बेटे की कुर्सी बाप को मिल सकती है
05-Jul-2014 08:31 AM 1234828

उत्तर प्रदेश में प्रशानिक अधिकारियों के तबादलों ने नया विवाद पैदा किया है। बहुत से अधिकारी लूप लाइन पर भेेजे जाने से नाराज हैं। इसी कारण मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री बनने की अटकलें लगाई जा रही हैं। अखिलेश यादव मुख्यमंत्री के रूप में बुरी तरह फ्लॉप साबित हुए हैं। उनके शासनकाल के शुरूआती 100 दिनों में ही सैकड़ों हत्याएं हुईं, बलात्कारों की बाढ़ सी आ गई, दंगे भड़क उठे और सांप्रदायिक उन्माद भी चरम सीमा पर रहा। रही-सही कसर लोकसभा चुनाव के परिणामों ने पूरी कर दी।
अब आलम यह है कि लेपटॉप के भरोसे चुनाव जीतने का सपना देख रहे अखिलेश यादव ने लेपटॉप की योजना वापस ले ली है कई दूसरी तरह की रियायतें जो खजाने पर भार डाल रही थीं वे भी वापस ले ली गईं हैं। शायद इसी कारण समाजवादी पार्टी के भीतर से ही अखिलेश यादव को बदलने और मुलायम सिंह यादव को कमान सौंपने की मांग बड़ी प्रबलता से हो चुकी है। हाल ही में मंत्रिमंडल फेरबदल की धमकी देकर अखिलेश यादव ने मनमानी करने की कोशिश की लेकिन नए बदलाव को भी इन्हीं के सहयोगियों ने सिरे से नकार दिया। नौकरशाही में स्थानांतरण से लेकर प्रशासनिक सर्जरी के तमाम उपाय भी नकार दिए गए हैं। पार्टी की ठाकुर-वामन और मुस्लिम लॉबी यादवी गुंडागर्दी के बढऩे से नाखुश है और यादवों को सरकारी पदों से लेेकर मंत्रिमंडल में तरजीह दिए जाने से भी नाराजगी बढ़ी है। मुलायम सिंह के साथ के तमाम लोग अखिलेश यादव के साथ काम करने में असहज महसूस कर रहे हैं। इसी कारण कहा जाने लगा है कि नेताजी को कमान संभालनी चाहिए। हालांकि नेताजी ने दिल्ली में ही डेरा जमा लिया है और वे उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री पद संभालने के लिए प्रस्तुत नहीं हैं।
दोनों पिता-पुत्र के अतिरिक्त किसी तीसरे को कमान सौंपना समाजवादी पार्टी की फितरत नहीं है। कांग्रेस की तरह सपा भी वंशवाद की शिकार है। मुलायम सिंह को अपने बेटे भाइयों और बहु के सिवा कोई योग्य व्यक्ति दिखाई नहीं देता है। इसी कारण मुलायम सिंह यादव की पार्टी में ठहराव की स्थिति पैदा हो गई है।
उत्तर प्रदेश हुकूमत की कमान जब युवा अखिलेश ने संभाली थी, तो उनसे बहुत सी प्रबल उम्मीदें बंध गई थीं। क्योंकि शालीन और सौम्य दिखने वाले अखिलेश की महत्वपूर्ण भूमिका के कारण ही सपा को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ था। सपा में शक्तिशाली रहे विवादित चरित्र के अमर सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने और बाहुबली माफिया डॉन डीपी यादव को पार्टी में शामिल नहीं करने का अखिलेश द्वारा शानदार निर्णय लिया गया। ऐसे कुछ सकारात्मक राजनीतिक संकेतों के कारण उत्तर प्रदेश के जनमानस ने सपा के पक्ष में प्रबल माहौल बना था।
