18-Mar-2014 10:13 AM
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चुनावी शंखनाद हो चुका है। नरेंद्र मोदी ने अपनी ही पार्टी के शीर्ष नेताओं को धराशायी करते हुए केंद्रीय सत्ता की तरफ कदम तो बढ़ा दिए हैं किंतु उनकी राह कंटकों से भरी हुई है। देश में सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिपरेक्षता का ध्रुवीकरण

भ्रष्टाचार और सुशासन के मुद्दों पर हावी होता दिख रहा है। मोदी को रोकने के लिए धर्म निरपेक्षपता के बैनर तले कतिपय राजनीतिक दलों का एकत्रीकरण भविष्य की धुंधली तस्वीर तैयार कर रहा है। इन सबके बीच चुनावी सर्वेक्षणों में एनडीए की लगातार बढ़त ने मोदी के प्रधानमंत्री बनने की संभावनाओं को पहले से प्रखर किया है। किंतु प्रश्न वही है कि क्या नरेंद्र मोदी चुनाव से पहले उतने सहयोगियों को जोडऩे में कामयाब हो सकेंगे कि 272 मीलÓ दूर दिख रही दिल्ली की उनकी यात्रा सुगम हो सके।
बहरहाल भारतीय लोकतंत्र के इस सबसे बड़े महायज्ञ में मतदाता नौ चरणों में आहूतियां देंगे। करीब 10 करोड़ युवा पहली बार मत डालेंगे और तकरीबन 81.40 करोड़ मतदाता 543 सांसदों का भाग्य तय करेेंगे। जो गठबंधन 272 के जादुई आंकड़े को पाने में कामयाब होगा वही देश की बागडोर संभालेगा। पिछले 16 माह से डगमगाती यूपीए सरकार अंतत: 10 वर्ष पूरे करने में कामयाब रही।
मंजिल तक पहुंच पाई या नहीं कहा नहीं जा सकता, किंतु इतना तय है कि लगभग 60-65 दिन बाद यह देश एक नए प्रधानमंत्री का इस्तकबाल करेगा। वह कौन होगा यह उतना सुनिश्चित नहीं है। किंतु किसके कदम इस दिशा में किस तेजी से बढ़ रहे हैं। यह तो देखा ही जा सकता है। चुनाव आयोग ने कुछ सख्त कदम भी उठाए हैं। उधर पार्टियां भी फूंक-फूंक कर आगे बढ़ रही हैं।
इन चुनावों के खास मुद्दे
सितंबर 2013 में जब भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी को प्रोजेक्ट किया तो सारे देश में यह बहस चल पड़ी की इन चुनावों में कौन सा मुद्दा प्रमुख रूप से प्रभावी रहेगा। 2जी, कोल आवंटन, पनडुब्बी समेत तमाम घोटालों से घिरी यूपीए सरकार के समक्ष भ्रष्टाचार ही सर्वप्रमुख मुद्दा था। अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं ने भ्रष्टाचार के विरोध में आवाज बुलंद कर दिल्ली की सत्ता पर दस्तक दी थी। इसीलिए यह माना जा रहा था कि इन चुनावों में भ्रष्टाचार मुक्त सुशासन और लोकसेवकों का आचरण प्रमुख मुद्दा बनेगा। लेकिन सुशासन, विकास और भ्रष्टाचार को लेकर चुनावी समर में उतरने की ताकत अधिकांश राजनीतिक दलों की नहीं है। क्योंकि सभी इस हमाम में नंगे हैं। इसीलिए जिनके घर शीशे के होते हैं वे दूसरों पर पत्थर फेंका नहीं करते। इस तर्ज पर लोकसभा चुनाव भी कुछ भावनात्मक मुद्दों के आसपास केंद्रित होते जा रहे हैं। अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं से उम्मीद थी कि वे भ्रष्टाचार को केंद्र में रखकर अपने चुनावी समर का आगाज करेंगे, लेकिन उन्होंने भी सांप्रदायिकता की छतरी के नीचे शरण लेना उचित समझा।
