02-Apr-2014 09:48 AM
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भारतीय जनता पार्टी के लिए दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर लगातार चुनौती बनते जा रहे हैं। यह सच है कि कुछ इलाकों में मोदी की लहर है। लेकिन दक्षिण भारत में और पूर्वोत्तर में भाजपा का संगठन इतना मजबूत नहीं है कि जो लोग

भाजपा और नरेंद्र मोदी को पसंद कर रहे हैं वे मतदान केंद्र तक लाए जा सकें। दूसरी बात स्थानीय जनसंख्या के बीच भाजपा की पहचान स्थापित करना भी एक चुनौती है। दूरदराज के ग्रामीण क्षेत्रों में या तो स्थानीय दलों की पहचान बनी हुई है या फिर कांग्रेस के पंजे को लोग जानते हैं। कमल के फूल की अहमियत कुछ शहरी और पढ़े लिखे लोगों के बीच अवश्य है, लेकिन इनमें ज्यादातर तर्क-वितर्क करने में और विश्लेषण करने में विश्वास रखते हैं।
मोदी लहर के रुझान को दक्षिण भारत या पूर्वोत्तर में महसूस करना अनायास संभव नहीं हो पाता। यह सच है कि स्थानीय पार्टियों और कांग्रेस के अलावा मोदी ही एकमात्र ऐसे नेता हैं जो पूर्वाेत्तर और दक्षिण में भारी तादाद में भीड़ जुटाने में कामयाब रहे हैं, लेकिन भाजपा के लिए इस भीड़ का अर्थ तभी है जब इतनी बड़ी तादाद में लोग मतदान केंद्रों तक पहुंचे और भाजपा के पक्ष में वोट करें। प्रारंभिक तौर पर तो यही कहा जा सकता है कि लोगों में अभी मोदी के प्रति जिज्ञासा है, लेकिन यह जिज्ञासा वोट देने का कारण बनेगी ऐसा कहना असंभव है। इतना अवश्य है कि मोदी अपने दम पर इस क्षेत्र में पहचान बनाने में कामयाब रहे। दूसरे शब्दों में लालकृष्ण आडवाणी से कहीं अधिक तादाद में लोगों ने उन्हें पसंद किया। इस दृष्टि से वे अटल बिहारी वाजपेयी के करीब खड़े दिखाई देते हैं। लेकिन वाजपेयी दक्षिण और पूर्वोत्तर में सुपरिचित होने के बावजूद कोई ज्यादा कमाल नहीं दिखा पाए थे, उन्हें यहां से कोई विशेष मदद नहीं मिली। केवल कर्नाटक एकमात्र ऐसा राज्य है जहां भाजपा की पकड़ सबसे मजबूत है, लेकिन वहां भी भाजपा का आधार जातीय राजनीति के कारण बढ़ा है। हाल ही में येदियुरप्पा को जब पार्टी से विदाई दी गई तो भाजपा धराशायी हो गई। हालांकि अब वे वापस लौट आए हैं पर उस नुकसान की भरपाई नहीं
हो सकती।
दरअसल देखा जाए तो कर्नाटक के परिणामों ने इस बात की पुष्टि की थी कि दक्षिण में मोदी की लहर नहीं है। अब थोड़े हालात अलग हैं। कर्नाटक के अलावा आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु दो ऐसे राज्य हैं जहां नरेंद्र मोदी की पार्टी की तरफ लोगों का झुकाव बढ़ रहा है। लेकिन तमिलनाडु में पांच पार्टियों के साथ गठबंधन के बावजूद भाजपा उतनी ताकतवर स्थिति में नहीं आ पाई है। इस राज्य में करुणानिधि और जयललिता ज्यादा प्रभावी हैं। यह सच है कि कभी कन्याकुमारी चुनावी क्षेत्र से भाजपा विजयी रही थी, लेकिन उस विजय का असर ज्यादा कायम नहीं रह सका। तमिलनाडु की राजनीति अन्य दक्षिण भारतीय राज्यों की तरह थोड़ी पेंचीदा है। यहां स्थानीय दलों को तवज्जो दी जाती है। तमिल अस्मिता का सवाल हमेशा प्रमुख मुद्दा बन जाता है। कई मसले हैं जिन्हें हाथ लगाने से राजनीतिक दल डरते हैं। रामसेतु जैसे मुद्दे भाजपा के लिए परेशानी का कारण हो सकते हैं। रामसेतु को ध्वस्त करने के लिए तमिलनाडु में बार-बार मांग उठती रही है। जबकि भाजपा उसकी विरोधी है। इसके बाद भी कन्याकुमारी में भाजपा के 2 लाख 80 हजार समर्थक होना आश्चर्य का विषय हो सकता है। केरल में भाजपा की पहचान तो है और एक समय में उसे 10 प्रतिशत तक वोट मिलते रहे हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी का यहां कोई असर नहीं है।
