02-Apr-2014 08:50 AM
1234857
नरेंद्र मोदी की चुनावी नैय्या मंजिल के करीब आकर डगमगाने लगी है। सारे देश में जिस मोदी लहर की बात हो रही थी उसे कहीं न कहीं आम आदमी पार्टी ने रोकने की कोशिश की है और बनारस से नरेंद्र मोदी को सीधी चुनौती देकर

केजरीवाल ने मीडिया की नजरों में नायक का दर्जा हासिल कर लिया है। चुनावी सर्वेक्षण यह तो कह रहे हैं कि नरेंद्र मोदी की अगुवाई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन-राजग 230 के करीब सीटें पाने में कामयाब हो जाएगा, लेकिन बाकी 42 सीटें कहां से आएंगी यह तय नहीं है। अकेले भाजपा की ताकत 185 से 200 सीटें लाने लायक है। इसके लिए भी भाजपा को इतिहास का सर्वश्रेष्ठ चुनावी प्रदर्शन करना होगा। देश में 300 सीटों पर कभी न कभी जीत चुकी भाजपा इसी उधेड़बुन में लोकसभा चुनाव के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रही है, लेकिन उसके अपने भीतर असंतोष का ज्वालामुखी फूट चुका है। लालकृष्ण आडवाणी की नाराजगी जैसे-तैसे शांत हुई तो जसवंत सिंह ने निर्दलीय पर्चा भरते हुए भाजपा को भारी झटका दे दिया। उन्हें बाहर कर दिया गया है और वे फिर से पूर्व भाजपाई बन गए हैं। उधर सुषमा स्वराज, अरुण जेटली जैसे नेताओं के अंतर्विरोध खुलकर प्रकट हो रहे हैं। इस बीच मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान धर्मनिरपेक्ष ताकत को संजोने में जुट चुके हैं। भाजपा की भीतरी खबर यह है कि पार्टी में दो गुट हैं एक गुट चाहता है कि मोदी अपने दम पर 230 से 272 के करीब पहुंच जाए ताकि पार्टी में उनका विरोध खत्म हो ही सहयोगियों के आगे भी हाथ न फैलाना पड़े। दूसरा गुट इतनी बड़ी सफलता नहीं चाहता। उसका मकसद 160 से 170 के करीब रहते हुए भाजपा को सबसे बड़ी पार्टी बनाना है। ताकि आवश्यकता पडऩे पर भाजपा के भीतर से ही किसी धर्मनिरपेक्षÓ चेहरे को प्रस्तुत कर दिया जाए।
यानि राजनीति की इस बिसात पर धर्मनिरपेक्षता एक महत्वपूर्ण मोहरा बनी हुई है। मध्यप्रदेश में भाजपा की चुनावी तैयारियों और आत्ममुग्धता को इसी से जोड़कर देखा जा रहा है। सभी टॉप नेता शीतल हवा का आनंद उठा रहे हैं। चुनाव के लिए घर-घर घूमना और पसीना बहाना उन्हें रास नहीं आ रहा। वैसे भी मध्यप्रदेश में जनता इतनी उदार है कि वह ज्यादा प्रयास के बगैर भाजपा को जिता अवश्य देगी, लेकिन सारे राष्ट्र में ऐसा नहीं है। पूर्वोत्तर की 25 सीटों में से भाजपा बमुश्किल 1-2 सीटें ले पाएगी। दक्षिण में अवश्य कर्नाटक के भरोसे उसकी सीटें 25-30 के बीच पहुंच सकती हैं। बंगाल में भाजपा को एक सीट मिल जाए वही बहुत है। उत्तर भारत में भाजपा सबसे ज्यादा उम्मीद लगाए बैठी है। उत्तरप्रदेश, बिहार जैसे राज्य भाजपा के भाग्य का फैसला करेंगे। पश्चिम में गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान से भाजपा को भरपूर समर्थन मिलेगा। हिमाचल, उत्तराखंड, गोवा, झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे छोटे राज्यों में भाजपा को भारी बढ़त मिलेगी, लेकिन फिर भी आंकड़ा 272 के करीब पहुंचता दिखाई नहीं दे रहा। इसी कारण तलाश है उन मित्रों की जो आने वाले समय में भाजपा को मदद कर सकें। भारत के चुनावी मानचित्र पर नजर डालें तो भाजपा के हमसफर बनने को तैयार राजनीतिक दलों की संख्या बहुत कम है।