विधानसभा चुनाव जीतने के बाद अखिलेश द्वारा जिस तरह से मंत्रिमंडल में दर्जनों दागी किस्म के नेताओं को स्थान दिया गया, उससे अखिलेश हुकूमत में भी सपा के राजकाज की पुरानी शक्ल-ओ-सूरत पूरी तरह से सामने आ गई। आखिरकार अखिलेश सरकार गठबंधन की सरकार नहीं थी, बल्कि प्रबल बहुमत वाली सरकार थी। ऐसी कौन सी राजनीतिक विवशता रही कि अखिलेश ने माफिया सियासत के समक्ष अपने राजनीतिक घुटने टिका दिए? वस्तुत: यह सपा का जाना परखा चरित्र रहा है, जिसका मुकाबला नौसिखया मुख्यमंत्री अखिलेश कदाचित नहीं कर सके। अत: एक वर्ष के अंतराल में ही अखिलेश हुकूमत जनमानस की उम्मीदों पर खरा उतरने में नाकाम नजर आने लगी थी। उत्तर प्रदेश के समस्त राजनीतिक घटनाक्रम से स्पष्ट होता है कि शासन-प्रशासन पर अखिलेश की पकड़ अत्यंत कमजोर साबित हुई है। प्रदेश के अनेक इलाकों में घटित होते रहे नृशंस सांप्रदायिक दंगों से लेकर इलाहाबाद महाकुंभ में विकट बदइंतजामी और क्रूर अपराधों के बढ़ते हुए विकराल ग्राफ तक अखिलेश हुकूमत भी सपा का पुराना इतिहास ही दोहराती नजर आती रही। दिन दहाड़े एक पुलिस उच्च अधिकारी जिया उल हक की हत्या से साफ जाहिर हो गया कि अखिलेश ने पहले की मुलायम हुकूमत की गलतियों से कोई ऐतिहासिक सबक नहीं हासिल किया। मुजफ्फरनगर के दिल दहलाने वाले सांप्रदायिक दंगे ने अखिलेश हुकूमत के वास्तविक चरित्र को एकदम बेनकाब करके रख दिया। अखिलेश हुकूमत द्वारा मुस्लिम वोट बैंक के घनघोर लालच, लिप्सा में शासन व प्रशासन के कानूनी कर्तव्यों को पूर्णत: विस्मृत कर दिया गया। इसी के चलते पश्चिमी उत्तर प्रदेश का बड़ा हिस्सा सांप्रदायिक तनाव के लपेटे में रहा है।
सपा के पहले की हुकूमतों के अत्यंत खराब रिकॉर्ड को देखते हुए अखिलेश के समक्ष प्रबल चुनौती थी कि सूबे में कानून-व्यवस्था का अत्यंत सशक्त राज स्थापित किया जाए। दुर्भाग्यवश अखिलेश हुकूमत कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर एकदम नाकाम सिद्ध हुई है। सपा हुकूमत को शर्मिंदा और बदनाम करने के लिए जातीय उन्माद से भरे पार्टी कार्यकर्ता-समर्थक ही सबसे अधिक जिम्मेदार माने जा रहे हैं। सपा कार्यकर्ताओं पर ही प्रदेश में भयंकर उत्पात फैलाने के इल्जाम आयद होते रहे हैं। मुलायम सिंह अनेक अवसरों पर कार्यकर्ताओं को अनुशासन में रहने की नसीहत प्रदान कर चुके हैं। दुर्भाग्यवश मुलायम सिंह की नसीहतों का उदंडी सपा कार्यकर्ताओं पर कोई प्रभाव प्रतीत नहीं हुआ। हुकूमत बनते ही सपा के कार्यकर्ताओं के अलावा मंत्रियों और विधायकों के कारनामों के समक्ष अखिलेश एकदम असहाय से दृष्टिगत होने लगे।
अखिलेश के लिए बड़ा सिरदर्द तो उनके मंत्रिमंडल के वरिष्ठ मंत्रीगण ही बन गए हैं। इनके कारण ही अखिलेश को अनेक सरकारी घोषणाएं करनी पड़ी और जिन्हें कुछ ही घंटों के भीतर वापस भी लेना पड़ा। इससे सरकार का इकबाल लगातार घटता गया। वरिष्ठ मंत्रीगण अपनी मनमर्जी के मुताबिक अपने विभागों को संचालित कर रहे हैं। कटाक्ष के लहजे में अखिलेश हुकूमत के विषय में कहा जाता रहा है कि अराजकतापूर्ण उत्तर प्रदेश में एक साथ पांचÓ मुख्यमंत्री