तेलंगाना में कांग्रेस ने सहानुभूति दर्ज की है, कहीं न कहीं लोगों का यह भी मानना है कि भाजपा समर्थन नहीं करती तो तेलंगाना पृथक नहीं हो पाता। मोदी ने फोन करके तेलंगाना के लिए भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को राजी किया था इस तथ्य से यहां के लोग अवगत हैं और वे भाजपा के प्रति भी झुकाव रखते हैं। यदि भाजपा टीआरएस से गठबंधन बनाने में कामयाब रही तो तेलंगाना में मोदी के लिए राहत भरी खुशखबरी इंतजार कर रही होगी। हालांकि मौजूदा सियासी हालात में यह संभव नहीं है पर चुनाव बाद टीआरएस भाजपा की झोली में भी आ सकती है खासकर टीआरएस के प्रमुख को मुख्यमंत्री बनने का आश्वासन मिले तो वे भाजपा से हाथ मिला सकते हैं।
दक्षिण के केंद्र शासित प्रदेशों में भाजपा की स्थिति सुधरी है, लेकिन पूरे क्षेत्र में कांग्रेस के लिए बड़ा प्रश्न चिन्ह है। तमिलनाडु में चिदम्बरम चुनाव नहीं लड़ रहे हैं। इसका असर भी पूरे दक्षिण भारत में कांग्रेस के प्रदर्शन पर पड़ेगा। यह तय है कि दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर सबसे बड़ी संख्या में छोटे दलों को लोकसभा में भेजेंगे। जिनकी भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो जाएगी खासकर पूर्वोत्तर की 25 लोकसभा सीटें आगामी चुनाव के बाद हर दल के लिए बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध होने वाली है। यदि बंगाल को इससे जोड़ा जाए तो देश के भाग्य का फैसला पूर्वोत्तर और दक्षिण के हाथों में होगा। ऐसा कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है। कभी पूर्वोत्तर की लोकसभा सीटों पर किस दल का कैसा प्रदर्शन है, यह किसी के लिए ख़ास मायने नहीं रखता था। मगर तब भारतीय राजनीति इतनी प्रतिस्पर्धात्मक नहीं थी। न ही पहले राष्ट्रीय स्तर की बड़ी-बड़ी पार्टियों के लिए चुनाव में जीत हासिल करने के लिए क्षेत्रीय स्तर पर गठबंधन की राजनीति की कोई महत्वपूर्ण भूमिका थी।
पूर्वोत्तर के आठ राज्यों में से लोकसभा की सबसे ज़्यादा 14 सीटें, असम में हैं। साल 2009 में कांग्रेस ने असम में लोकसभा की 7 सीटें जीती थीं जबकि भाजपा ने चार सीटें जीतीं। यहां साल 2001 से कांग्रेस लगातार जीतती रही। असम गण परिषद् (एजीपी), असम यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एयूडीएफ) और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट जैसे छोटे क्षेत्रीय दलों ने अपने-अपने गढ़ में एक-एक सीट जीती थी। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह का कहना है कि उन्हें इस बार पूर्वोत्तर से अप्रत्याशित चुनाव परिणाम की उम्मीद है। हालांकि भाजपा एजीपी के साथ गठबंधन को बहाल करने में नाकाम रही है, फिर भी चुनाव जीतने के पीछे दिख रहे उनके आत्मविश्वास के दो कारण हो सकते हैं। कांग्रेस सरकार की विफलता के कारण यहां मज़बूत कांग्रेस विरोधी लहर चल रही है। सत्तारूढ़ कांग्रेस के खिलाफ असंतोष बढ़ रहा है। वैसे कांग्रेस अपनी सत्ता के खिलाफ असंतोष के बावजूद असम विधानसभा चुनाव में तीन बार जीती। लेकिन नेतृत्व में मतभेदों और भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण वह लगातार घिरती रही है।
