16-Apr-2014 09:00 AM
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कभी चार करोड़ की संख्या में इस देश के आकाश पर एक छत्र राज करने वाले गिद्ध अब 4 हजार वर्गफीट के छोटे से ब्रीडिंग सेंटर में अपना कुनबा बढ़ाने की कोशिश करेंगे। भोपाल में केरवाडेम के पास जब गिद्ध ब्रीडिंग सेंटर के बारे में पता चला

तो वर्ष 2012 के अगस्त माह में प्रकाशित रमेश चंद कटारिया और एमएल ठाकुर द्वारा लिखित किताब Status of vultures in Kangra valley of Himachal Pradesh, India का स्मरण हो आया जो कभी अनायास ही पढऩे में आई थी। इस किताब में कांगड़ा घाटी में विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुके लगभग 8 प्रजातियों के गिद्धों के ऊपर विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया गया है और Diclofenac नामक दवा के दुष्प्रभाव पर विस्तार पूर्वक बताया गया है जो आमतौर पर पशुओं को दी जाती है। यद्यपि यह दवा भारत में प्रतिबंधित है, लेकिन Diclofenac में पाए जाने वाले तत्व जानवरों को दी जाने वाली बहुत सी दवाओं में मौजूद हैं। खासकर जो सूजन और दर्द के लिए दी जाती हैं। इसीलिए पशुओं के शव को खाने वाले गिद्ध अभी भी दम तोड़ रहे हैं। हालांकि इनकी मृत्युदर में 60 प्रतिशत की गिरावट उन दवाओं पर रोक लगने के बाद देखने में आई है, लेकिन मृत्युदर सामान्य के मुकाबले ज्यादा ही बनी हुई है। कुछ समय पहले पुणे आधारित एनजीओ इला फाउंडेशन और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (एनआईवी) ने एक शोध पत्र प्रकाशित किया था जिसमें गिद्धों की मृत्युदर में तीव्र गिरावट के कुछ कारण बताए गए हैं। 90 प्रतिशत से भी अधिक गिरावट के पीछे सबसे बड़ा कारण हमारा पर्यावरण ही है, लेकिन शहरी विकास की कीमत भी इन गिद्धों ने अपनी जान देकर चुकाई है। शोधकर्ताओं ने जब कुछ मृत गिद्धों की देह का परीक्षण किया तो उनके रक्त और मांस में न तो Diclofenac के तत्व मिले और न ही कीटनाशक पाए गए। फिर इनकी मृत्यु क्यों हुई? गहराई से पड़ताल करने पर जो तथ्य सामने आया वह चौंकाने वाला था। लगभग सभी गिद्ध करंट लगने से मरे थे। हाईटेंशन लाइन और विद्युत लाइनों का जाल गिद्धों की जान का दुश्मन है। कुछ समय पूर्व यह कहा गया था कि जंगलों से गुजरने वाली हाईटेंशन लाइन का विकल्प तलाशा जाना चाहिए, लेकिन यह बात केवल कागजों तक सीमित रह गई। आज गिद्धों की मौत का यह एक बड़ा कारण है। शोधकर्ताओं ने यह भी पाया है कि पशुओं के शवों को खुले में छोडऩे के बजाए उन्हें गड़ाया या अन्य तरीके से नष्ट किया जा रहा है। जिसके चलते गिद्धों को भोजन भी कम उपलब्ध हो रहा है। इला फाउंडेशन का कहना है कि Diclofenac अभी भी गिद्धों में पहुंच रहा है। क्योंकि इसके वाहक अन्य दूसरे तत्व हैं जो दुधारू पशुओं और पालतू पशुओं को दिए जा रहे हैं। घनी बस्तियों तथा गंदगी के कारण मलेरिया का प्रकोप भी बहुत तेजी से बढ़ा है। मलेरिया के चलते गिद्धों की संख्या में पर्याप्त कमी आई है, लेकिन सबसे ज्यादा मौत की जिम्मेदार हमारी कृषि पद्धति है, जिसमें पेस्टीसाइड्स का उपयोग लगातार बढ़ रहा है। बहुत सारे किसान अभी भी इसके खतरे से वाकिफ नहीं हैं। पेस्टीसाइड्स अनाज और घास के जरिए पशुओं के शरीर में पहुंच रहे हैं जहां से ये गिद्धों के शरीर में पहुंच कर उनके पूरे तंत्र को बर्बाद कर देते हैं।
