02-Apr-2014 09:35 AM
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महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना का रणक्षेत्र अब शिवसेना मुखपत्र सामना बन गया है। दोनों दल मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं किन्तु आपस में भी उनकी टकराहट बढ़ गयी है। इस टकराहट के केंद्र में हैं नितिन गडकरी जो राज ठाकरे से अपनी

मुलाकात को जायज ठहराने में जुटे हुए हैं। उधर गडकरी की चाल से तिलमिलाए उद्धव ने सामना के माध्यम से मोर्चा सम्भाल लिया है। दरअसल गडकरी का मकसद राज ठाकरे को आगे बढ़ाना है क्योंकि राज की काबिलियत उद्धव के मुकाबले ज्यादा है और राज जिस तासीर की राजनीति करते हैं वह शिवसेना के अनुरूप भी है। राज के साथ खासियत यह है कि वे भाजपा को बड़ी पार्टी मानते हंै। जबकि शिवसेना महाराष्ट्र में अपने आगे किसी भी राजनीतिक ताकत को स्वीकारने को तैयार नहीं है। अपने राष्ट्रीय चरित्र के कारण भाजपा राज्य में अपने आपको बड़ा भाई मानती है जबकि स्थानीय राजनीति पर मराठी माणुस की पकड़ के कारण शिवसेना बड़ा भाई होने के दावे पर अपना हक जताती है। शायद यही कारण है कि महाराष्ट्र की राजनीति में इससे पहले भारतीय जनता पार्टी अपने स्वतंत्र और अलग अस्तित्व को लेकर दम जरूर भरती रही है लेकिन इस बार उसकी तरफ से कुछ गंभीर कोशिशें हुई हैं। प्रमोद महाजन के रहते महाराष्ट्र भाजपा ने भले ही शिवसेना से संबंध बिगाडऩे के बारे में कभी न सोचा हो लेकिन प्रमोद महाजन के जाने और गोपीनाथ मुंडे के कमजोर होने के बाद से महाराष्ट्र भाजपा में ऐसा नेतृत्व उभरा जो संघ और विद्यार्थी परिषद की हार्डकोर वर्किंग से निकलता है। यह ग्रुप मुंबई की बजाय नागपुर से संचालित होता है और शिवसेना की मराठी माणुस वाली कोंकणी राजनीति से अपने आपको अलग रखकर देखता है। बाल ठाकरे के निधन के बाद इसी नेतृत्व की कोशिश में राज ठाकरे से मेल मुलाकात बढ़ाने का चलन बढ़ गया। नरेन्द्र मोदी ने सिर्फ राज ठाकरे को ही गुजरात बुलाकर राज्य अतिथि का दर्जा नहीं दिया बल्कि स्थानीय नेता भी राज ठाकरे के चमत्कारिक नेतृत्व में महाराष्ट्र की मराठी माणुस वाली राजनीति का भविष्य भी देखते हैं और वोट भी। इसीलिये शिवसेना संकटग्रस्त और परेशान है।
बीते कुछ महीनों में नरेन्द्र मोदी जितनी बार मुंबई गये हैं उन्होंने स्थानीय नेताओं को अकेले चलने के लिए तैयार रहने की ताकीद की है। महाराष्ट्र की राजनीति पर पकड़ रखने वाले लोग भी मानते हैं कि नरेन्द्र मोदी के नाम पर उभरी भाजपा को अटल बिहारी के दौर की शिवसेना की बजाय मोदी के जमाने की मनसे ज्यादा आकर्षित कर रही है। इसलिए चुनाव के बाद की सम्भावनाओं को खुला रखा गया है। इतना भर होता तो भी शायद शिवसेना न बौखलाती। भाजपा के कुछ नेता शिवसेना के ही कुछ नेताओं की खरीद फरोख्त की भी कोशिश कर चुके हैं। यानी व्यावहारिक तौर पर महाराष्ट्र में भाजपा शिवसेना को ही खाने पचाने के फेर में पड़ी हुई है। यह महज संयोग नहीं है कि राज ठाकरे लोकसभा उम्मीदवारों के साथ मैदान में उतरे हैं। खबर है कि उनके कुछ उम्मीदवारों को मैदान में उतारा गया है ताकि वे शिवसेना को कमजोर कर सकें। मांजरेकर जैसे फिल्म जगत के लोगों को एमएनएस का टिकिट मिलना इसी रणनीति का हिस्सा है।
इन परिस्थितियों में शिवसेना का संकट यह है कि उनके पास अब बाल ठाकरे नहीं हैं। जो करना है उन लोगों को करना है जो बाल ठाकरे के नाम पर अपनी राजनीतिक चमक बनाकर रखना चाहते हैं। संगठन के स्तर पर शिवसेना अभी भी ताकतवर है लेकिन नेतृत्व के स्तर पर शिवसेना के पास अब बाल ठाकरे जैसा करिश्माई नेता नहीं बचा। फिर भी शिवसेना की कोशिश है कि वह इस बार विधानसभा चुनाव
के दौरान सत्ता की दहलीज तक पहुंचे जिसके लिए उसने बहुत पहले आरपीआई को साथ ले लिया था।
बीजेपी का तर्क है कि आरपीआई की तर्ज पर राज ठाकरे को इस महागठजोड़ में शामिल कर लिया जाए लेकिन बाल ठाकरे बिरादरी को राज ठाकरे किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं हैं। इसलिए जैसे ही भाजपा राज ठाकरे की तरफ दो कदम बढ़ाती है शिवसेना सब गठबंधन धर्म भूलकर बागी हो जाती है। इस बार यह बगावत महाराष्ट्र से निकलकर यूपी, बिहार और दिल्ली तक पहुंच सकती है। बीजेपी को इससे फर्क तो बहुत नहीं पड़ेगा लेकिन महाराष्ट्र में राष्ट्र हो न हो, राष्ट्र में महाराष्ट्र स्थाई रूप से मौजूद है और जब भाजपा इस महाराष्ट्र में प्रवेश करेगी तो बिना शिवसेना की सत्ता उसके नसीब से कोसों दूर बनी रहेगी। इसलिए शिवसेना भाजपा की इस नूरा कुश्ती में हमेशा की तरह आखिरकार मान मनौव्वल, समझौता और अपनी अपनी राजनीति रेखा के भीतर रहने की नसीहत के साथ वापस लौटना ही होगा।