कांग्रेस नेतृत्व मतभेदों और भ्रष्टाचार के आरोपों से नहीं बल्कि किसी दूसरी वजह से परेशान है। वह वजह है मौलाना बदरुद्दीन अजमल के नेतृत्व में एयूडीएफ का उभार। असम यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट यानी एयूडीएफ़ के उभार ने मुसलमान मतदाताओं के बीच कांग्रेस के जनाधार को तेज़ी से काटा है। असम की आबादी का एक तिहाई हिस्सा मुसलमानों का है। एयूडीएफ के साथ चुनावी गठबंधन में सफलता नहीं मिलने के कारण आशंका जताई जा रही है कि कांग्रेस को आगामी चुनाव में इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है। जहां-जहां मुसलमान मतदाता महत्वपूर्ण स्थिति में हैं वहां कांग्रेस की सीटों को नुकसान पहुंच सकता है।
2009 में कांग्रेस के बुजुर्ग नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री संतोष मोहन देव भाजपा के कबींद्र पुरकायस्थ के खिलाफ सिलचर सीट हार गए थे। मगर इससे भी बुरा ये हुआ था कि वे चुनावी मुकाबले में तीसरे नंबर पर आए। दूसरे नंबर पर एयूडीएफ के उम्मीदवार ने जगह ली थी। कांग्रेस और एयूडीएफ उम्मीदवार को संयुक्त रूप से 400,000 से ज्यादा मत मिले। चूंकि उनके मत आपस में बंट गए इसलिए भाजपा के पुरकायस्थ ने 200,000 मत मिलने के बावजूद जीत हासिल कर ली। यह गणित कई दूसरे निर्वाचन क्षेत्रों में भी दोहराया जा सकता है। एयूडीएफ की स्थिति इस चुनाव में इतनी मजबूत नहीं है कि वह एक या दो से ज्यादा सीटें जीत सके। मगर इतना जरूर है कि वह कांग्रेस का खेल बिगाड़ सकती है। इससे भाजपा को अप्रत्यक्ष तरीके से मदद मिल सकती है। स्थानीय मीडिया का कहना है कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने हाल ही में पूर्वोत्तर में, खासकर असम में, अपनी रैलियों के दौरान मजबूत छाप छोड़ी है।
मोदी ने यूपीए सरकार और कांग्रेस पर जमकर हमला बोलते हुए बांग्लादेश से हो रही घुसपैठ को रोकने का मुद्दा उठाया और बांग्लादेश से विस्थापित हिंदुओं के साथ सहानुभूति भरे व्यवहार का वादा किया। मोदी चाहते थे कि यहां धार्मिक ध्रुवीकरण हो, जबकि मौजूदा लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान वे भारत के दूसरे हिस्सों में इससे बचते नजर आए। असम में यदि धार्मिक धु्रवीकरण होता है तो मुस्लिम एयूडीएफ की ओर जबकि हिंदू भाजपा की ओर जा सकते हैं, जबकि कांग्रेस के हाथ कुछ नहीं आएगा। असम के पूर्व मुख्यमंत्री गेगोंग अपांग को अपने पाले में लेने के बाद भाजपा को भी भरोसा है कि वह अरुणाचल की दो सीटों पर अच्छा प्रदर्शन करेगी। अभी राज्य में कांग्रेस का शासन है और उसने ये दोनों सीटें साल 2009 में जीती थीं- और इस बार कांग्रेस के नेता दावा कर रहे हैं कि वे इन सीटों को इस बार फिर से जीतेंगे। मिजोरम और मणिपुर में कांग्रेस के मुख्यमंत्री हैं। मिजोरम की एक सीट पर और पड़ोसी मणिपुर की दो सीटों पर पार्टी की पकड़ मजबूत है। मगर कहा जा रहा है कि मेघालय, जहां कांग्रेस की ही सरकार है, की दो सीटों पर इसकी स्थिति अच्छी नहीं है। नागालैंड और सिक्किम दोनों में क्षेत्रीय दलों की सरकार है। यहां उनकी एक-एक सीट है, और उन्हें भरोसा है कि वे इन सीटों को फिर से हासिल कर लेंगे। यही हाल त्रिपुरा का है। यहां सीपीआई (एम) के नेतृत्व वाली वाम मोर्चा सरकार को उम्मीद है कि वह पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणूमल कांग्रेस से मिल रही चुनौतियों के बावजूद दोनों सीटों पर फिर से जीत दर्ज करेगी। इसलिए पूर्वोत्तर में, अब असम पर सबकी निगाहें लगी हुई हैं। पूर्वोत्तर भारत में लोकसभा की कुल सीटों की आधी सीटें असम में हैं और यहीं भाजपा कांग्रेस की गढ़ में सेंध लगाने की तैयारी कर रही है।
रंजिशों का राज?
