16-Apr-2014 08:45 AM
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मराठा सरदार शरद पवार का विश्वास अपने सहयोगी कांग्रेस में डगमगा रहा है। पवार इससे पहले भी कांग्रेस के रवैये से अपनी नाराजगी जता चुके हैं। लेकिन इस बार उनकी नाराजगी का स्तर कुछ बढ़ा हुआ है। कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए का

प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहेगा यह पवार अच्छी तरह जानते हैं। इसी कारण वे कांग्रेस के साथ-साथ एनडीए से भी मधुर रिश्ते बनाये रखना चाहते हैं ताकि वक्त पडऩे पर इन रिश्तों को भुनाया जा सके। दूसरा गणित यह भी है कि यदि केंद्र में गैर भाजपा, गैर कांग्रेस सरकार बनी तो पवार कहीं न कहीं अपनी महत्वाकांक्षा को परवान चढ़वाने के लिये भाजपा का साथ ले सकते हैं। यदि ऐसा नहीं हुआ तो भाजपा के साथ मिलकर आगामी विधानसभा चुनावों में महाराष्ट्र की सत्ता पर कब्जा तो किया ही जा सकता है। इसी कारण सुप्रिया सुले और शरद पवार एनडीए के प्रति राजनीतिक रूप से नरमी दिखा रहे हैं। हालांकि वे बात-बात में एनडीए की आलोचना भी करते हैं।
यह आलोचना उतनी तीखी नहीं होती। हाल ही में मंत्री विजय गावित एनसीपी छोड़कर भाजपा में चले गये तो एनसीपी ने कोई विशेष आलोचना नहीं की। गावित की बेटी को भाजपा ने टिकिट दिया था। उधर राहुल नार्वेकर ने जब शिवसेना छोड़कर एनसीपी का दामन थामा तो भाजपा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। ओले को लेकर जब महाराष्ट्र की राजनीति गरमा रही थी उस वक्त भी शिवसेना ने महाराष्ट्र में हंगामा किया किंतु भाजपा बहुधा शांत ही रही। एनसीपी नेता शरद पवार ने तो बीड में अपनी रैली ही रद्द कर दी जहां से गोपीनाथ मुंडे चुनाव लड़ रहे हैं। पवार ने अपने आपको बारामती तक ही सीमित कर लिया है और बारामती में पवार को चुनौती दे रहे भाजपा-शिवसेना गठबंधन के किसी भी प्रत्याशी में दम नहीं है।
दरअसल शिवसेना पवार का प्रधानमंत्री के रूप में समर्थन कर सकती है, ऐसी घोषणा कभी बालासाहब ठाकरे ने की थी। इसलिये शिवसेना से पवार की निकटता जगजाहिर है और भाजपा-शिवसेना की दोस्ती से पवार को अधिक लाभ मिलेगा यह भी पवार जानते हैं। जहां तक मुंबई का सवाल है कभी नहीं सोने वाले इस महानगर की संसदीय राजनीति में कांग्रेस के सुनील दत्त, गुरूदास कामत और मुरली देवड़ा, भारतीय जनता पार्टी के रामनाइक एवं शिवसेना के मोहन विष्णु रावले या उनके परिवार के सदस्य हावी रहे हैं। मशहूर फिल्म अभिनेता सुनील दत्त के निधन के बाद कांग्रेस ने उनकी पुत्री प्रिया दत्त को तथा मुरली देवड़ा के पुत्र मिलिंद देवड़ा को चुनाव मैदान में उतारकर परिवारवाद की राजनीति को बनाए रखा। मिलिंद देवड़ा अपने पिता की सीट से ही चुनाव लड़ते हैं जबकि प्रिया दत्त को उनके पिता की सीट से नहीं बल्कि दूसरी सीट से चुनाव मैदान में उतारा गया। देशभक्ति और समाज सेवा के लिए जाने जाने वाले प्रख्यात कलाकार सुनील