20-Jun-2014 04:12 AM
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हम गंगा को अपनी मॉँ मानते हैं। गंगा ही क्यों देश की तमाम नदियों को आदर से माता ही तो कहा जाता है। किंतु अपनी इस माँ के साथ हम क्या करते हैं। उसके शरीर में मल मूत्र उड़ेलते हैं। उसमें जहरीला कचरा डालते हैं। शव बहाते हैं। जानवरों को नहलाते हैं। सड़ी पूजन सामग्री उसमें प्रवाहित कर आस्था का ढोंग करते हैं। लाखों दिये उसमें छोड़कर उसके जीवन में अंधकार लाने की चेष्टा करते हैं।
असल में हम सब ढोंगी हैं। बहुत बड़े पाखंडी हैं। क्रूर हैं और पापी भी हैं। जिन देशों में नदियों को मां नहीं कहा जाता कम से कम उन्होंने नदियों को बचाकर तो रखा है। लेकिन एक तरफ हम नदियों को अपनी मां मानते हैं और दूसरी तरफ उन्हें ही नष्ट करने पर तुले हुये हैं। देखा जाये तो हम सब तिल-तिल करके अपनी इन माताओं को मौत के घाट उतार रहे हैं।
बड़े-बड़े बांधों ने नदियों का प्रवाह अवरुद्ध कर उन्हें चंद तालाबों में तब्दील कर दिया है और नदियों के आसपास कल-कारखानों से लेकर सीवेज और गंदे नालों ने नदियों के अंदर जहर भर दिया है। ये जहरीली नदियां हमें शाप दे रही हैं। इसीलिये नदियों के जाल से बुना गया यह देश पानी के लिये तड़प रहा है। विकराल जल संकट इस देश की वास्तविकता बन चुका है और नदियां जो कभी कलकल बहा करती थीं आज सड़ांध मार रही हैं।
इसी कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गंगा से ज्यादा उस सड़ांध मारती व्यवस्था को स्वच्छ करना होगा जो निर्मल गंगा के नाम पर 30 हजार करोड़ रुपये डकारने के बाद भी बड़ी बेशर्मी से गंगा को लेकर चिंता व्यक्त कर रही है। नरेंद्र मोदी को उन लोगों को गंगा के काम से हटाना होगा जिनका काम केवल चोरी और दिखावा रह गया है। असल नुकसान तो इन्हीं लोगों ने किया है। गंगा एक्शन प्लान असफल करने वालों पर जिम्मेदारी तय करते हुये उन्हें जेल की सलाखों के पीछे जब तक नहीं भेजा जायेगा तब तक भागीरथी का उद्धार नहीं हो सकता। सरकारें आती गईं और पैसों की कई खेप केंद्र सरकार के खजाने से निकल कर गंगा के इन कथित उद्धारकों के पास पहुंची लेकिन उनकी जेब में समा गई पर गंगा वैसी ही है। गंगा एक्शन प्लान के दोनों चरण बुरी तरह फ्लॉप हो चुके हैं। ऐसे में कौन है जो हिंदुओं की इस पवित्र नदी को उसके प्राण लौटा सके।
पिछले 30 सालों के दौरान गंगा की सफाई के लिए चलाए गए गंगा एक्शन प्लान (जीएपी) के तहत 20 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की रकम आवंटित की जा चुकी है, लेकिन नदी की हालत में सुधार नहीं हुआ है। धारणा यह है कि गंगा की सफाई पर हजारों करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं, लेकिन सच्चाई इसके उलट है। पिछले तीन दशकों में जितनी रकम आवंटित की गई है, उसका मामूली हिस्सा ही साफ-सफाई पर खर्च किया गया है। 1985 से लेकर अब तक जीएपी के तहत महज 967.30 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं।
केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि अगर खर्च की गई रकम का हिसाब लगाएं तो यह सालाना 30 करोड़ रुपए के आसपास बैठता है। सूत्रों का यह भी कहना है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए जो लक्ष्य तय किए गए थे, वे भी पूरे नहीं हो सके। 30 प्रतिशत लक्ष्यों को ही पूरा किया जा सका है। मसलन, हर दिन 3,000 मिलियन लीटर सीवेज ट्रीटमेंट का लक्ष्य निर्धारित किया गया था, लेकिन प्रतिदिन 1098.31 मिलियन लीटर का लक्ष्य ही पाया जा सका।
जीएपी के पहले चरण के तहत 260 योजनाओं पर करीब 461 करोड़ रुपए खर्च किए गए। इसमें पांच राज्यों में प्रतिदिन 869 मिलियन लीटर सीवेज ट्रीटमेंट का लक्ष्य भी शामिल था। जीएपी के दूसरे चरण के तहत 505 करोड़ रुपए के खर्च पर 264
योजनाओं को पूरा किया गया। इस दौरान प्रतिदिन 229 मिलियन लीटर सीवेज ट्रीटमेंट का लक्ष्य पाया गया। यह लक्ष्य कुल निर्धारित प्रतिदिन 3000 मिलियन लीटर का एक-तिहाई था।
पिछले कई सालों के दौरान प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली नेशनल रिवर कंजरवेशन अथॉरिटी (एनआरसीए) की बैठक नहीं हुई है। गौरतलब है कि एनआरसीए का गठन 1995 में हुआ था और इसकी अंतिम बैठक 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में हुई थी।
पिछले 10 सालों के दौरान एनआरसीए की बैठक तो नहीं ही हुई, इसकी परिचालन समिति की बैठक भी 2007 के बाद नहीं हुई है। परिचालन समिति की अध्यक्षता वन और पर्यावरण मंत्रालय का सचिव करता है और इस समिति का काम योजनाओं के लिए जारी किए गए फंड के आवंटन और काम में हो रही तरक्की पर नजर रखना होता है