बारहा देखी हैं उनकी रंजिशें
पर कुछ अबके सर गिरानी और है...
भारतीय जनता पार्टी में गुटीय संतुलन और नेताओं का सद्भाव डगमगा रहा है। कांग्रेस का मिलेनियम बगÓ भाजपा में घुस चुका है। नेताओं की महत्वाकांक्षाएं उनके दिलों से निकलकर सड़क पर पोस्टरों में अवतरित हो रही हैं। चुनाव के बाद की रणनीतियां अभी से तय की जा रही हैं। शतरंज की बिसात बिछने लगी है। सर्वोच्च पद पर सभी की नजर है। मोदी नहीं तो कौन। यह सवाल हर एक के जेहन में कौंध रहा है और इसी कारण शीर्ष पर बैठे कम से कम चार नेता ऐसे हैं जो चुनाव तथा चुनाव के बाद तक अपनी प्रासंगिकता बनाए रखना चाहते हैं। लालकृष्ण आडवाणी जहां भाजपा के घोर हिंदुत्ववादी वातावरण में स्वयं को सेकुलर घोषित कर आगामी चुनाव के बाद के परिदृष्य के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। वहीं सुषमा स्वराज जैसी नेत्री भी संतुलित प्रत्याशी के बतौर स्वयं को तैयार रखना चाहती है। राजनाथ सिंह की अपनी महत्वाकांक्षा है और उधर महत्वाकांक्षाओं के इस महासागर में नैय्या खेने को तैयार शिवराज सिंह से लेकर अरुण जेटली भी बैठे हुए हैं।
लालकृष्ण आडवाणी जब गांधीनगर छोड़कर भोपाल सीट के लिए अड़े तो कई साल उठाए गए। सर्वाधिक प्रमुख आंकलन यह था कि आडवाणी ने जिस तरह मोदी का विरोध किया था उसका बदला गुजरात में निकाला जा सकता है। लेकिन न तो मोदी इतने कच्चे खिलाड़ी हैं और न ही आडवाणी इतने भोले हैं कि वे ऐसा कोई बहाना बनाते। इसके पीछे गहरी राजनीति थी। भोपाल आने का केवल यही मकसद नहीं था बल्कि मध्यप्रदेश की सत्ता संभाल रहे शिवराज सिंह में कुछ ज्यादा ही आस्था प्रकट करना भी था। शिवराज आडवाणी के पसंदीदा नेता बनते जा रहे हैं। शिवराज में यह संभावना है कि वे जरूरत पडऩे पर आडवाणी को सर्वाधिक महत्वपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित करने में कामयाब हो सकते हैं। उधर आडवाणी में भी यह संभावना है कि वे धर्मनिरपेक्षता का हवाला देकर चुनाव बाद के परिदृश्य में शिवराज को आगे बढ़ा सकते हैं। एक भाजपाई नेता की ऑफ द रिकार्ड इस टिप्पणी पर गौर फरमाइए कि भाजपा के कुछ नेता मोदी के नेतृत्व में ज्यादा सीटें आते देखने को तैयार नहीं हैं। इस बात में दम हो सकता है। चुनाव के परिणाम इस आशंका की पुष्टि भी करेंगे। लेकिन चुनाव से पहले भाजपा में जो दृश्य उपस्थित हुआ वह दर्शनीय नहीं था। आडवाणी माने तो जसवंत सिंह रूठ गए। वे बाडमेर से टिकिट चाह रहे थे लेकिन वसुंधरा और मोदी ने उनका मिशन फेल कर दिया। उधर उमा