विद्यमान हैं। मुख्यमंत्री अखिलेश तो लैपटॉप और कन्या धनराशि की सरकारी खैरात वितरित करने के अतिरिक्त कुछ भी नया अनोखा करने की हिम्मत प्रदर्शित नहीं कर पाए। शासन के शीर्ष पर विराजमान मुख्यमंत्री के कठोर नियंत्रण की घनघोर कमी के कारण सरकारी कामकाज बेहद प्रभावित रहे हैं। यही मुख्य वजह रही है कि अखिलेश की सरकार बनने के बाद नृशंस अपराधों की वारदातों में बेहद बढ़ोतरी हुई है।
अखिलेश हुकूमत के पास तकरीबन तीन साल के तौर पर अभी तो काफी वक्त शेष बचा है। इस बचे हुए वक्त में समाजवादी सिद्धांतों का ईमानदारी से अनुकरण करके हुकूमत उत्तर प्रदेश में नया इतिहास अब भी रच सकती है। अखिलेश हुकूमत समाजवादी निर्माण कार्यों को हाथ में लेकर प्रदेश में प्राय: ध्वस्त हो चुके लघु उद्योगों में नई जान फूंक सकती है और प्रदेश की बेरोजगारी का समुचित निदान निकाल सकती है। नौजवानों को बेरोजगारी भत्ता के रूप में खेरात बांटना समस्या का निदान नहीं है। यह बात जितनी जल्दी मुख्यमंत्री समझ लें, वही उनकी राजनीतिक सेहत के लिए मुफीद रहेगा। गौरवशाली इतिहास वाले उत्तर प्रदेश के किसान और कृषि की ओर भी अखिलेश हुकूमत को अत्याधिक तवज्जों प्रदान करनी चाहिए। बेहद बिगड़ी हुई कानून-व्यवस्था को त्वरित तौर पर सुधारने के लिए पुलिस और न्याय व्यवस्था को चुस्त और दुरुस्त करना होगा।
तबादलों का सिलसिला जारी
उत्तर प्रदेश में वरिष्ठ अधिकारियों के तबादलों का सिलसिला जारी है। राज्य सरकार ने प्रांतीय पुलिस सेवा (पीपीएस) से जुड़े 61 अधिकारियों को इधर से उधर कर दिया है। राज्य सरकार की ओर से जारी की गई सूची के मुताबिक, कन्नौज के अपर पुलिस अधीक्षक अमर सिंह को गाजियाबाद के अपर पुलिस अधीक्षक (अपराध) बनाया गया है। फैजाबाद के अपर पुलिस अधीक्षक अनिल कुमार सिंह को कानपुर के केस्को के अपर पुलिस अधीक्षक की जिम्मेदारी सौंपी गई है। फैजाबाद के पुलिस उपाधीक्षक अरुण कुमार सिंह को पुलिस महानिदेशक के कार्यालय से संबद्ध किया गया है। मेरठ के पुलिस उपाधीक्षक अरबिंद कुमार पांडेय को पीएसी 38वीं वाहिनी का अपर पुलिस अधीक्षक बनाया गया है। आगरा के पुलिस उपाधीक्षक आशुतोष द्विवेदी को मथुरा के अपर पुलिस अधीक्षक (यातायात) का जिम्मा सौंपा गया है। इसके अतिरिक्त कई वरिष्ठ अधिकारियों का तबादला किया गया है। उल्लेखनीय है कि राज्य सरकार ने कुछ दिनों पहले ही 100 से अधिक आईएएस और आईपीएस अधिकारियों का तबादला किया था। अखिलेश यादव के सत्तासीन होने से लेकर अब तक 1888 तबादले हो चुके हैं। इन तबादलों से भारी असंतोष है कुछ दिन पहले एक युवा अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल को निलंबित कर दिया गया था।  इसके बाद काफी हंगामा मचा। अभी भी बहुत से अधिकारी इस प्रकार तबादले किये जाने से खफा हैं, एक-एक महीने में सैकड़ों तबादले हो रहे हैं इस कारण अधिकारियों को खुलकर काम करने का अवसर नहीं मिलता है।

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