16-Apr-2014 08:55 AM
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मध्यप्रदेश भाजपा में असंतोष चरम सीमा पर है। सबसे पहले तो मुख्यमंत्री की धरमपत्नी साधना सिंह के टिकिट को लेकर काफी खींचतान देखी गई। दरअसल कई मंत्री पत्नियों को लोकसभा के टिकिट से वंचित कर दिया गया इसलिए

मुख्यमंत्री पर भी दबाव था कि वे त्याग की इस बलि वेदी पर स्वयं भी त्याग दिखाए और अपनी पत्नी को बतौर उम्मीदवार प्रस्तुत न करें। अंतत: साधना सिंह ने ही मना कर दिया या यूं कहें कि उनसे मना करवाया गया। वैसे भी विदिशा में विधानसभा और लोकसभा दोनों जगह भाजपा के लिए चुनौती पहले की अपेक्षा अधिक है। राघवजी का प्रभाव यथावत है। यद्यपि राजनीति में राघवजी के संगी साथी भाग खड़े हुए हैं, लेकिन विदिशा में उन्हें चाहने वालों की कमी नहीं है। लिहाजा इस संसदीय और विधानसभा क्षेत्र में कार्यकर्ताओं में वह उत्साह नहीं है जो पहले हुआ करता था। अब दो बार सरपंच और एक बार मंडी डायरेक्टर रहे कल्याण सिंह दांगी को विधानसभा सीट से उम्मीदवार घोषित करके भाजपा ने विदिशा वासियों की वह शिकायत कुछ हद तक दूर कर दी है कि वहां बाहरी लोगों को प्रत्याशी बनाया जाता रहा है, लेकिन इस घोषणा के पीछे जो राजनीति हुई उसने भाजपा की इज्जत क्षेत्र में तार-तार कर दी। मुख्यमंत्री के खासमखास मुकेश टंडन और जिला अध्यक्ष तोरण सिंह दांगी भी चुनावी मैदान में आना चाह रहे थे, लेकिन कल्याण सिंह ज्यादा किस्मत वाले रहे। कल्याण सिंह के चचेरे भाई मोहन ठाकुर विदिशा से चार बार विधायक रहे हैं और उनकी धर्मपत्नी सुशीला सिंह भी एक बार विधायक रह चुकी है। इसी कारण कल्याण सिंह को ज्यादा वजन दिया गया, लेकिन विदिशा में जो असंतोष है उसके कुछ और भी कारण है। लक्ष्मण सिंह का बढ़ता प्रभाव विधानसभा में भी असर डालेगा। सुषमा स्वराज मोदी लहर में जीत भले ही जाएं, लेकिन उनके मतों का प्रतिशत कम अवश्य होगा। विदिशा में राजकुमार पटेल भी चुनाव लडऩे की घोषणा कर चुके थे, लेकिन बाद में वे मान गए। इससे यह संकेत मिला कि दिग्विजय सिंह ने विदिशा में कांग्रेस को एकजुट कर दिया है। हालांकि भाजपा अभी भी एकजुट नहीं है। यहां की 8 में से 6 सीटों पर भाजपा और दो पर कांग्रेस काबिज है इसलिए समीकरण तो भाजपा के ही पक्ष में है, लेकिन विधानसभा के समय भाजपा को खतरा भी हो सकता है।
उधर पार्टी में लगातार कांग्रेसी विधायकों के आने से अब असंतोष पैदा हो गया है। दरअसल इन दल बदलू विधायकों और नेताओं की भाजपा में कुछ ज्यादा ही पूछ-परख है। इस कारण पुराने समर्पित कार्यकर्ताओं की घोर उपेक्षा भी हुई है। संजय पाठक ने आने से पहले जो सौदेबाजी की उसका असर आने वाले दिनों में अवश्य दिखाई देगा। दल-बदलुओं को लेकर भाजपा के कई आला नेता असंतोष प्रकट कर चुके हैं। हाल ही में भिंड में जब बसपा के कुछ नेता भाजपा में शामिल हुए तो प्रदेश कार्यालय में कुछ कार्यकर्ताओं ने हंगामा भी किया। हालांकि इन नेताओं को भाजपा ने कांग्रेस का नेता बताया था पर बाद में ज्ञात हुआ कि ये बसपा के हैं। मैहर विधानसभा से नवनिर्वाचित कांग्रेस विधायक नारायण त्रिपाठी ने जब अरविंद मेनन और शिवराज सिंह चौहान की मौजूदगी में भाजपा की सदस्यता ग्रहण की उस समय भी काफी असंतोष उभरा क्योंकि विजय राघौगढ़ विधायक संजय पाठक और जतारा विधायक दिनेश अहिरवार पहले ही भाजपा की सदस्यता ले चुके थे। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का कहना था कि इससे लोकसभा चुनाव से पूर्व कांग्रेस मजबूत होगी, लेकिन भाजपा के कुछ नेताओं ने कांग्रेस से आने वाले नेताओं की सैद्धांतिक पृष्ठभूमि का सवाल खड़ा किया। प्रभात झा भले ही ऊपरी रूप से यह कहते हों कि कोई आश्चर्य नहीं कल को सत्यदेव कटारे भी भाजपा में आ जाएं, लेकिन सच तो यह है कि अपने कुछ खास नेताओं की उपेक्षा से झा भी खुश नहीं हैं। जहां तक नारायण त्रिपाठी का प्रश्न है वे दल-दल भटकते रहे हैं। 2003 में समाजवादी पार्टी में थे तो विधायक बने, बाद में उन्हें सपा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया, 2009 में वे सुरेश पचौरी के कारण कांग्रेस में आ गए, लेकिन पचौरी गुट के कमजोर पड़ते ही उनकी पूछ-परख कम हो गई। अब देखना है कि भाजपा में कैसे गुटीय संतुलन बनाते हैं।
अब तक इन्होंने बदला दल
11.07.2013 को चौधरी राकेश सिंह
चतुर्वेदी (पूर्व उपनेता)
21.10.2013 को वीरेंद्र सिंह राणा
(कांग्रेस नेता)
30.10.2013 को हरि नारायण डेहरिया
(पूर्व विधायक)
14.11.2013 को राव उदयप्रताप सिंह
(कांग्रेसी सांसद रहे)
31.03.2014 को संजय पाठक
(विधायक रहे)
03.04.2014 को दिनेश अहिरवार
(विधायक रहे)
08.04.2014 को नारायण त्रिपाठी
(विधायक रहे)