16-Apr-2014 07:58 AM
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प्रफुल्ल नामक एक मूर्तिकार बेहद सुंदर मूर्तियां बनाया करता था। उसने अपने बेटे अहम को भी मूर्तिकला का ज्ञान देना शुरू किया। कुछ वर्षों में बेटा भी मूर्तियां बनाने में निपुण हो गया। अब पिता-पुत्र दोनों बाजार जाते और मूर्तियां बेचकर

आ जाते। कुछ समय बाद प्रफुल्ल ने अहम की मूर्तियों को अलग से बेचना शुरू कर दिया। अहम की मूर्तियां प्रफुल्ल की मूर्तियों से ज्यादा दामों पर बिकने लगीं। एक रात अहम जब मूर्ति बना रहा था तो प्रफुल्ल उसकी मूर्ति को देखते हुए उसमें कमी बताने लगा। इससे अहम खीझ गया। वह चिढ़कर बोला, पिता जी, आपको तो मेरी मूर्ति में दोष ही नजर आता है। यदि मेरी मूर्ति में कमी होती तो आज मेरी मूर्तियां आपसे ज्यादा कीमत में नहीं बिकती। बेटे की बातें सुनकर पिता दंग रह गया। वह चुपचाप अपने बिस्तर पर आकर लेट गया। कुछ देर बाद अहम को लगा कि उसे पिता से इस तरह बात नहीं करनी चाहिए थी। वह पिता के पैरों के पास आकर बैठ गया। अहम के आने की आहट से प्रफुल्ल उठकर बैठा और बोला, बेटा, जब मैं तुम्हारी उम्र का था तो मुझे भी अभिमान हो गया था। उस समय मेरी एक मूर्ति 500 रुपए में बिकी थी और मेरे पिता की 5 रुपए में। तब से लेकर आज तक मैं 500 से आगे नहीं बढ़ पाया। मैं नहीं चाहता कि अभिमान करने से जो नुक्सान मुझे हुआ, वह तुम्हें भी हो। इन्सान तो हर पल सीखता रहता है। अहम ने शर्म से सिर झुकाकर पिता से कहा, आगे से आप मेरी हर कमी बताइएगा, मैं उसे सुधारने की कोशिश करूंगा।
मैं, तुम और वह ब्रह्म ही हैं
सच एक अनुभूति है जिसे अपना कर मन प्रसन्न होता है और झूठ सच की प्रतिछाया है जिसका आभास क्षणिक सुख प्रदान करता है, जबकि सच की अनुभूति स्थायी सुख प्रदान करती है। सच को पाना एक खोज है और जो खोजता है वही पाता है। झूठ को सच बनाने के लिए अनेकों बार झूठ बोलना पड़ता है इसीलिए झूठ बेनकाब हो जाता है क्योंकि झूठ अस्थायी होता है। स्वामी निजात्मानंद जी महाराज सच और झूठ के भेद का ज्ञानोपदेश देने के साथ-साथ अद्वैत का व्याख्यान करते हुए कहते थे कि आभूषण में सोना है और सोना वास्तविक रूप में भी है यानी सोना और आभूषण एक ही हैं। सोना न हो तो आभूषण भी नहीं हो सकता। इसी प्रकार जीव में चेतन है, चेतन न हो तो जीव नहीं हो सकता। यानी चेतन के बिना जीव कुछ भी नहीं है और चेतन ब्रह्म ही है। हम सबमें ब्रह्म हैं। उसमें, तुम में और मुझमें यानी मैं, तुम और वह ब्रह्म ही हैं। तो फिर अंतर कैसा द्वैत-भेद कैसा। द्वैत यानी दो। इसी द्वैत के भेद को मिटाकर अद्वैत को अपनाना होगा। अद्वैत जिसमें द्वैत का भेद नहीं रहता, प्रभु प्राप्ति होती है और जिसके अनुसरण से सुख मिलता है।
आप जिंदगी के कितने अच्छे खिलाड़ी हैं
किसी खेल के दौरान हमेशा खिलाड़ी के सामने दिलचस्प विकल्प उपलब्ध रहते हैं जिनसे खेल भी मजेदार बना रहता है। अगर विकल्प उबाऊ, अस्पष्ट, अर्थहीन और आधे-अधूरे होते हैं तो खेल भी नीरस हो जाता है। खेल का उद्देश्य होता है, अनुभव का पूरा आनंद उठाना, खुशी महसूस करना। खेल खेलने की दूसरी वजह होती है खुद का विकास करना, क्योंकि खेल एक बेहतरीन शिक्षक साबित हो सकता है। अगर जिंदगी एक खेल है तो आप कितने अच्छे खिलाड़ी हैं? क्या आप, खेलने से मिलने वाले आनंद का अनुभव लेने के लिए, उसे खुल कर खेल पाते हैं? क्या आप अपने प्रदर्शन पर ध्यान देते हैं और अपनी योग्यता को निखारने के लिए समय लगाते हैं? क्या आप संपूर्ण खेल को खुले दिल से स्वीकार करते हैं या फिर उसके कुछ हिस्सों को पसंद नहीं करते? क्या यह एक नासमझी नहीं है कि हम में से बहुत से व्यक्ति जीवन के खेल के छोटे-छोटे हिस्सों में इतने अधिक उलझ जाते हैं कि हमारा ध्यान जीवन के विशालकाय खेल पर जा ही नहीं पाता? ऐसा अनोखा खेल, जिसके बारे में कल्पना करना भी मुश्किल हो, हमारे सामने होने पर भी, हम में से अधिकतर लोग खेलने से इन्कार कर देते हैं। हम किनारे पर बैठ कर, दुनिया की जटिलताओं की चिंता करने लगते हैं, बजाय इसके की हम उन्हें गले से लगा लें। हमारी दिलचस्पी केवल खेल के छोटे हिस्सों में ही बनी रहती है। बहुत थोड़े से लोग ही सचेत रहकर पूरे खेल को साधने की कोशिश करते हैं और वही सफल होते हैं।