31-Jul-2014 11:01 AM
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जिंदगी जोखिम का नाम है। हम जोखिम उठाया करते हैं। कुछ पाने के लिए- धन, प्रतिष्ठा, समाधान या रूतबा। देखा जाए तो वेद प्रताप वैदिक के पास ये सब कुछ है। वे एक प्रतिष्ठित, सम्पन्न और

प्रभावशाली पत्रकार हैं। जब नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री हुआ करते थे उस वक्त वैदिक को उपप्रधानमंत्री कहा जाता था। लगभग हर सरकार में उन्हें एक प्रतिष्ठित पत्रकार के रूप में मान्यता मिली रही, जो सरकार के फैसलों को भी प्रभावित करने की स्थिति में थे। हालांकि उन्होंने शायद ही ऐसा किया हो।
तो फिर वैदिक की हाफिज सईद से मुलाकात पर इतना बवाल क्यों? क्या वैदिक की कथित जांच पड़ताल एक षड्यंत्र है। कहा गया कि वे संघ के करीबी हैं और भारत सरकार ने किसी गुप्त मिशन पर उन्हें लगा रखा है जिसका एक हिस्सा हाफिज से मुलाकात भी है। जो व्यक्ति नरसिम्हाराव के समय प्रभावशाली हुआ करता था वह अचानक संघ का करीबी कैसे बन गया और भारत सरकार की तरफ से एक दुर्दान्त आतंकवादी से बातचीत करने कैसे पहुंच गया यह शोध का विषय है जिसमें कमोवेश जरा भी सच्चाई नहीं है।
वैदिक की तरह हर खोजी पत्रकार की जिज्ञासा रहती है कि वह सिक्के के दूसरे पहलू को भी देखे। वैदिक ने हाफिज सईज से बात की, ऐसा पहली बार नहीं हुआ इससे पहले भी वैदिक स्वयं और दुनिया भर के तमाम पत्रकार जान जोखिम में डालकर दुर्दान्त आतंकवादियों से लेकर खूनी हत्यारों, डकैतों, अपराधियों सहित मानवता के तमाम दुश्मनों से मिल चुके हैं। इसमें बुराई क्या है? एक पत्रकार होने के नाते उनका यह धर्म है कि वे हर पहलू की जांच-पड़ताल करें और सच दुनिया के सामने लाएं। ओसामा बिन लादेन से भी एक पत्रकार ने मुलाकात की थी। नक्कीरन के संपादक ने कुख्यात चंदन तस्कर और 300 हत्याओं के दोषी वीरप्पन से कई बार बातचीत की और कई लोगों को वीरप्पन से मिलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। बंधकों को छुड़वाने के लिए भी बातचीत की। यह बड़े आश्चर्य और सराहना का विषय है कि जिन्हें हमारी पुलिस तलाशती रहती है वह पत्रकारों को बड़ी आसानी से मिल जाते हैं। आखिर कौन सा जरिया है जो इन पत्रकारों को तो उपलब्ध हो जाता है लेकिन बाकी को उसके सूत्र हाथ नहीं लगते। इस उम्र में भी वैदिक ने यह जोखिम उठाया। उनकी मुलाकात में आईएसआई की भूमिका थी अथवा नहीं यह नहीं कहा जा सकता। बहरहाल इस मुलाकात ने भारतीय राजनीति में भूचाल ला दिया है। वैदिक की लानत-मलानत की जा रही है। लोकसभा और राज्यसभा में हंगामा हो चुका है। भारतीय तथा पाकिस्तानी उच्चायोग ने सफाई देते हुए इसमें अपनी भूमिका से इनकार किया है। सरकार ने भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी प्रकार की भूमिका नकार दी है। हालांकि खुफिया एजेंसियां वैदिक से पूछताछ करने
वाली हैं।
उधर कांग्रेस इस मुलाकात के पीछे सरकार की मंशा देख रही है। जबकि भाजपा भी मुलाकाती को फटकार लगा रही है। भारतीय दूतावास पर भी सवाल उठ रहे हैं। ज्यादा गंभीर बात यह है कि वैदिक की भाव-भंगिमा में पत्रकार के बजाय एक राजनयिक का अंदाज क्यों होना चाहिए था। यह नहीं हो सकता कि आप किसी ऐसे व्यक्ति से मिलें, जिसे दुनिया ने आतंकी घोषित किया हो, और आपकी बातचीत राह खोलने वाली दिख रही हो। यह काम दूसरों का है। इसके लिए सरकारें हैं, सेना है। अगर कभी किसी की मदद ली भी जाती है, तो उसकी एक प्रक्रिया होती है। मानना मुश्किल है कि आतंक के खिलाफ कड़े कदम उठाने की बात करती एनडीए सरकार समाधान के लिए ऐसा रास्ता चुनेगी। हमारी सरकार के लिए स्वाभाविक था कि वह किसी ऐसी बातचीत में अपनी भूमिका नकारती। उच्चायोग से रिपोर्ट मांगकर इसकी तह में जाने की कोशिश भी की गई है। इस तरह के मसले सनसनीखेज पत्रकारिता के लिए नहीं हैं। इस मुलाकात को खुफिया विभाग की विफलता भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इंटेलीजेंस यह नहीं कहता कि क्या कीजिए और क्या नहीं। वह केवल यह बताता है कि आपने क्या किया। भारतीय पत्रकार को अपनी उत्सुकता दबाते हुए यह सोचना ही चाहिए था कि आखिर मुलाकात क्यों करनी चाहिए। यह भी देखा जाना चाहिए था कि पाकिस्तान ने हाफिज सईद को लेकर क्या रवैया अपनाया है और भारतीय जनमानस उन्हें किस तरह देखता है। इसका मंथन करते हुए अगर कोई हाफिज सईद के साथ वार्ता की मेज पर होता, तो उसका होमवर्क भी अलग होता। लेकिन यह कहना कि मुलाकात भारत सरकार की तरफ से की गई थी मुनासिब नहीं है।
कश्मीर पर मोदी सरकार का रवैया पूर्ववर्ती सरकारों के मुकाबले ज्यादा कठोर है। हाल के दिनों में संयुक्त राष्ट्र संघ के कश्मीर मिशन को हटाने और कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए फंड बनाने सहित तमाम
निर्णय यही सिद्ध करते हैं कि कश्मीर पर
भारत का रूख ज्यादा स्पष्ट होने लगा है।
ऐसी स्थिति में हाफिज सईद और वैदिक की मुलाकात को किसी विशेष नजरिये से देखना उचित नहीं है। इस मुलाकात को एक पत्रकार
की जिज्ञासा और कर्तव्य से ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता।