15-Jul-2014 11:15 AM
1234768
यूपीए सरकार ने तेंदूलकर समिति का गठन किया था जिसने बताया था कि शहरों में 33 रुपए और गांवों में 24 रुपए प्रतिदिन खर्च करने वाला गरीब नहीं है। अब सी. रंगराजन समीति ने एनडीए

सरकार के कार्यकाल में एक नया आंकड़ा प्रस्तुत कर दिया है और गरीबों पर अहसान करते हुए घोषणा की है कि शहरी इलाकों में 47 रुपए और ग्रामीण इलाकों में 33 रुपए रोजाना खर्च करने वाले गरीब नहीं हैं। इससे पहले गरीबों की संख्या का जो आंकड़ा दिया गया था उसमें रंगराजन समिति ने 9 करोड़ 30 लाख का इजाफा कर दिया है। रंगराजन थोड़े उदार हैं मगर सवाल वही है कि यदि इन आंकड़ों को ही आधार माना जाए तो यह कहां तक संभव है कि इससे कम से कम इतने लोगों की गरीबी मिट जाएगी जितने इन आंकड़ों में शामिल हैं। वैसे भी गरीबी को देखने का यह नजरिया सिर्फ सरकारी सहायता बढ़ाने तक सीमित है। उसके नतीजे क्या आ रहे हैं और सही हितग्राहियों तक उसका लाभ पहुंच रहा है या नहीं इसकी फिक्र सरकारों को नहीं है। क्या पिछले आंकड़े जो आए थे उसके बाद कुछ सुधार हो पाया है इस सवाल के जवाब में सरकारें बगलें झांकने लगती हैं।
विशेषज्ञों का कहना था कि तेंदुलकर समिति ने ग्रामीण और शहरी इलाकों में गरीब व्यक्ति के रोजाना खर्च का जो आंकड़ा निर्धारित किया है, वो बहुत कम है। इस पर काफी विवाद भी हुआ था। इसके बाद सरकार ने 2013 में सी रंगराजन की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ पैनल गठित किया था। पूर्ववर्ती यूपीए सरकार के लिए राहत की बात ये है कि नई पद्धति के मुताबिक 2004-05 से 2011-12 के बीच हर साल औसतन तीन फीसदी गरीब घटे, जबकि तेंदुलकर समिति के फॉर्मूले के मुताबिक ये दर दो फीसदी ही थी। जिस देश में करीब 46 फीसदी बच्चे कुपोषण से प्रभावित हों, जहां करीब 40 प्रतिशत परिवार पूर्णत: भूमिहीन या एक एकड़ से कम जमीन के मालिक हों, जहां 90 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या का गुजारा असंगठित क्षेत्र में चलता हो; वहां सिर्फ 21.9 फीसदी लोगों को गरीबी रेखा के नीचे बताना बदहाली के जटिल और विविध स्वरूपों की बड़ी ही सीमित समझ प्रतिबिंबित करता है।
आंकड़ों के अनुसार, देश में मार्च, 2012 के अंत तक सिर्फ 27 करोड़ यानी 21.9 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे थे। शहरी आबादी के संदर्भ में यह अनुपात सिर्फ 13.7 फीसदी बताया गया है। छत्तीसगढ़ (39.93 फीसदी), झारखंड (36.96), मणिपुर (36.89), अरुणाचल (34.67) और बिहार (33.74 फीसदी) में सबसे ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं। इन आंकड़ों के अनुसार, देश में उदारीकरण की नीतियां अपनाये जाने के बाद 1993-94 से 2004-05 के बीच 11 वर्षो में गरीबी घटने की सालाना दर सिर्फ 0.74 फीसदी थी, 2004-05 से 2011-12 के बीच 7 वर्षो में बढ़ कर 2.18 फीसदी यानी करीब तिगुनी हो गयी! असल सवाल इन आंकड़ों की सच्चाई का नहीं, व्याख्या का है। यह एक कड़वी हकीकत है कि आज देश में कम से कम 27 करोड़ ऐसे लोग हैं, जिनका जीवन अत्यधिक दूभर परिस्थितियों में बीतता है तथा जिनका औसत मासिक उपभोक्ता व्यय ग्रामीण क्षेत्र में महज 816 रुपये तथा शहरी क्षेत्रों में महज 1000 रुपये है। गरीबी रेखा निर्धारित करने की जरूरत इसलिए पड़ती है, ताकि अहम कल्याणकारी योजनाओं के संचालन के लिए सब्सिडियों की मात्र व नीतियां तय की जा सके। आर्थिक विकास के नव-उदारवादी एजेंडे को अपना चुके आज के नीति निर्धारक वर्ग के लिए किसी भी कीमत पर अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर बनाये रखना बड़ी मजबूरी प्रतीत होती है, भले ही इसकी कीमत कुछ भी हो। इस गहराती मजबूरी का प्रभाव कल्याणकारी नीतियों पर अलग-अलग तरीकों से पड़ता दिख रहा है। गरीबों की संख्या में अविश्वसनीय दर से कमी बताना, जनवितरण प्रणाली जैसी जरूरी नीतियों के खात्मे की दिशा में पहल, निजी पूंजी को आकर्षित करने के नाम पर बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण की कोशिशें इसी अपरिहार्य मान ली गयी मजबूरी के साक्ष्य हैं।
देश में गरीबी रेखा तय करने की दिशा में अब तक हुए प्रयासों में अर्थशास्त्रियों की भूमिका प्रभावी रही है। कई विशेषज्ञ दलों व समितियों ने बीते दशकों में गरीबी रेखा तय करने की चेष्टाएं की हैं। पिछले कुछ वर्षो में गरीबी निर्धारण में गैर आर्थिक मापदंडों के समावेश की कोशिशें भी हुई हैं, मगर कोई पूर्ण रूप से स्वीकार्य विधि सामने नहीं आयी है। यानी इस दिशा में की गई कोशिशें बहुत सहभागी नहीं रही हैं; विशेषकर स्वयं गरीबी झेलनेवालों या बदहाली की परिस्थितियों को करीब से समझनेवालों के अनुभवों को शामिल करने के मामले में।