16-Jul-2014 07:48 AM
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पिछले दिनों जब अमित शाह के खिलाफ फर्जी एनकाउंटर प्रकरण में कोर्ट की मदद करने वाले वकील गोपाल सुब्रह्मण्यम को सुप्रीम कोर्ट का जज बनाए जाने संबंधी फाइल केन्द्र सरकार की तरफ से

लौटा दी गई तो नया विवाद खड़ा हो गया। कहा गया कि मोदी के चहेते अमित शाह को कटघरे में खड़ा करने के कारण सुब्रह्मण्यम के खिलाफ सरकार ने बदले की कार्रवाई की। देश के मुख्य न्यायाधीश ने न्यायपालिका की आज़ादी को लेकर सरकार के रवैये पर उंगली उठाई और यहां तक कह दिया कि अगर ये आजादी छिनती नजर आई तो पद त्याग दूंगा। गुस्सा इस बात पर था कि आखिर सरकार ने बिना पूछे, या बताए वरिष्ठ वकील गोपाल सुब्रह्मण्यम को सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने वाली फाइल क्यों लौटा दी।
क्या वाकई में न्यायपालिका की स्वायत्तता खतरे में थी? क्या सरकार सुप्रीम कोर्ट में अपनी पसंद के जज रखवाना चाहती थी। सरकार को जवाब नहीं सूझ रहा है। नियम यह है कि सरकार अगर किसी जज की प्रस्तावित नियुक्ति की फाइल वापस सुप्रीम कोर्ट कोलिजियम को भेज दे तो कोलिजियम सरकार को पुनर्विचार की अपील भेज सकता है और ऐसा होने पर सरकार उस सिफारिश को मानने पर बाध्य हो जाती है।
लेकिन यहां तो सरकार के एतराज से आहत गोपाल सुब्रह्मण्यम ने खुद ही अपना नाम वापस ले लिया और सरकार पर खुद को बदनाम करने के लिए सीबीआई का सहारा लेने का संगीन आरोप भी मढ़ा। दरअसल, गोपाल सुब्रह्मण्यम ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करीबी अमित शाह के खिलाफ फर्जी एनकाउंटर केस की जांच में कोर्ट की मदद करते हुए एक रिपोर्ट दी थी। कांग्रेस का आरोप है कि इसी वजह से बीजेपी उनसे प्रतिशोध ले रही है। गोपाल सुब्रह्मण्यम के सुप्रीम कोर्ट का जज न बनने से कानून के कई जानकार मायूस हैं। उनका ये भी कहना है कि जजों की नियुक्ति में सरकारी दखलंदाजी खतरनाक है। दुनिया में भारत एक अकेला देश है जहां जजों की नियुक्ति खुद न्यायापालिका करती है।
पूर्व में सरकार द्वारा हाई कोर्ट अथवा सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति की जाती थी। इस प्रक्रिया का सरकार ने दुरूपयोग किया। जैसे इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट के तीन वरिष्ठ जजों को सुपरसीड करते हुये पसंदीदा व्यक्ति को चीफ जस्टिस नियुक्त किया था। सरकार की पसन्द से नियुक्त किये गये व्यक्ति के द्वारा सरकार के खिलाफ कदम उठाना कठिन है। इसलिये सरकार के द्वारा जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया असंतोषजनक थी। इस समस्या को देखते हुए नब्बे के दशक में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट के जजों की नियुक्ति न्यायपालिका द्वारा स्वयं की जायेगी। यह व्यवस्था वर्तमान में लागू है। हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट के चीफ जस्टिस के नेतृत्व में वरिष्ठतम जजों के कालेजियम द्वारा नये जजों की नियुक्ति की संस्तुति सरकार को भेजी जाती है। सरकार चाहे तो इन संस्तुतियों पर प्रश्न उठा सकती है। परन्तु सामान्य रूप से इन संस्तुतियों को स्वीकार कर लिया जाता है। इस प्रकार हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट में जजों की नियुक्ति में सरकारी दखल नाम मात्र का है। वर्तमान जजों द्वारा भविष्य के जजों को नियुक्त किया जा रहा है। इस प्रक्रिया का सबसे बड़ा लाभ है कि न्यायपालिका पर सरकार की छाया लगभग शून्यप्राय रह गयी है। पिछले समय में देखी गयी सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता