31-Jul-2014 09:20 AM
1234756
बिहार में सियासी मजबूरी ने एक-दूसरे के कटु आलोचक रहे नीतिश कुमार और लालू यादव को गले मिलने के लिए तो पहले ही विवश कर दिया था किंतु अब यह विवशता चुनावी तालमेल में भी बदल

चुकी है। ज्ञात हुआ है कि जनता दल यूनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल 10 विधानसभा सीटों के लिए होने वाले उपचुनाव में मिलकर मैदान में उतरने की तैयारी कर चुके हैं। हालांकि सीट बंटवारे पर विवाद गहरा गया है। मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने मौजूदा फार्मूले को नकार दिया है। बिहार में अगले वर्ष विधानसभा चुनाव हैं, इसीलिए उपचुनाव की जीत महत्वपूर्ण है और जिस तरह भाजपा की आंधी लोकसभा चुनाव में चली थी उसे देखते हुए यह जीत एक चुनौती भी है। दोनों दलों के समक्ष वजूद बचाने का लक्ष्य है क्योंकि दोनों ही दल आंतरिक तोडफ़ोड़ और असंतोष का भी शिकार हैं। दोनों ही दलों के कई बड़े नेता बेवफाई कर चुके हैं और बहुत से ऐसे भी हैं जो बेवफाई करने की मंशा रखते हैं लेकिन खुलकर सामने नहीं आ पा रहे हैं। उपचुनाव के परिणाम शायद इनमें से कुछ को मुखर होने और अपनी भावना व्यक्त करने का अवसर देंगे।
बिहार मेंं सियासी विडम्बना का यह उत्कृष्ट प्रदर्शन है। कभी लालू यादव के जंगल राज को विदाई देते हुए नीतिश कुमार ने बिहार में धमाकेदार जीत हासिल की थी। वे बदलाव के पुरोधा के रूप में जनता के समक्ष प्रकट हुए थे और लगातार दूसरे चुनाव में जीत का सेहरा नीतिश के मस्तक पर रखकर जनता ने उनका भरपूर अभिनन्दन किया था लेकिन जल्द ही नीतिश का तिलिस्म टूटने लगा। बिहार मेेंं जब वे जनता के बीच यात्रा करने निकले तो उनका जगह-जगह विरोध हुआ और भाजपा से भी उनके संबंध तल्ख होने लगे। भाजपा की राज्य इकाई इसलिए नाराज थी कि नीतिश कदम-कदम पर नरेन्द्र मोदी का विरोध कर रहे थे, भाजपा का यह भी मानना था कि राज्य में वह जनता दल यूनाइटेड से ज्यादा लोकप्रिय है अत: मुख्यमंत्री का पद भाजपा को ही मिलना चाहिए। नीतिश ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट किए जाने का भरपूर विरोध किया और जब उन्हें लगा कि इस विरोध से कोई फायदा नहीं होने वाला तो उन्होंने भाजपा से 17 वर्ष पुराने संबंध तोड़ दिए।
यह आत्मघाती कदम नीतिश ने उस समय उठाया जब राज्य में उनकी लोकप्रियता का ग्राफ बहुत नीचे जा चुका था और भाजपा नेतृत्व ने धर्म निरपेक्षता के नाम पर सहयोगी दलों का पाखंड अब और बर्दाश्त न करने का फैसला कर लिया था। इसलिए लोकसभा चुनाव में नीतिश अकेले लड़े। उधर लालू और कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा किंतु रामविलास पासवान ने मौका देखकर पाला बदल लिया और भाजपा का दामन थामकर मोदी लहर के सहारे अपनी वैतरणी पार कर ली। बिहार के चुनावी परिणाम जनता दल यूनाइटेड के लिए खतरे की घंटी थे। अब भी हालात वैसे ही हैं।
राज्य में स्पष्ट विभाजन दिखाई दे रहा है। यदि कांग्रेस, जनता दल यूनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल सहित तमाम धर्मनिरपेक्ष पार्टियां एक मंच पर आती हैं तो मुकाबला रोचक हो जाएगा लेकिन विधानसभा चुनाव में जातिवादी गणित प्रमुख भूमिका निभाएगा। लालू और नीतिश के एक साथ आने से नए जातीय समीकरण उभर सकते हैं। लोकसभा चुनाव के परिणाम को आधार बनाया जाए तो लालू यादव सीटों के तालमेल में बड़ा हिस्सा मांगेंगे यह तय है। इसीलिए मुख्यमंत्री पद को लेकर भी उनकी महत्वाकांक्षा स्पष्ट हो जाएगी, लेकिन यह सवाल तो तब पैदा होगा जब जीत मिलेगी। फिलहाल भाजपा और उसके गठबंधन की स्थिति बिहार में दिनों-दिन मजबूत हो रही है। भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी का कहना है कि बिहार की जनता ने लोकसभा चुनाव जिताकर पार्टी को कुरता तो पहना दिया है अब विधानसभा चुनाव जिताकर पजामा भी पहनाना चाहिए। उधर नीतिश कुमार का कहना है कि केंद्र और राज्य में एनडीए का मुकाबला करने के लिए धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एक मंच पर खड़ा होना होगा। 70 के दशक में नीतिश कुमार और लालू यादव जनता पार्टी के बैनर तले युवा नेता हुआ करते थे। किंतु इस दिल के टुकड़े हजार हुए की तर्ज पर जनता दल बिखर गया और उसमें से कई छोटी-बड़ी पार्टियां निकलकर राष्ट्रीय मंच पर प्रकट हो गईं। इन मौकापरस्त पार्टियों की विशेषता यह है कि ये अवसर देखकर कभी भाजपा तो कभी कांग्रेस के पाले में जाकर बैठ जाती हैं। लालू यादव एक समय कांग्रेस के धुर विरोधी हुआ करते थे बल्कि लालू और नीतिश की राजनीति ही कांग्र्रेस का विरोध करके प्रारंभ हुई थी लेकिन समय के साथ यह सब लोग कांग्रेस से जुडऩे लगे। आज सब कुछ गड़बड़ है कौन किसके साथ है और किसका विरोधी है यह ज्ञात नहीं है इसी कारण बिहार में चुनावी संभावना की भविष्यवाणी करना फिलहाल संभव नहीं है पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि भाजपा के गठबंधन ने प्रभावी बढ़त बना ली है और वे आगामी चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले हैं।