20-Jun-2014 04:12 AM
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यदि कोई निष्ठावान व्यक्ति अपने मन के द्वारा कर्मेन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है और बिना किसी आसक्ति के कर्मयोग (कृष्णभावनामृत में) प्रारंभ करता है, तो वह अति उत्कृष्ट है।
लम्पट जीवन और इन्द्रिय सुख के लिये छद्म योगी का मिथ्या वेष धारण करने की अपेक्षा अपने कर्म में लगे रहकर जीवन-लक्ष्य को, जो भवबंधन से मुक्त होकर भगवद्धाम को जाना है, प्राप्त करने के लिये कर्म करते रहना अधिक श्रेयस्कर है। प्रमुख स्वार्थ-गति को विष्णु के पास जाना है। संपूर्ण वर्णाश्रम-धर्म का उद्देश्य इसी जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति है। एक गृहस्थ भी कृष्णभावनामृत में नियमित सेवा करके इस लक्ष्य तक पहुंच सकता है। आत्म-साक्षात्कार के लिये मनुष्य शास्त्रानुमोदि
त संयमित जीवन बिता सकता है और अनासक्त भाव से अपना कार्य करता रह सकता है। इस प्रकार वह प्रगति कर सकता है। जो निष्ठावान व्यक्ति इस विधि का पालन करता है वह उस पाखंडी (धूर्त) से कहीं श्रेष्ठ है जो अबोध जनता को ठगने के लिये दिखावटी आध्यात्मिकता का जामा धारण करता है। जीविका के लिये ध्यान धरने वाले प्रवंचक ध्यानी की अपेक्षा सड़क पर झाड़ू लगाने वाला निष्ठावान व्यक्ति कहीं अच्छा है।
छद्म ध्यानियों से बचें
अपना नियत कर्म करो, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म के बिना तो शरीर-निर्वाह भी नहीं हो सकता।
ऐसे अनेक छद्म ध्यानी हैं जो अपने आपको उच्च कुलीन बताते हैं तथा ऐसे बड़े-बड़े व्यवसायी व्यक्ति हैं जो झूठा दिखावा करते हैं कि आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करने के लिये उन्होंने सर्वस्व त्याग दिया है। श्रीकृष्ण यह नहीं चाहते थे कि अर्जुन मिथ्याचारी बने, अपितु वे चाहते थे कि अर्जुन क्षत्रियों के लिये निर्दिष्ट धर्म का पालन करें। अर्जुन गृहस्थ था और एक सेनानायक था, अत: उसके लिये श्रेयस्कर था कि वह उसी रूप में गृहस्थ क्षत्रिय के लिये निर्दिष्ट धार्मिक कर्तव्यों का पालन करे। ऐसे कार्यों से संसारी मनुष्य का हृदय क्रमश: विमल हो जाता है और वह भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है। देह-निर्वाह के लिये किये गये तथाकथित त्याग (संन्यास) का अनुमोदन न तो भगवान् करते हैं और न कोई धर्मशास्त्र ही। आखिर देह-निर्वाह के लिये कुछ न कुछ करना होता है। भौतिकवादी वासनाओं की शुद्धि के बिना कर्म का मनमाने ढंग से त्याग करना ठीक नहीं। इस जगत् का प्रत्येक व्यक्ति निश्चय ही प्रकृति पर प्रभुत्व जताने के लिये अर्थात् इन्द्रिय तृप्ति के लिये मलिन प्रवृत्ति से ग्रस्त रहता है। ऐसी दूषित प्रवृत्तियों को शुद्ध करने की आवश्यकता है। नियत कर्मों द्वारा ऐसा किये बिना मनुष्य को चाहिये कि तथाकथित अध्यात्मवादी (योगी) बनने तथा सारा काम छोड़ कर अन्यों पर जीवित रहने का प्रयास न करें।