19-Jun-2014 02:53 PM
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अंतत: तेलंगाना अस्तित्व में आ गया। अलग संस्कृति अलग पहचान की भावना में छिपा यह अलगाव प्रदेशों को तोड़ रहा है तब तक तो ठीक है किंतु कहीं यह राष्ट्र को न तोड़ डाले। इस आशंका के साथ जन्मे तेलंगाना के घाव लंबे समय तक हरे रहने वाले हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह चार दशक तक चले लंबे संघर्ष के बाद इस प्रदेश का जन्म हुआ।
तेलंगाना को लेकर जनमानस में और दोनों राज्यों में कई तरह की शंकायें पहले से ही थीं। न्यायसंगत तो यही है कि हैदराबाद तेलंगाना को सौंप दिया जाये। क्योंकि जिस नक्शे का विभाजन हुआ है उसके अनुसार हैदराबाद तेलंगाना के हिस्से में आता है। दरअसल विवाद भी इसी शहर को लेकर है। जिसे कभी चंद्रबाबू नायडू ने बड़े लगन और विजन के साथ साइबर शहर में तब्दील करने की कोशिश की थी। अविभाजित आंध्रप्रदेश के सबसे करिश्माई मुख्यमंत्री रहे चंद्रबाबू नायडू अब विभाजित आंध्रप्रदेश के सीमांध्र के पहले मुख्यमंत्री भी हैं और राज्य को आगे ले जाने की चुनौती उनके समक्ष मुंह बाये खड़ी है। जब तेलंगाना आंध्रप्रदेश का हिस्सा हुआ करता था उस वक्त नायडू के पास फंड्स की कमी नहीं थी। क्योंकि तेलंगाना का आंध्र में वही महत्व था जो कभी बिहार में झारखंड का हुआ करता था। लेकिन नायडू का यह स्वप्न पूरा नहीं हो सका। वे आंधप्रदेश को अविभाजित रखने में कामयाब नहीं रहे और आंध्र के विभाजन का राजनीतिक अभिशाप कांग्रेस ने भुगता जो दोनों प्रदेशों में हासिये पर जा चुकी है।
जब चंद्रशेखर राव ने 9 कैबिनेट मंत्रियों के साथ मुख्यमंत्री पद की शपथ ली तो उस वक्त साफ हो चुका था कि तेलंगाना का श्रीगणेश भी जातिवादी और वंशवादी राजनीति के चंगुल में फंसे राज्यों की तर्ज पर ही हो रहा है। मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने अपने बेटे टी. रामाराव और भतीजे हरीश राव को मंत्रिमंडल में शामिल करके बता दिया कि तेलंगाना पारिवारिक पार्टी के भरोसे ही शासित होता रहेगा। चंद्रबाबू नायडू को न तो निजी आमंत्रण दिया गया और न ही टेलीफोन कॉल किया गया। जबकि शिष्टाचार के नाते उन्हें बुलाया जाना चाहिये।
तेलंगाना आंदोलन की मुहिम 1969 में प्रारंभ हुई और 300 लोगों के बलिदान के 41 वर्ष पश्चात् अब एक अलग राज्य के रूप में यह अस्तित्व में आया है। तेलंगाना क्षेत्र नवंबर 1965 में आंध्रप्रदेश में शामिल हुआ था। उस वक्त यह फैसला भाषाई आधार पर हुआ लेकिन बाद में पृथक तेलंगाना की मांग उठी। 2001 में जब चंद्रशेखर राव ने तेलुगुदेशम छोड़कर तेलंगाना राष्ट्र समिति बनाई तो तय हो गया था कि राव की महत्वाकांक्षा अलग राज्य को लेकर है। कांग्रेस से गठबंधन तोडऩा और कांग्रेस विलय से इनकार करना भी राव की सोची-समझी रणनीति थी। आज वे तेलंगाना के निर्विवाद नेता हैं और अगले एक दशक तक उनकी राजनीति सुरक्षित है। लेकिन पारिवारिक राजनीति कब तक चलेगी कहना मुश्किल है। तेलंगाना राज्य को फिलहाल 44 आईएएस अधिकारी आवंटित किए गए हैं। कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग ने अपने आदेश में इस बात की जानकारी दी है। आदेश में कहा गया है कि अभी जितने अधिकारी तेलंगाना को आवंटित किए गए हैं, वह आखिरी फैसला नहीं है। केंद्र सरकार के द्वारा स्थापित एक कमेटी ने तेलंगाना राज्य के लिए 163 आईएएस अधिकारियों, 112 आईपीएस अधिकारियों और विदेश सेवा के 65 अधिकारी आवंटित करने की सिफारिश की है, लेकिन इन सिफारिशों पर आखिरी फैसला लिया जाना बाकी है।
तेलंगाना राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक तौर पर आंध्र प्रदेश के बाकी इलाकों से अलग है। इसी अलगावÓ ने एक अलग राज्य की नींव रखी लेकिन इस नींव पर एक अलग प्रदेश की इमारत खड़ी होने में तकरीबन डेढ़ सौ साल लग गए। 1850 के बाद तटीय इलाकों और तेलंगाना के बीच का अंतर बढ़ता गया। आंध्र का तटीय इलाका अंग्रेजों के अधीन था तो तेलंगाना निजाम की रियासत, जिसे हैदराबाद के नाम से जाना जाता था। दोनों इलाकों में कोई खास अंतर नहीं था। ग्रामीण इलाके बेहद पिछड़े हुए थे और कृषि पूरी तरह बारिश पर निर्भर थी। इतिहासकार मानते हैं कि आमदनी के मामले में निजाम का हैदराबाद स्टेट तटीय इलाकों के मुकाबले कहीं मजबूत था। लेकिन सामंतवादी समाज में आम आदमी की जिंदगी बद से बदतर होती जा रही थी। पूरे राज्य की 27 फीसदी आमदनी निजाम के ऐशो आराम पर खर्च होती रही। तटीय आंध्र प्रदेश के हालात भी कुछ खास अच्छे नहीं थे। लेकिन 1844 में राजामुंदरी जिले में कुछ ऐसा हुआ जिसने इलाके की तस्वीर बदल दी।