गिद्धों के अंडों के खोल अब उतने मजबूत नहीं रह गए। इसका श्रेय भी पशुओं के मांस में पाए जाने वाले पेस्टीसाइड्स को है। पेड़ों के कटने से गिद्धों को घोंसला बनाने में परेशानी आती है। यह भी उनकी संख्या में गिरावट का एक बड़ा कारण है और इसी के चलते कभी मुक्त आकाश में विचरण करने वाले गिद्धों को अब 4 हजार वर्गफीट की खुली एवरीज में पाला जा रहा है। इसे बहुत दर्दनाक स्थिति कहा जा सकता है। पर्यावरण को साफ रखने में मददगार और हमारी पौराणिक कथाओं के नायक गिद्ध दिन-ब-दिन क्यों मर रहे हैं इस पर विस्तृत अध्ययन किए बगैर गिद्धों को ब्रीडिंग सेंटर में बढ़ाने की कोशिश हास्यास्पद लगती है। यदि गिद्धों को सही तरीके से पालना है तो उन्हें प्राकृतिक तौर पर उनका आवास वापस देना होगा। जंगलों का दायरा बढ़ाना पड़ेगा और कृषि में उपयोग आने वाले कीटनाशकों, रासायनिक खादों से तौबा करनी पड़ेगी उसके साथ ही साथ दूध के लालच में पालतू पशुओं के ऊपर जो क्रूरता बरती जा रही है, उन्हें दवाएं खिलाकर, एस्ट्रॉयड देकर समय से पहले बड़ा किया जा रहा है। ज्यादा मांस के लालच में कैमिकल खिलाए जा रहे हैं। उन सब पर भी प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता है।
गिद्ध हमारे जैवतंत्र का एक अहम हिस्सा हंै। इन्हें वह तंत्र ही देना होगा तभी इनकी आबादी बढ़ेगी। देश के 19 ब्रीडिंग सेंटर बमुश्किल हजारों गिद्ध पैदा कर पाएंगे, लेकिन इस पृथ्वी पर व्याप्त गंदगी को समेटने के लिए करोड़ों गिद्धों की आवश्यकता है। आश्चर्य का विषय है कि गिद्धों की संख्या कम होने के साथ ही पर्यावरण प्रदूषण से जनित कुछ गंभीर बीमारियां भारत और आसपास के देशों में तेजी से फैली हैं, लेकिन इनकी तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। बढ़ती जनसंख्या के कारण जो आवास की समस्या विकराल होती जा रही है वह भी गिद्ध जैसे पक्षियों के लिए खतरनाक है। भारत के जंगल दुनिया में सबसे तेजी से विलुप्त हो रहे हैं। कई जंतु प्रजातियां हर दिन खत्म हो जाती हैं। हमारी पूरी जैव विविधता नष्ट हो चुकी है और इसका खामियाजा इंसानों ने नहीं गिद्ध जैसे निरीह पक्षी ने भुगता है। गोरैया अब हमारे आंगन में नहीं फुदकती। क्योंकि मोबाइल टॉवरों ने उसका जीवन नष्ट कर दिया है और अब गिद्ध भी गिने-चुने बचे हैं। भारत, नेपाल और पाकिस्तान ने वर्ष 2006 में जिन दवाओं को प्रतिबंधित कर दिया गया था वे अभी भी उपयोग में लाई जा रही हैं। दक्षिण एशिया की गिद्धों की 97 प्रतिशत आबादी और कहीं-कहीं तो 99.9 प्रतिशत आबादी नष्ट हो चुकी है।