सृष्टि के कण-कण में ईश्वर का अंश
02-Apr-2014 09:04 AM 1234852

ब्रह्मज्ञान एक ऐसा दिव्यज्ञान है, जो संसार के प्रत्येक विषय में समाहित सभी विकल्पों को स्वतंत्र रूप से एक साथ देखने-समझने की बुद्धि प्रदान करने के साथ-साथ विकल्पों के परमभाग तक पहुँचने की योग्यता प्रदान करता है। ब्रह्मज्ञान से रहित रहकर कोई एक ही मनुष्य प्रकृति जनित गुणों के कारण ही एक विषय के सभी विकल्पों को स्वतंत्र रूप से देख पाने में असमर्थ होता है, तब एक ही मनुष्य द्वारा सभी विषयों को जानना असंभव है। मनुष्यों की यही बाध्यता वर्तमान में फैली अनेकों विषमताओं का मूल है।
संसार में साधारण से साधारण बुद्धि का कोई भी किसी भी एक धर्म का प्रवर्तन कर सकता है, किसी भी एक धर्म को संरक्षित कर सकता है, किसी भी एक धर्म का अनुसरण कर सकता है, किसी भी एक धर्म का प्रचार-प्रसार कर सकता है परंतु अध्यात्म पर थोड़ा सा भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता। अध्यात्मज्ञान में प्रवतं होने वाले मनुष्य के लिए अनेकों धर्मों का एक साथ पालन करना, बुद्धिमान, विवेकावान और समदृष्टि होना अति आवश्यक है। तत्पश्चात ही अध्यात्म ज्ञान से ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। केवल एक ही धर्म पर या किसी धर्म विशेष पर पांडित्य प्राप्त मनुष्य को या धर्मगुरु को आध्यात्मिक गुरु के रूप में देखना अज्ञानता है। परिणामस्वरूप कई सरकारों द्वारा सरकारी स्तर तक से धर्म निरपेक्षता की आड़ में अध्यात्म के नाम पर किसी भी एक धर्म विशेष को संरक्षित, पोषित और प्रवर्त्त करने में सहयोग किया जाता सा देखा जाता है और वहीं इसके विपरीत किसी अन्य धर्म को केवल धर्म के नाम पर उपेक्षित किया जाता सा देखा जाता है। सरकारी रूप में भी धर्म और अध्यात्म के नाम पर यह अज्ञानता मनुष्यों को भ्रमित करती है और मनुष्यों की यही बाध्यता अनेकों संशयों को जन्म देती है।
अध्यात्म पर संसार में न तो कोई संशय पैदा हो सकता है और न ही कोई विसंगति है। अध्यात्म में न तो कोई जाति होती है और न ही कोई समुदाय जैसे हिंदू, जैन, मुसलमान, सिख, ईसाई। अध्यात्म का संबंध केवल प्राणियों, मनुष्यों से होता है। इस लोक में प्रचलित धर्म मनगढ़त, अंधविश्वास, व्यर्थ की कल्पनाओं, मान्यताओं और कथा कहानियों में भी परिपूर्ण है और विज्ञान केवल यथार्थ पर ही आधारित है, इसीलिए धर्म और विज्ञान आपस में परस्पर विरोधी हो सकते हैं, परंतु अध्यात्मज्ञान, धर्म और विज्ञान दोनों से रहित संभव नहीं। मनुष्य प्राकृतिक रूप से ही श्रद्धावान है। परिणामस्वरूप वह किसी भी मनुष्य को किसी भी प्राणी को, किसी भी स्थान को, किसी भी वनस्पति को ईश्वर मान लेता है। इसके साथ-साथ देवताओं, भूतों और भगवान या भगवान के समकक्षों को भी ईश्वर मान लेता है।मनुष्यों की यह स्वतंत्रता है कि वह किसी को भी कुछ भी मान लें, परंतु इसका मतलब यह कदापि नहीं लगाया जाना चाहिए कि वह ईश्वर के यथार्थ स्वरूप को जान पाया हो। इस सृष्टि के कण-कण में ईश्वर का अंश है, फिर वह चाहे चर हो अचर हो, चाहे विष हो या अमृत हो। इसका आशय यह बिलकुल भी नहीं कि हम सृष्टि में किसी को भी ईश्वर मान लें और ईश्वर पूर्ण हो जाए। वर्तमान काल में सभी मनुष्य ब्रह्मज्ञान से अनभिज्ञ है, इस बात की प्रमाणिकता को जांचने के लिए संसार के श्रेष्ठ मनुष्यों, ज्ञानियों, गुरुओं, महापुरुषों, नेताओं, वैज्ञानिकों, साहित्यकारों, स्त्रियों, पुरुषों, बुजुर्गों और युवाओं को उपरोक्त परिभाषा चुनौतीपूर्ण लगेगी या काला अक्षर भैंस बराबर भी लग सकता है। ऊपर दी गई ब्रह्मज्ञान की परिभाषा को न तो कोई भी व्यक्ति पूर्णरूप से समझने और न ही किसी को समझाने में समर्थ होगा। ब्रह्मज्ञान से मनुष्य विषयाधारित विषमताओं का नाश करने में समर्थ हो जाएगा। संसार में ब्रह्मज्ञान के लिए केवल भारत में दो शास्त्र ही उपलब्ध हैं गीता और वेद। वेद और गीता शास्त्रों को किसी भी धर्म से जोडऩा या किसी एक धर्म से जोडऩा या इन शास्त्रों को किसी धर्म विशेष तक देखना-समझना या इन शास्त्रों में मनुष्यों के सभी धर्मों को स्वतंत्र रूप से न देख पाना अज्ञानता है और इसी अज्ञानता के परिणास्वरूप मनुष्य जीवन पर्यन्त भी इसका अध्ययन करके ब्रह्मज्ञान को नहीं पा सकता।
गीता और वेद शास्त्रों की अभिव्यक्ति की भाषा संस्कृत, हिंदी या अन्य कोई भी लिखने-पढऩे- समझने की भाषा हो सकती है क्योंकि अभिव्यक्ति की कोई न कोई भाषा होना तो आवश्यक है, परंतु वास्तव में वेद और गीता जिस गुप्त भाषा मे लिखे गए हैं वह ब्रह्मभाषा है। ब्रह्मज्ञान से रहित ब्रह्म को समझना संभव नहीं। ब्रह्मज्ञान की परिभाषा को समझकर ब्रह्म के रहस्य को जाना जा सकता है। ब्रह्मज्ञान रहित होने पर वेद और गीता शास्त्र केवल एक धार्मिक, विवादास्पद, पौराणिक शास्त्र एवं सहेजने की विषय वस्तु ही बने रहेंगे। मनुष्य अज्ञानतावश ही लोक में धर्म के नाम पर विसंगतियों और विषमताओं को पैदा करता है। ब्रह्मज्ञान बिना इस लोक को विवाद रहित, स्वर्ग जैसा कभी नहीं बनाया जा सकता। अध्यात्म ही सभी धर्मों का मूल है और ब्रह्मज्ञान बिना अध्यात्म संभव नहीं।

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