सामने है। इन हालात में भोपाल को मैट्रो बनाना कैसे संभव है।
नेता, जनता सभी पीडि़त
ज्यादा दिन नहीं बीते जब होशंगाबाद रोड पर जाम में सीएम खुद फंस गए थे। क्या भोपाल नगर निगम चार इमली, 74 बंगले, टीटी नगर  तथा अरेरा कॉलोनी के कुछ इलाकों के लिए ही बना है। जहां महत्वपूर्ण लोग रहते हैं। बाकी शहर की फिक्र क्यों नहीं की जाती।

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