दत्त को कांग्रेस ने 1984 के आम चुनाव में मुंबई उत्तर पश्चिम लोकसभा क्षेत्र में उतारा और इसके बाद उनके विजय अभियान की शुरुआत हो गई। कांग्रेस की इस लहर में सुनील दत्त ने भाजपा के नेता और मशहूर अधिवक्ता राम जेठमलानी को चारों खाने चित्त कर दिया। सुनील दत्त इसके बाद 1989 और 1991 के लोकसभा चुनाव भी जीते। सुनील दत्त ने फिर 1999 के आम चुनाव में इस सीट पर कब्जा किया और इसके बाद 2004 के चुनाव में भी जीते। कांग्रेस के इस नेता का हमेशा भाजपा या शिवसेना के उम्मीदवार से मुकाबला होता रहा। सुनील दत्त के निधन के बाद कांग्रेस ने उनकी पुत्री प्रिया दत्त को 2009 के लोकसभा चुनाव में मुंबई उत्तर मध्य सीट से उम्मीदवार बनाया और वह भारी मतों से चुनाव जीत गईं। समुद्र के किनारे बसे इस शहर की दक्षिण मुंबई सीट का कांग्रेस के मुरली देवड़ा ने चार बार प्रतिनिधित्व किया है जबकि उनके पुत्र मिलिंद देवड़ा 2004 और 2009 के लोकसभा चुनाव में जीते हैं। मुरली देवड़ा ने 1984, 1989 और 1991 के आम चुनावों में लगातार जीत दर्ज की। इसके बाद वह 1998 के चुनाव में भी कांग्रेस के टिकट पर इसी क्षेत्र से निर्वाचित हुए। 1996 और 1999 के लोकसभा चुनाव में वह दूसरे स्थान पर रहे। इन दोनों चुनावों में इस सीट से भाजपा की जयवंती बेन मेहता विजयी हुईं। कांग्रेस ने 2004 के चुनाव में अपने इस दिग्गज नेता के पुत्र मिलिंद देवड़ा को इसी क्षेत्र से चुनावी अखाड़े में उतारा और उन्होंने भाजपा की जयवंती बेन मेहता को धराशायी कर दिया। मिलिंद 2009 के लोकसभा चुनाव में भी इस क्षेत्र से दूसरी बार जीते। इस चुनाव में उन्होंने महाराष्ट्र नवनिर्माण
सेना के प्रत्याशी को भारी मतों के अंतर से पराजित किया।
जहां तक रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया का सवाल है इस बार के चुनाव में आरपीआई की इतनी अच्छी स्थिति नहीं है। आरपीआई का गठन दिसंबर 1956 में डॉ. अंबेडकर के निधन के दस माह बाद उनके तीन अनुयायियों ने 3 अक्टूबर 1957 को किया था तब भाजपा का कोई अस्तित्व नहीं था लेकिन इसके बाद भी लगभग छ: दशक पुरानी यह पार्टी महाराष्ट्र में कुछेक इलाकों तक सिमट कर रह गई है। खासियत यह है कि आरपीआई अभी भी दलितों की पसंदीदा पार्टी बनी हुई है। बहुजन समाज पार्टी का यहां उतना मजबूत जनाधार नहीं है। लेकिन आरपीआई की गुटबाजी के कारण दलित वोट कांग्रेस की ओर चले जाते हैं। भाजपा ने भी पिछले दिनों दलितों के बीच अच्छी पकड़ बनाई है। महाराष्ट्र की 40 सीटों में से लगभग आधी पर दलितों का अच्छा खासा प्रभाव है। पहले आम आदमी पार्टी ने भी दलितों को लुभाने की कोशिश की, लेकिन उसका प्रभाव शहरी क्षेत्रों तक होने के कारण दलितों पर इतना असर नहीं पड़ा। अब देखना है कि भाजपा और शिवसेना गठबंधन महाराष्ट्र में पिछड़ों और दलितों के बीच कितना लोकप्रिय होता है। जहां तक नरेंद्र मोदी का प्रश्न है उनका असर मुंबई, पुणे, नागपुर, अकोला जैसे शहरों में अधिक है।