31-Jul-2014 10:49 AM
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70 रुपए किलो टमाटर और 30 रुपए किलो आलू-प्याज खरीदकर खाने वाले भारतीयों को एक घटना ने हिलाकर रख दिया। दिल्ली के महाराष्ट्र सदन में शिवसेना के सांसद राजन विचारे ने बिना विचारे

गुस्से में रोटी ठूंस दी। गुस्सा इस बात का था कि खाना घटिया था उसमें वह लज्जत नहीं थी जो महाराष्ट्रियन खाने में हुआ करती है। जिस देश में कुपोषण की विकराल समस्या हो, भुखमरी लगातार बढ़ रही हो वहां के कर्णधारों की जिव्ह्या को उचित स्वाद न मिले तो वे किस हद तक भड़क सकते हैं यह इस घटना ने दिखा दिया। अवश्य ही सांसद महोदय मन के अनुरूप भोजन न मिलने से भड़के होंगे किंतु मीडिया ने टीआरपी के लालच में इसे सनसनीखेज घटना बताते हुए हिंदू बनाम मुसलमान के धर्मयुद्धÓ में तब्दील करने में कोई देरी नहीं की। संयोग से जिसके मुंह में रोटी ठूंसी गई वह मुसलमान था और रमजान केे पवित्र माह में रोजा रखा हुआ था। क्रोध से भरे, हुंकार मारते सांसद को शायद यह जानकारी नहीं थी कि केंटीन का मैनेजर किस धर्म का है उन्हें तो अपनी लज्जत के बिगडऩे का गुस्सा था जो उन्होंने जाहिलाना हरकत करते हुए निकाला।
लेकिन इसके बाद संसद में जिन शब्दों मेें शिवसेना के सांसद अनन्त गीते, भाजपा के रमेश विधूरी, राजद के पप्पू यादव, ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलमीन के असादुद्दीन औवेसी के बीच जो संवाद हुआ और जिस तरह से इन महानुभावों ने सदन के बाहर एक-दूसरे को देख लेने की धमकी दी उससे यह तो तय हो गया कि आने वाले 200 वर्षों में भी इस देश में हिंदू बनाम मुसलमान की लड़ाई ऐसे ही छोटे-छोटे मुद्दों पर भड़कती रहेगी और टीवी चैनल टीआरपी के लालच में आग में घी डालने का काम करेंगे। टीवी पर चल रही बहसों और अखबारी कॉलमों में धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता का शब्दयुद्ध चल रहा था। लड़ाईयां लड़ी जा रही थीं उधर शिवसेना भी अपने स्वभाव के अनुसार मुखर हो गई। कहा गया कि रमजान में जब एक मौलवी मस्जिद में दस साल की लड़की से बलात्कार करता है तो रोजा भंग नहीं होता लेकिन अंजाने में रोटी ठूंसने से रोजा भंग हो जाता है।
इस तर्क में दम तो है लेकिन जिस अंदाज में यह तर्क प्रस्तुत किया गया उसके पीछे मंशा केवल ध्रुवीकरण को बढ़ावा देकर राजनीतिक रोटी सेंकने की थी। महाराष्ट्र में चुनाव हैं और सभी राजनीतिक दल महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी, कुपोषण, भ्रष्टाचार जैसे तमाम मुद्दों से जनता का ध्यान हटाना चाहते हैं क्योंकि कोई भी इन समस्याओं पर प्रभावी रोक लगाने में सक्षम नहीं है। चिंता की बात यह है कि मीडिया भी उन्माद की इस बहती गंगा में हाथ धोने लगा है। पिछले 1 वर्ष से उत्तरप्रदेश में जो धर्माेन्माद फैला हुआ है उसकी फसल लोकसभा चुनाव में काटी गई थी अब विधानसभा चुनाव में भी काटने की तैयारी है। टमाटर महंगे होते हैं होते रहें, सब्जियों के दाम आसमान पर चले जाएं, पैट्रोल से लेकर टे्रन के टिकट और दैनिक जीवन की हर वस्तु महंगी बिकने लगे इससे किसी को क्या सरोकार। हमें तो आपस में लडऩा है, रोटी ठूंसने जैसी मामूली घटना को सांप्रदायिक नफरत में तब्दील कर डालना है और फिर इस नफरत से उपजे अविवेकी आवेग में अपने बहुमूल्य वोट को कबाड़ में तब्दील कर डालना है।
राजनीति ऐसे ही चलते रहेगी लेकिन मीडिया को क्या हो रहा है हर दिन टीआरपी के लालच में नई-नई सनसनी क्यों तलाशी जा रही है। जिन विषयों का कोई महत्व नहीं है और जिनसे सांप्रदायिक उन्माद फैलने के अतिरिक्त कोई दूसरा काम बनने वाला नहीं है उन मुद्दों को हवा क्यों दी जाती है। सानिया मिर्जा प्रकरण भी इसी परिप्रेक्ष्य में अनुपात से अधिक उछाला गया। सोनिया गांधी को विदेशी कहने पर कभी हंगामा हुआ करता था तब उन्हें इस देश की बहू माना गया। सानिया मिर्जा को किसी ने पाकिस्तान की बहू कह दिया तो हंगामा हो गया। औरत का अपना वजूद नहीं है? उसकी स्वयं की कोई हस्ती नहीं है। पिता के संरक्षण में वह बेटी है और पति के संरक्षण में किसी परिवार की बहू है। सानिया जिसने देश को गौरवान्वित किया देश के लिए कई पदक जीते वह अचानक बाहरी इसलिए बन गई क्योंकि उसका विवाह हो गया है। जो अपनी मर्जी से विवाह करे उसकी देशभक्ति हमेशा कटघरे में खड़ी रहती है। सानिया ने भी टीवी पर आंसू बहाकर कुछ ज्यादा ही प्रतिक्रिया दे दी। किसी राज्य का ब्रांड एम्बेसेडर बनने या न बनने से सानिया मिर्जा की सारे संसार में जो ख्याति है उस पर कोई असर नहीं होने वाला। सानिया इतनी लालायित क्यों हैं?
ये दोनों महत्वहीन मुद्दे अनुपात से अधिक उछाले गए। संसद का समय नष्ट हुआ। मीडिया ने इस मामले को हिंदू-मुस्लिम चश्मे से देखने की कोशिश की। सांप्रदायिक उन्माद फैलाने का भरसक प्रयास हुआ। इसका कोई दूरगामी परिणाम भी निकल सकता है लेकिन फिक्र किसे है।