यूजीसी और डीयू क्यों उलझे?
05-Jul-2014 08:18 AM 1234764

नरेन्द्र मोदी ने संसद में अपने भाषण में कहा था कि डिग्री से ज्यादा कौशल की जरूरत है तो दिल्ली यूनिवर्सिटी के  छात्रोंं पर लगातार उनके ऊपर चार वर्षीय पाठ्यक्रम थोपने की तैयारी जो दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा की जा रही थी उसका निराकरण हो गया। दरअसल दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रबन्धन पर अभी भी महत्वपूर्ण पद वाम विचारधारा से प्रेरित अध्यापकों के पास हैं। इसीलिए चार वर्षीय पाठ्यक्रम को दक्षिण पंथियों और वामपंथियों के बीच का विचार युद्ध कहकर प्रचारित किया जा रहा था लेकिन छात्रों का तर्क था कि चार साल तक पढ़ाई के बाद डिग्री मिलती तो दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र अन्य विश्वविद्यालयों के छात्रों के मुकाबले कैरियर में एक वर्ष पिछड़ जाते जिसका दूरगामी असर उनके भविष्य पर पड़ता। दिल्ली विश्वविद्यालय का तर्क था कि चार वर्षीय पाठ्यक्रम ज्यादा व्यावहारिक है और छात्रों को परिपक्व बनाता है।
दिल्ली विश्वविद्यालय में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और स्टूडेन्ट फेडरेशन ऑफ इंडिया के छात्र अपनेे-अपने राजनीतिक आकाओं के एजेंडे को लेकर आमने-सामने थे लेकिन असल मुद्दे पर किसी का ध्यान नहीं था। मुद्दा शिक्षा की गुणवत्ता और डीयू की छवि का भी है। दिल्ली विश्वविाद्यालय देश के ख्याति प्राप्त विश्वविद्यालयों में से एक है। किन्तु पिछले कुछ दिनों से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से डीयू की तनातनी चल रही थी। इस तनातनी के केन्द्र में थे दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति दिनेश सिंह जिन्होंने पिछले वर्ष चार वर्षीय अन्तर स्नातक पाठ्यक्रम प्रारंभ किया था। इस पाठ्यक्रम को एक वर्ष हो गए और जिन छात्रों ने इसमें प्रवेश लिया उनका भविष्य अधर में लटक रहा था। विवाद को सुलझाने के लिए दिनेश सिंह के साथ यूजीसी के अध्यक्ष वेद प्रकाश और उच्च शिक्षा सचिव अशोक ठाकुर की बैठक भी हुई थी लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला।
सरकार का कहना था कि यूजीसी सर्वोच्च संस्था है और सभी विश्वविद्यालयों को उसके निर्देश मानने चाहिए। मानव संसाधन मंत्री स्म़ृति ईरानी डीयू के साथ यूजीसी के विवाद को सुलझाने में हो रही देरी से काफी नाराज थीं। यूजीसी ने अपना रूख सख्त करते हुए कहा था कि यदि तीन वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम पुन: प्रारंभ नहीं किया गया तो यूजीसी अधिनियम 1956 के तहत दिल्ली विश्वविद्यालय पर कार्यवाही की जाएगी। जबकि दिल्ली विश्वविद्यालय का कहना था कि यूजीसी  का रवैया डीयू की स्वायत्ता पर हमला है। यूजीसी एक सलाहकारी संस्था है यह केवल सलाह दे सकती है निर्देश नहीं दे सकती। यूजीसी की सलाह पर अमल करना या न करना विश्वविद्यालय के विवेक पर निर्भर है। सरकार ने 5 जून को चार वर्षीय पाठ्यक्रम पर निगरानी के लिए एक सलाहकार समिति का गठन किया था लेकिन बाद में यूजीसी ने डीयू के अन्तर्गत आने वाले सभी 64 कॉलेजों को निर्देश देते हुए कहा कि सभी कॉलेजों ऑनर्स प्रोग्राम, मानविकीय, विज्ञान और वाणिज्य के पाठ्यक्रमों में तीन वर्षीय कोर्स में दाखिला दिया जाए। यूजीसी ने डीयू की एकेडमिक काउंसिल के दोबारा विचार करने के प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया इसका अर्थ यह था कि पढ़ रहे छात्रों का भविष्य स्टैण्डिंग कमेटी के हाथों में है। यूजीसी ने एक पब्लिक नोटिस भी जारी किया था जिसमें कहा गया था कि डीयू मे चल रहा चार वर्षीय पाठ्यक्रम शिक्षा की राष्ट्रीय नीति में शामिल नहीं है। यह डीयू के अधिनियम 1922 की प्रक्रिया का पालन नहीं करता है। इसलिए छात्रों के हित को ध्यान में रखते हुए चार वर्षीय पाठ्यक्रम वापिस लिया जा रहा है।
प्रश्र यह था कि जो पिछले वर्ष से इस पाठ्यक्रम में पढ़ रहे थे उन छात्रों का क्या होगा? उन्होंने तो चार वर्ष के हिसाब से ही फीस जमा की है और उनका पाठ्यक्रम भी वैसा ही है। बीच में यह खबर भी आई थी कि दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति ने इस्तीफा दे दिया है किन्तु इस खबर की पुष्टि नहीं हुई। डीयू के शिक्षक भी चार वर्षीय पाठ्यक्रम के पक्ष में नहीं थे। यूजीसी की सख्ती से लग रहा था कि सरकार की इच्छा के अनुरूप ही इसका फैसला होगा। 57 कॉलेज इसके लिए तैयार भी हो गए  थे। दिलचस्प यह है कि नरेन्द्र मोदी की प्रशंसक मधु किश्वर ने इस प्रकरण में सरकार की भूमिका पर सवाल उठाते हुए स्मृति ईरानी पर वाम दलों के हाथों में खेलने का आरोप लगाया था और यह भी कहा था कि दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति को धमकाया जा रहा है। बहरहाल अब यूजीसी के मुताबिक तीन वर्षीय पाठ्यक्रम स्वीकृत होने से छात्रों में राहत है।

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