02-Apr-2014 09:46 AM
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महाराष्ट्र के किसानों की हिम्मत टूट चुकी है और सरकार का धैर्य भी चुक गया है। 14 दिन के भीतर 22 किसानों की आत्महत्या ने सत्तासीन दल को झकझोर दिया है। आगामी लोकसभा चुनाव के समय किसानों का यह आक्रोश कांग्रेस को

भारी नुकसान पहुंचा सकता है, लेकिन इससे भी बढ़कर यह त्रासदी अब मानवीय आपदा में बदलती जा रही है। विदर्भ जनआंदोलन समिति नामक एक किसान संगठन का दावा है कि सरकारी उपाय असफल होने के कारण अन्नदाता की हिम्मत टूट चुकी है। ज्यादातर आत्महत्याएं विदर्भ और मराठवाड़ा क्षेत्र में हुई हैं। यहां तीन दिन के भीतर 9 किसानों ने मौत को गले लगा लिया। किसानों की इस दुर्दशा का श्रेय असमय ओलावृष्टि को दिया जा रहा है। जिसने खड़ी फसलों को तबाह कर दिया। स्थानीय लोग बताते हैं कि ओले एक या दो बार नहीं गिरे बल्कि लगातार कई दिनों तक गिरते रहे। जिसके कारण फसलों को जलाने के अलावा कोईचारा नहीं रहा।
कई जगह तो हालत यह है कि खेत सुधारने के लिए किसानों के पास पैसे नहीं हैं। उनकी लागत ही नहीं निकल पाई है, फसल को काटना या उसमें से कुछ पाने की उम्मीद करना बेमानी है। एक ही इलाज है कि खेत में आग लगा दी जाए और खेत के किनारे आंखों में आंसू लेकर विलाप किया जाए। ऐसे मौके पर सरकारें मरहम लगाने का काम करती हैं, लेकिन महाराष्ट्र में किसानों को अभी तक कोई राहत नहीं मिली है। क्योंकि सरकार की नजर में आंकड़े महत्वपूर्ण हंै और किसानों के नुकसान के आंकड़े महाराष्ट्र सरकार के पास फिलहाल उपलब्ध नहीं हैं। लगातार आत्महत्याओं से चिंतित महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चाव्हाण ने 4 हजार करोड़ रुपए की राहत राशि की घोषणा की है और 5 हजार करोड़ रुपए केन्द्र से मांगे हैं ताकि किसानों को तत्काल सहायता मिल सके, लेकिन किसान हताश हैं। उसे उम्मीद नहीं है कि यह सरकारी सहायता तत्काल उसके पास पहुंचेगी। प्रक्रिया बहुत लंबी और पेंचीदा है। पहले सरकार की तरफ से एक रिपोर्ट तैयार की जाएगी उसके बाद केंद्र की टीम आकर निरीक्षण करेगी फिर पैसा सरकार के खजाने में पहुंचेगा और सरकार वहां से कलेक्टरों के द्वारा पैसा बंटवाएगी। इस बंदरबांट में पटवारियों तथा तहसीलदारों की जेब गरम किए बगैर हमारे अन्नदाताओं को सहायता कैसे मिल पाएगी। यह यक्ष प्रश्न है। ओला पीडि़त प्राय: हर राज्य की यही त्रासदी है। मध्यप्रदेश में तो सोयाबीन का मुआवजा भी लोगों तक नहीं पहुंचा। बहरहाल महाराष्ट्र में किसानों की नाउम्मीदी बढ़ रही हैं। उनके बीच निराशा है और हजारों गांवों के किसानों ने धमकी दी है कि वे चुनाव का बहिष्कार करेंगे। यदि सरकारी सहायता मिल भी जाती है तो वह पैसा इतना कम होगा कि किसानों का कर्जा ही नहीं चुक पाएगा। नुकसान की भरपाई तो दूर की बात है।
महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में पिछले दो वर्ष से हर 8 घंटे में कोई न कोई किसान मौत को गले लगा रहा है। इसके बाद भी सरकार ने कोई उपाय नहीं किए। स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि इस क्षेत्र को आत्महत्या वाला क्षेत्र कहा जाने लगा है। शर्मनाक तथ्य तो यह है कि किसानों की आत्महत्या चुनावी मुद्दा बन चुका है। शिवसेना ने कांग्रेस और एनसीपी को इन मौतों का जिम्मेदार ठहराया है। शिवसेना का कहना है कि केंद्र में भी सरकार की सरकार है और राज्य में एनसीपी कांग्रेस गठबंधन सत्तासीन है। फिर किस बात का विलंब है। किसानों तक सहायता क्यों नहीं पहुंच पा रही है। शिवसेना के संजय रावत कहते हैं कि किसानों का कोई माईबाप नहीं है। जब लोग मर रहे हों तब कानून की बात करना कितना जायज है। उधर सत्तासीन दल चुनावी आचार संहिता की आड़ ले रहे हैं। सरकार का कहना है कि आचार संहिता के कारण उसके हाथ बंधे हुए हैं, लेकिन किसान इस बात से सहमत नहीं हैं। उनका आरोप है कि शरद पवार कृषि मंत्री हैं और राज्य से ताल्लुक रखते हैं। फिर भी उनके गृह राज्य में किसानों की समस्याएं वैसी ही हैं।
विदर्भ में लगातार सूखा पड़ रहा है। शरद पवार कहते हैं कि समस्या का समाधान एक दिन में नहीं किया जा सकता, लेकिन पिछले 10 साल से राज्य और केंद्र में कांग्रेस की ही सरकार है ऐसे में किसानों के हित में कोई कदम क्यों नहीं उठाया गया। आज भी विदर्भ में पानी की समस्या विकराल होती जा रही है। राजनीतिक पार्टियां लोगों का वोट लेकर पांच साल के लिए रुखसत हो जाती हैं, लेकिन किसानों की समस्याओं का समाधान किसी के पास नहीं है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चाव्हाण का कहना है कि उन्होंने प्रधानमंत्री से और चुनाव आयोग से
बात करके किसानों को राहत देने का मार्ग तलाशने की कोशिश की है। शीघ्र ही कोई हल निकल आएगा।