भारती पहले तो झांसी पर राजी थी लेकिन बाद में जब उन्हें लगा कि उत्तरप्रदेश की राजनीति में कुछ भी हो सकता है तो वे भोपाल की जिद ठान बैठी। सुषमा स्वराज भ्रष्टाचारी रामुलू को पार्टी में वापस लेने के पक्ष में नहीं थी उन्होंने खुलकर ट्वीट किया कि इस मामले में पार्टी ने उनकी राय नहीं मानी। सवाल यह है कि सुषमा स्वराज ने जब बेल्लारी में रेड्डी बंधुओं को आशीर्वाद देते हुए फोटो खिंचवाई थी उस वक्त पार्टी से पूछा था? लेकिन अभी भ्रष्टाचार के विरोध में खड़े होने के पीछे रणनीति समझ में आती है। यह जरूरी भी है। उधर अरुण जेटली ने भी ट्वीट किया और चुनाव से पहले इन बातों को गैर जरूरी बताया। अलग-अलग खेमें स्पष्ट दिखाई दे रहे हंै। एक छोर पर अरुण जेटली, राजनाथ सिंह, नरेंद्र मोदी जैसे नेता हैं जो येन-केन-प्रकारेण केंद्रीय सत्ता प्राप्त करने की मंशा रखते हैं तो दूसरी तरफ सुषमा स्वराज, लालकृष्ण आडवाणी, शिवराज सिंह जैसे नेता हैं जो सभी को साथ लेकर चलने में विश्वास रखते हैं, लेकिन पार्टी की छवि के प्रति भी उतने ही सजग हैं। आडवाणी को इस बात की भी फिक्र है कि उनके नजदीकी नेताओं के टिकिट या तो काटे जा रहे हैं या फिर उन्हें मनपसंद जगहों से टिकिट नहीं मिल रहा है। जसवंत सिंह और गुजरात में हरिन पाठक का उदाहरण सामने है। आडवाणी पार्टी में महत्व न दिए जाने से भी व्यथित हैं। उन्हें यह आशंका है कि चुनाव परिणाम आने पर उनकी भूमिका क्या होगी। क्या आडवाणी को स्वयं भूमिका तय करने की स्वतंत्रता दी जाएगी। क्या वे किसी ऐसे मंत्रिमंडल में शामिल होंगे जिसका मुखिया नरेंद्र मोदी हों। भविष्य की राजनीति को लेकर आडवाणी या सुषमा स्वराज की चिंता गैर जायज नहीं है। मोदी जिस तरह से काम करते हैं उसे लेकर कुछ आशंका होना स्वाभाविक है। लेकिन इस कार्यशैली के बावजूद मोदी की लोकप्रियता फिलहाल देश में सर्वाधिक है। उन्हें बेहद पसंद किया जा रहा है और यदि मोदी के नेतृत्व में 200 से अधिक सीटें मिलती हैं तो श्रेय मोदी को ही मिलेगा। यह बात अलग है कि भविष्य में साथी न मिलने की स्थिति में नेतृत्व किसी और को सौंपने की बात आई तो हालात अलग होंगे। बहरहाल लालजी टंडन और मुरली मनोहर जोशी को ठिकाने लगाकर मोदी- राजनाथ की जोड़ी ने भविष्य का संकेत दे दिया है। यदि मोदी स्वीकार्य नहीं हुए तो वाजपेयी की सीट से लडऩे वाले राजनाथ को भला कौन अस्वीकार कर पाएगा। राजनीति की दूरदर्शी समझ रखने वाले इस रणनीति को ताड़ रहे हैं। इसी कारण सुषमा-आडवाणी, जसवंत चिंतित हैं और उमा व्यग्र हैं।