पूर्व में ममता बनर्जी कभी एनडीए से जुड़ी रही हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी से उनको एलर्जी है वैसे भी मोदी की निकटता ममता को मुस्लिम वोटों से दूर कर देगी। ममता का स्वभाव है मनमानी करना यदि वे जुड़ेंगी तो अपनी शर्तों पर और उनकी एकमात्र शर्त हो सकती है वयोवृद्ध लालकृष्ण आडवाणी को कुर्सी सौंपना। राष्ट्रपति चुनाव के समय ममता ने कांग्रेस से प्रणब मुखर्जी को प्रधानमंत्री बनाने की जिद की थी और जब बात नहीं बनी तो पार्टी छोड़ दी थी। ऐसी ही जिद वाली छवि अम्मा की है जिन्हें 28 से 30 सीटें मिल सकती हैं। अम्मा मोदी की विरोधी तो नहीं है, लेकिन अपनी पसंद के लिए वे भाजपा से कोई बड़ा सौदा अवश्य करेंगी और इस सौदेबाजी में भाजपा कितना खोने के लिए तैयार रहेगी कहना मुश्किल है क्योंकि तमिलनाडु में पांच दलों से गठबंधन करके भाजपा ने अन्ना की नाराजगी मोल ले ली है। जहां तक द्रमुक का प्रश्न है उसका भाजपा से जुडऩा लगभग असंभव है। द्रमुक रामसेतु जैसे मुद्दों पर भाजपा से दूरी बना चुकी है और भाजपा द्रमुक का गठबंधन अंतत: द्रमुक की तमिलनाडु से विदाई का कारण बन सकता है। वैसे भी अलागिरी की बगावत ने करुणानिधि के कुनबे को खासा नुकसान पहुंचाया है। मायावती को भी एनडीए का संभावित सहयोगी माना जाता है। मायावती मानेंगी तो सीबीआई के मार्फत ही और उन्हें मनाने का फार्मूला भाजपा को कांग्रेस से पूछना होगा। उधर बीजू जनतादल ने कथित तीसरे मोर्चे से दूरी बनाकर भविष्य का संकेत तो दिया है, लेकिन इन दूरियों के पीछे एनडीए से जुडऩे का मकसद है यह कहा नहीं जा सकता। ऐसे ही एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी जगनमोहन रेड्डी साबित हो सकते हैं। दक्षिण में एनडीए की ताकत जगनमोहन के साथ आने से निश्चित रूप से बढ़ेगी। जगनमोहन ने पहले ही कह दिया है कि वे केंद्र की सत्ता के साथ रहेंगे, यह कथन भाजपा के लिए आशाजनक तो है, लेकिन लगभग 17 सीटें जीतने की संभावना रखने वाले जगन दक्षिण में भाजपा के मजबूत सहयोगी बनेंगे इसमें थोड़ा संदेह है। क्योंकि जगन के समर्थक आंध्र के विभाजन के लिए भाजपा को भी उतना ही दोषी मानते हैं। टीआरएस ने जब कांग्रेस से दूरियां बनाई थी उसी वक्त आभाष हो गया था कि दक्षिण में कांग्रेस के लिए बड़ी जीत हासिल करना इतना आसान नहीं है। यहां 134 में से कांग्रेस को सहयोगियों के साथ 30-35 सीटें मिल सकती है। अच्छी खबर यह है कि दक्षिण में कांग्रेस का ग्राफ पहले की अपेक्षा थोड़ा बढ़ा है पर बुरी खबर सहयोगियों का दूर जाना है। केरल से कांग्रेस के लिए राहत भरी खबर है। यहां कांग्रेस का ग्राफ बढ़ा है, लेकिन बाकी जगह कांग्रेस बुरी तरह पिछड़ गई है।
कांग्रेस ने जो चुनावी घोषणापत्र जारी किया है उसमें भी चुनावी सर्वेक्षणों की झलक देखी जा सकती है। निजी क्षेत्र में आरक्षण, पांच साल में 10 करोड़ युवाओं को रोजगार, महिलाओं को एक लाख का लोन, महिला आरक्षण विधेयक। बुजुर्गों को इलाज और पेंशन का अधिकार, घर का अधिकार, आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को आरक्षण, 8 प्रतिशत विकास दर जैसे कई वादे कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में किए। राहुल गांधी का कहना है कि चुनावी सर्वेक्षण वर्ष 2009 की तरह गलत साबित होंगे। शायद राहुल सही भी हों, लेकिन देश में कहीं से भी ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा है कि कांग्रेस से जनता की नाराजगी कम हो चुकी है। जनता ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं पर कांग्रेस का विरोध स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। कई कांग्रेसी दिग्गज चुनावी मैदान से दूर हैं। जयंती नटराजन, मनीष तिवारी, पी. चिदम्बरम सहित कई बड़े नेताओं ने चुनाव लडऩे से मना कर दिया है। अलग-अलग बहाने बनाए जा रहे हैं। सच तो यह है कि भविष्य में क्या होने वाला है इसका आभाष कांग्रेस को हो चुका है, लेकिन भविष्य की तस्वीर उतनी स्पष्ट नहीं है। किसी भी गठबंधन को बहुमत न मिलना एक बड़ा उलटफेर हो सकता है। सत्यमेव जयते में आमिर खान ने मतदाताओं से अपना मत न बेचने की अपील की है, लेकिन सवाल बेचने का नहीं बदलाव का है और यह बदलाव केवल मतदाताओं के स्तर पर ही नहीं बल्कि आइडियालोजी के स्तर पर भी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आंतरिक सर्वेक्षण