इसी कारण संभव हुयी है। लेकिन वर्तमान में दूसरी समस्यायें सामने आ रही हैं। जजों द्वारा अपने नजदीकियों को जज नियुक्त किया जा रहा है। इन्हें प्रचलन में अंकल जज के नाम से जाना जाता है। अकुशल व्यक्तियों को भी जज बनाये जाने के आरोप लग रहे हैं। जजों द्वारा पर्याप्त संख्या में नये जजों की नियुक्ति की संस्तुति के अभाव में जजों की संख्या न्यून बनी हुई है और मामलों की सुनवाई नहीं हो पा रही है। इस समस्या से निपटने के लिये विश्व के तमाम देशों में कालेजियम की व्यवस्था की जा रही है। न्यायपालिका, सरकार और स्वतंत्र नागरिकों के कालेजियम द्वारा जजों की नियुक्ति एवं उन पर निगरानी रखी जा रही है। ऐसे कालेजियम बनाने के लिए सरकार ने इन जजों की नियुक्ति के लिए नए कानून को राज्यसभा में दाखिल किया है। यह व्यवस्था तुलना में अच्छी है परन्तु अपर्याप्त है। मुख्य समस्या है कि सरकार का हस्तक्षेप बना रहता है। कालेजियम के सदस्यों की नियुक्ति सरकार द्वारा की जाती है। अत: कालेजियम में नेताओं का वर्चस्व बना रहता है। वे सरकार के लिये अनुकूल व्यक्तियों को नियुक्त कर सकते हैं। अपने देश में चीफ विजिलेंस कमिश्नर आदि कुछ संवैधानिक पदों पर नियुक्ति के लिए ऐसे ही कालेजियम की व्यवस्था है। कालेजियम में प्रधान मंत्री के साथ-साथ विपक्ष के नेता रहते हैं। परन्तु समस्या बनी हुई है। सरकार के द्वारा विपक्ष के नेता के सुझाव को नजरअन्दाज किया जा सकता है। सीवीसी के पद पर पीजे थामस को यूपीए सरकार ने विपक्ष की तत्कालीन नेता सुषमा स्वराज की आपत्ति के बावजूद नियुक्त कर दिया था। किन्तु इसके बाद अगस्त 2013 में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति की दो दशक पुरानी कालेजियम (चयन) पद्धति की जगह नयी प्रक्रिया प्रस्तावित की गयी जिसमें विपक्ष की कोई सीधी भूमिका नहीं थी । प्रस्तावित जेएसी में छह सदस्य की बात कही गयी थी । इसके अध्यक्ष देश के मुख्य न्यायाधीश को बनाने तथा इसमें दोसुप्रीम कोर्ट जज, कानून मंत्री और दो प्रतिष्ठित लोग बतौर सदस्य रखने का प्रस्ताव था. पहले के प्रस्ताव में कहा गया था कि दो प्रख्यात विधिवेत्ता जेएसी में होंगे। लेकिन नए प्रस्ताव में इसे बदलकर दो प्रतिष्ठित हस्तियां कर दिया गया । यह बदलाव भाजपा की सहमति से किया गया था तब कॉलेजियम प्रणाली को खत्म करने के कदम को सही ठहराते हुए कानून मंत्रालय ने कहा था कि इस प्रस्ताव की जरूरत मुख्य रूप से इसलिए सामने आती है क्योंकि देश में जजों की नियुक्ति की मौजूदा प्रणाली विचित्र है। दरअसल दुनिया में अन्य किसी देश में न्यायपालिका खुद के लिए नियुक्ति नहीं करती है।
जजों द्वारा ही जजों की नियुक्ति का चलन 1993 के बाद शुरू हुआ था। तब सरकार द्वारा जजों के चयन की व्यवस्था को बदलकर नई प्रणाली लाई गई थी। कॉलेजियम प्रणाली से संबंधित 1993 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को दरकिनार करने के लिए संविधान संशोधन की जरूरत पड़ेगी।
इससे पहले 2003 में कॉलेजियम प्रणाली को बदलने का प्रयास सफल नहीं हुआ था। तत्कालीन राजग सरकार ने एक संविधान संशोधन विधेयक पेश किया था। लेकिन तब विधेयक स्थायी समिति के पास था और लोकसभा भंग हो गई थी। कॉलेजियम प्रणाली को बदलने की सरकार की योजना के बीच लगातार कई मुख्य न्यायाधीश मौजूदा प्रणाली का समर्थन करते रहे हैं। इनमें वर्तमान सीजेआइ न्यायमूर्ति पी सदाशिवम भी शामिल हैं। सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम में शीर्ष अदालत के पांच शीर्ष जज होते हैं जिसकी अध्यक्षता देश के मुख्य न्यायाधीश करते हैं।