05-Jul-2014 06:27 AM
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बिहार में रहस्यमय दिमागी बुखार ने 179 से अधिक बच्चों की जान ले ली है और मौत का यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। इसे अंग्रेजी में एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम कहा जाता है। प्रारंभिक लक्षण

यह है कि बुखार में तेजी से शरीर का तापमान बढ़ता है और यह मस्तिष्क को अपनी चपेट में ले लेता है। चंद घंटों के अंदर मौत हो जाती है। लक्षण प्रकट होते ही उपचार तत्काल जरूरी है लेकिन बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवायें अभी भी बाबा आदम के जमाने की हैं। बिहार ही क्यों देश के अधिसंख्यक हिस्से में यही कहर बरप रहा है। बहरहाल केंद्र सरकार हमेशा की तरह देर से हरकत में आई। स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन बिहार का दौरा कर आये हैं। उन्होंने वहां जाकर स्थिति का जायजा लिया। सबसे चिंताजनक आशंका यह है कि कहीं यह जानलेवा बुखार पड़ोसी राज्यों उत्तरप्रदेश, बंगाल आदि को चपेट में न ले ले। कुछ मामले सामने भी आये हैं। अकेले मुजफ्फरपुर में 100 से अधिक बच्चों की जानें गई हैं और डेढ़ दर्जन से ज्यादा बच्चे बीमार हैं। 207 बच्चों को भर्ती कराया जा चुका है जिसमें 82 बच्चों को प्रारंभिक उपचार के बाद घर भेज दिया लेकिन 60 बच्चे नहीं बचाये जा सके। पोठिया में भी इस बीमारी से एक बच्चे की मौत हो गई। एक तरफ मौतें हो रही थीं दूसरी तरफ राजनीति चल रही थी। रामविलास पासवान बहती गंगा में हाथा धोने में लगे हुये थे। उन्होंने पहले तो राज्य सरकार को कोसा और कहा कि सरकार की नींद देर से खुली बाद में पीडि़तों के परिजनों के लिये 10 लाख रुपये मुआवजे की मांग की। मुआवजा इस देश में ऐसी चमत्कारिक दवा है जिससे हर दुख का इलाज किया जा सकता है। चाहे फिर वह अपने प्यारे बच्चों की मौत का दुख ही क्यों न हो। ऐसा मानना है नेताओं का।
बहरहाल बिहार ही नहीं देश के तमाम हिस्सों में मामूली बुखार मासूमों की जान लेने में सक्षम है। क्योंकि उपचार की व्यवस्था नहीं है। हालात कुछ ऐसे हैं कि बीमारियां आसानी से फैल जाती हैं। जल-मल निकासी की व्यवस्था ठीक नहीं है। सैनिटेशन हमेशा से ही चुनौती बना हुआ है। गंदगी, सड़ांध और उष्ण कटिबंधीय जलवायु बीमारी की भयावहता कई गुना बढ़ा देती है। उस पर स्वास्थ्य सेवायें ऐसी हैं कि प्रारंभिक अवस्था में उपचार नहीं मिल पाता। फलत: पीडि़त बच्चे मामूली बीमारियों से भी दम तोड़ देते हैं। बिहार के मुजफ्फरपुर में पिछले 18 वर्षों से दिमागी बुखार का कहर बदस्तूर जारी है। कई सरकारें आईं और गईं लेकिन हालात वैसे के वैसे ही बने रहे। वर्ष 2003 में जब केंद्र में एनडीए की सरकार सत्तासीन थी उस वक्त भी यह महामारी फैली थी तब तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने विशेषज्ञ डॉक्टरों से चर्चा करके रणनीति तैयार की थी लेकिन वह रिपोर्ट धूल खाती रही।
भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य मानक के अनुसार हर 5 हजार आबादी पर एक स्वास्थ्य उपकेंद्र होना चाहिये जहां प्रत्येक बीमारी का प्राथमिक उपचार हो सके। लेकिन बिहार में 10 हजार की आबादी पर भी स्वास्थ्य उपकेंद्र उपलब्ध नहीं हैं। जबकि प्रदेश की जनसंख्या 10 करोड़ के करीब पहुंच रही है। इस लिहाज से प्रदेश में 20 हजार स्वास्थ्य उपकेंद्र की तत्काल आवश्यकता है। फिलहाल तो इनकी संख्या 9 हजार के करीब ही है। और इनमें से भी आधे से ज्यादा ऐसे हैं जहां इनसान क्या जानवरों का इलाज भी मुश्किल है। बहुत से स्वास्थ्य केंद्रों में तो शौचालय तक नहीं हैं। कई जगह दवायें नहीं हैं तो कई जगह उपकरण नहीं हैं। प्रदेश में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और पूरी तरह सुसज्जित स्पेशलिटी अस्पताल न के बराबर हैं। सारे प्रदेश में 1 हजार रेफरल अस्पतालों की आवश्यकता है। लेकिन कुल 100 रेफरल अस्पताल उपलब्ध हैं। इसलिये श्रीकृष्ण मेमोरियल अस्पताल जैसे चिकित्सा महाविद्यालयों के भरोसे इलाज किया जाता है। यहां सीजन के समय पीडि़त बच्चों की मौत अन्य मरीजों की इतनी तादाद बढ़ जाती है कि बिस्तर ही उपलब्ध नहीं होते। अस्पताल के बाद सड़कों पर, पेड़ के नीचे जिसे जहां जगह मिलती है डेरा जमा लेता है और भगवान का आशीर्वाद रहा तो जीवित घर लौटने में कामयाब हो जाता है। मस्तिष्क ज्वर में शुरूआती 4-5 घंटे महत्वपूर्ण होते हैं। यह गोल्डन पीरियेड है। इस दौरान उपचार मिल जाये तो बीमारी बहुत हद तक काबू में आ सकती है।
लेकिन लक्षण प्रकट होते ही ग्रामीण क्षेत्रों में घरेलू उपचार दिया जाता है। जो कई बार मरीज की मौत का कारण बन सकता है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन का कहना है कि जापानी इंसेफलाइटिस से निपटने के लिये सरकार विशेष टीकाकरण अभियान की तैयारी भी कर रही है। तेज गर्मी में होने वाली इस बीमारी को रोकने के लिये टीका काफी पहले ईजाद हो चुका है लेकिन जागरूकता के अभाव में माता-पिता बच्चों को यह टीका नहीं लगवा पाते।