बता रहा है कि लोग मंदिर, मस्जिद आरक्षण जैसे मुद्दों से दूर हैं और वे सही विकास चाहते हैं। जनता के मानस में यह बदलाव चुनाव में भी दिखाई देगा? इसका पता तो 16 मई को ही पता चल सकेगा।
कांग्रेस की जुबान केके के हाथ
प्रदेश कांग्रेस ने अपनी जुबान खोलने में बहुत देर कर दी। चुनाव के ठीक 25 दिन पहले उन्होंने मुख्य प्रवक्ता के रूप में केके मिश्रा को चुना। कांग्रेस की आपसी राजनीति के शिकार से कांग्रेस खत्म हो गई है। वहीं केके मिश्रा के हाथ में फिर से मीडिया की कमान सौंपी है। अभी तक जो भी प्रवक्ता हुए हैं वह कांग्रेस की तरफदारी कम और सरकार की चमचा गिरी ज्यादा करते आए हैं। इसी के चलते केके को कांग्रेस की आवाज बुलंद करने को भेजा है।
मध्यप्रदेश में मिशन 29?
मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी मिशन 29 पर काम कर रही है, लेकिन उसकी तैयारियां इसके अनुरूप नहीं हैं। टिकिट वितरण के समय जो असंतोष देखने में आया उससे तो लग रहा है कि 20 से 22 सीटें भाजपा के लिए पर्याप्त होंगी। भोपाल में मतभेद के बाद आलोक संजर को उम्मीदवार बनाया गया। सागर में टिकिटार्थियों के बीच खींचतान स्पष्ट देखी गई। दमोह में प्रहलाद पटेल का विरोध हुआ। खजुराहो सीट पर भी अभी तक विरोध जारी है। मंदसौर में बगावत की आशंका कम नहीं हुई है। खंडवा, इंदौर, विदिशा जैसी सीटों पर भितरघाट का खतरा है। कैलाश जोशी के 1 करोड़Ó प्रकरण को भी गुटबाजी का परिणाम कहा जा रहा है। हारे हुए मंत्रियों को टिकिट मिलने से भी निराशा है, लेकिन भाजपा का मुकाबला करने वाली कांग्रेस कहां मजबूत है। कांग्रेस में तो प्रचार के लिए कोई लीडर ही नहीं दिखाई दे रहा। कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे दिग्गज अपने ही क्षेत्रों में सिमट कर रह गए हैं। दिग्विजय सिंह का पूरा ध्यान विदिशा और बनारस पर है। पार्टी में भगदड़ मची हुई है। भागीरथ प्रसाद प्रकरण ने कांग्रेस की दयनीय स्थिति का पर्दाफाश किया। उधर खजुराहो सीट को लेकर संजय पाठक के इस्तीफे ने नाटकबाजी करने के बाद अंतत: बीजेपी में शामिल हो गए और उन्होंने विधानसभा सदस्यता से भी अपना त्यागपत्र दे दिया। कांग्रेस-भाजपा और बसपा के छोटे-मोटे नेताओं को तोड़कर अपनी पीठ थपथपा रही है, लेकिन जमीन पर कांग्रेस का संगठन लडख़ड़ा गया है। सच पूछा जाए तो राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर भाजपा ने कांग्रेस का समीकरण बिगाड़ दिया है।
फिल्म स्टार, एक्टिविस्ट, क्रिकेटर जादूगर
लोकसभा चुनाव में सभी राजनीतिक दलों ने फिल्मी स्टार क्रिकेटरों और अन्य क्षेत्रों से जुड़े लोगों की लोकप्रियता को भुनाने का प्रयास किया है। कला, फिल्म, खेल, जनसेवा से जुड़े लोग भाग्य आजमा रहे हैं। बंगाल में बीजेपी ने जादूगर पीसी सरकार को मैदान में उतारा है तो उत्तरप्रदेश में क्रिकेटर मोहम्मद कैफ और राजस्थान में मोहम्मद अजहरूद्दीन मैदान में हैं। निशानेबाज राज्यवर्धन सिंह राठौड़ भाजपा के टिकिट पर भाग्य आजमाएंगे। आम आदमी पार्टी में आशुतोष जैसे पत्रकार, कवि कुमार विश्वास, एक्टिविस्ट मेधा