धर्मनिरपेक्षता का चक्रव्यूह
06-May-2014 01:45 PM 1234769

उत्तरप्रदेश में सलमान खुर्शीद ने यह दावा किया कि जब भगवान राम की लहर इस देश में हिंदूवादी सरकार बनाने में कामयाब नहीं हो सकी तो फिर नरेंद्र मोदी की क्या औकात है। सलमान खुर्शीद के इस कथन ने विभाजन के जख्मों को फिर तरोताजा कर दिया जहां कुछ नेताओं की जिद के कारण हिंदू बहुल यह देश छद्म धर्मनिरपेक्षता का लबादा ओढऩे के लिए विवश हुआ और जिसकी पराकाष्ठा कश्मीर सहित तमाम क्षेत्रों में अलगाववादी ताकतों के उभार के रूप में देखने को मिली। 2014 के लोकसभा चुनाव में इसी विकृत धर्म निरपेक्षता की आड़ में एक बार फिर हिंदुओं की भावनाओं को चुनौती दी जा रही है और यह काम उन नेताओं द्वारा किया जा रहा है जो खुद को धर्मनिरपेक्ष बताते हैं। फारुख अब्दुल्ला खुलेआम कश्मीर की जनता से कह रहे हैं कि नरेंद्र मोदी उनका झंडा छीन लेगा, उनका निजाम छीन लेगा, कौम को बर्बाद कर देगा। यह किस तरीके का बयान है। हिंदुस्तान जिसमें हिंदुओं की बहुलता है वहां धर्मनिरपेक्षता के नाम पर लगभग हर धर्मनिरपेक्ष नेता हिंदुओं के स्वाभिमान को और उनकी भावनाओं को मंच से चुनौती दे रहा है और इस देश की हिंदू बहुसंख्या यह सब सुनने को विवश है। धर्म निरपेक्षता के नाम पर मुस्लिमपरस्ती के लिए किसी भी सीमा तक जाने वाले ये नेता हिंदूवादी नेतृत्व को उभरने से रोकने के लिए हर समझौता करने को तैयार हैं और हर तरह से गोलबंद होने को तत्पर हैं। पिछले दो सप्ताह में कांग्रेस और अन्य दलों के नेतृत्व ने जिस तरह बयान दिया है उससे साफ हो चुका है कि हिंदुवादी होना इस देश में एक अभिशाप है और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर पनपती सांप्रदायिकता को सुनियोजित तरीके से बढ़ाया जा रहा है। देश का विभाजन स्पष्ट रूप से हिंदू-मुस्लिम विभाजन था क्योंकि लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के सहयोगी बैरिस्टर मोहम्मद अली जिन्ना जिन्होंने खिलाफत आंदोलन का विरोध किया उन्हें कांग्रेस की नेहरू समर्पित लॉबी ने लगातार हॉशिए पर धकेला और मौलाना मोहम्मद अली, शौकत अली जैसे कट्टर तथा दकियानूसी नेताओं को मुख्य धारा में लाने का प्रयास किया। जिससे जिन्ना का मानस कुछ इस तरह बदला कि वे इतिहास के सबसे कट्टर नेता साबित हुए और देश विभाजन का दाग उनके दामन पर लगा, लेकिन इसके पहले की घटनाएं एक आम भारतीय के मस्तिष्क को झकझोरने के लिए पर्याप्त है।

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