पाटकर, सोनी सोरी, योगेंद्र यादव, मयंक गांधी, मीरा सान्याल, आलोक अग्रवाल सहित कई नाम हैं जो मूलत: समाजसेवा से जुड़े हुए हैं। प्राय: सभी दलों ने फिल्म स्टारों को टिकिट अवश्य दिया है। चंडीगढ़ में आम आदमी पार्टी का चुनाव चिन्ह झाड़ू लेकर गुल पनाग मैदान में हैं तो यहीं से भाजपा की किरण खेर कमल खिला रही हैं। मेरठ में नगमा के दीवाने उनके पास आने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं। वे कांग्रेस की उम्मीदवार हैं। राज बब्बर-कांग्रेस, शत्रुध्न सिन्हा-भाजपा, हेमामालिनी-भाजपा, विनोद खन्ना-भाजपा, जयाप्रदा, राखी सावंत और नवनीत कौर जैसे नाम तो हैं ही। विभिन्न क्षेत्रीय और दक्षिण भारतीय फिल्म स्टार भी चुनावी मैदान में हैं। भाजपा ने दिल्ली से मनोज तिवारी पर किस्मत आजमाई है। उधर तृणमूल कांग्रेस ने शताब्दी रॉय को चुनाव में उतारा है। दक्षिण में तो फिल्मी सितारों की बहार है। वहां तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश में कई मुख्यमंत्री फिल्मों से संबद्ध रहे। जयललिता और चंद्रबाबू नायडू फिल्म से जुड़े रहे हैं। उड़ीसा से तो सबसे ज्यादा फिल्मी सितारे चुनाव में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। इसके अलावा चिरंजीव जैसे सुपरस्टार राजनीति में भाग आजमा चुके हैं। भाजपा ने गुजरात में परेश रावल, बंगाल में जॉय बनर्जी, बाबूलाल सुप्रियो, बप्पी लहरी को उतारकर मुकाबला रोचक बना दिया है। असम में भी विभिन्न दलों ने फिल्मी स्टारों को लोकसभा प्रत्याशी बनाया है। यूपी में समाजवादी पार्टी के अलावा बाकी दल किसी न किसी फिल्म स्टार के भरोसे हैं। कभी अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना जैसे सुपर स्टार भी राजनीति में भाग्य आजमा चुके हैं, लेकिन राजनीति उन्हें रास नहीं आई। धर्मेंद्र और गोविंदा भी छाया लोक में वापस लौट गए। देखना है इस बार फिल्मी स्टार कितनी संख्या में जीत पाते हैं।
दल बदलुओं का मौसम
भविष्य की अनिश्चितता ने बहुत से लोगों को दल छोडऩे पर मजबूर किया है, लेकिन कुछ ऐसे दल-बदल हुए हैं जो बड़े चौंकाने वाले हैं। जैसे मशहूर पत्रकार एमजे अकबर का भाजपा से जुडऩा। इसी प्रकार सतपाल महाराज और भागीरथ प्रसाद का भाजपा में आगमन कांग्रेस के लिए झटका था। प्राय: सभी प्रदेशों में भाजपा में आने वालों की तादाद सर्वाधिक है। बिहार में रामपाल यादव भाजपा से जुड़े उससे पहले भी कई दिग्गज नेता भाजपा से जुड़ चुके थे, लेकिन असली नाटक तब देखने में आया जब बैंगलोर में श्रीराम सेना के मुतालिक और पटना में जनतादल यूनाइटेड के साबिर अली भाजपा में शामिल होने के 24 घंटे के भीतर बाहर भी कर दिए गए। सवाल यह है कि ये सारे नेता भाजपा में अवसर के चलते आ रहे हैं या फिर इनके दल-बदलने का कारण किसी पार्टी विशेष के सिद्धांत हैं। मध्यप्रदेश में होशंगाबाद से राव उदयप्रताप सिंह का विरोध भी इसी आधार पर किया गया था। बाड़मेर में जसवंत सिंह के स्थान पर कर्नल सोना राम को टिकिट देना कितना सही है चुनाव बाद पता लगेगा। सोना राम भी कांग्रेस छोड़कर आए हैं। कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने भाजपा छोड़ी है इनमें बैतूल से अजय शाह का नाम सर्वप्रमुख है जो मंत्री विजयशाह के भाई हैं। टिकिट वितरण में असंतोष कई जगह फूटा जैसे भोपाल में बाबूलाल गौर ने कहा कि हमसे पूछकर टिकिट नहीं दिया। गौर ने विदिशा से लक्ष्मण सिंह के खड़े होने पर जीत का अंतर घटने की भविष्यवाणी भी की। इन सबको देखकर लगा कि साम-दाम-दंड-भेद से चुनाव जीतने की कोशिश सभी राजनीतिक दलों का आधार बन चुकी है।