व्यापक रूप से देखा जाए तो इन चुनावों में राजनीतिक दल भ्रम की स्थिति में हैं। किसका विरोध करें। कांग्रेस का या भाजपा का। तकनीकी रूप से लोकसभा चुनाव में विपक्षी पार्टियां सत्तासीन दल को निशाना बनाती हैं, लेकिन यहां सत्तासीन दल से ज्यादा नरेंद्र मोदी से चुनौती प्रतीत हो रही है। इसलिए गैर भाजपा और गैर कांग्रेसी दलों के निशाने पर मुख्य रूप से मोदी हैं तो कांग्रेस पर भी तीखे वार किए जा रहे हैं। वहीं भाजपा और कांग्रेस के समक्ष प्रतिद्वंदी के रूप में एक-दूसरे पर निशाना साधना मजबूरी भी है और समय की मांग भी है, लेकिन बात इतनी ही नहीं है। इन चुनावों के परिणाम भविष्य की राजनीति तय करेंगे। इसीलिए छोटे राजनीतिक दल अभी से सुरक्षित आश्रय की तलाश में हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन जो जॉर्ज फर्नांडीज, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं के नेपथ्य में जाने और जनतादल यूनाइटेड जैसे महत्वपूर्ण दलों के टूटने के कारण अप्रासंगिक हो गया था। उसमें अचानक नई कोपलें फूटने लगी हैं। रामविलास पासवान का एनडीए से जुडऩा, येदियुरप्पा और बी.एस. श्रीरामुलु की भाजपा में वापसी, चंद्रबाबू नायडू की नरेंद्र मोदी के प्रति नरमी, करुणानिधि की करुणामय दृष्टि और बीजू जनतादल के नवीन पटनायक का नरम रुख कहीं न कहीं एनडीए के परिवार में वृद्धि का संकेत दे रहे हैं, लेकिन जादुई आंकड़ा फिर भी दूर है। ऐसे में एनडीए को अमृत्व कौन प्रदान करेगा।
क्या तमसो मा (ममता) सद्(मोदी)गमय होगा यह एक विशाल प्रश्न है, लेकिन इसका जवाब अवश्य तलाशा जाएगा। क्योंकि देश को अंतत: एक स्थिर सरकार तलाशनी ही होगी। उसे स्वयं अपनी समस्याओं से निकलना होगा। तीसरे मोर्चे की संभावनाएं जैसे ही प्रबल होती हैं। वैसे ही धुंधली भी पड़ जाती हैं। कभी 11 दलों ने एक बैनर के तले आकर चुनाव लडऩे की घोषणा की थी, लेकिन अगले ही दिन उनमें फूट पड़ गई। सबसे पहले जयललिता ने रुख बदला उसके बाद बीजू पटनायक पलटबयानी करते नजर आए। रामविलास पासवान पहले ही दूरी बना चुके थे। लालू यादव की मजबूरी कांग्रेस बन चुकी थी। बचे हुए थे, मुलायम सिंह, वामपार्टियां और नीतिश कुमार। इनकी एकता कुछ छोटे-मोटे दलों के साथ मिलकर 80-85 की संख्या के करीब आकर स्थिर हो जाती है। ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री पद का सपना अन्ना हजारे ने दिखा दिया और वैसे भी अनुमान है कि सबसे बड़ी पार्टी भाजपा फिर कांग्रेस तथा तीसरे नंबर पर ममता बनर्जी रहने वाली है। ऐसे में प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा पाले बैठे किसी भी पाले में जाने को तैयार मुलायम, नीतिश, शरद पवार जैसे नेताओं को मायूस होना पड़ा है। यूपीए के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुडऩे का नुकसान तो होगा ही, लेकिन ममता बनर्जी और जयललिता की महत्वाकांक्षाएं बेमानी भी नहीं हैं। इन चुनावों में यह दोनों देवियां कमाल दिखाने वाली हैं। एक अन्य महिला नेत्री मायावती के सितारे भी इतने बुलंद नहीं हैं। बहरहाल जो भी चुनावी नतीजे सामने आएंगे उससे किसी भारी उथलपुथल की उम्मीद लगाना ठीक नहीं है। प्रश्न केवल यही है कि क्या मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की स्वीकार्यता राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के बीच सितंबर 2013 में जितनी कम थी अब उतनी ही तेजी से बढऩे लगी है। मोदी पहले अछूत हुआ करते थे, लेकिन अब स्वीकार्य हैं। जिन्होंने कभी मोदी को सांप्रदायिकता का खलनायक घोषित किया था वे ही अब मोदी की तरफदारी करते नजर आ रहे हैं। इससे सियासी माहौल बदलने के लिए संकेत तो मिल रहे हैं। जो तस्वीर 8 दिसंबर 2013 तक धुंधली हुआ करती थी वह धुंध से उभरकर थोड़ी स्पष्ट होने लगी है, लेकिन बहुत स्पष्ट नहीं है। शायद चुनाव आते-आते ज्यादा बेहतर तरीके से आने वाली राजनीति का अंदाजा हो सकेगा। इस बीच चुनावी सर्वेक्षणों की बाढ़ आई हुई है। लगभग सभी सर्वेक्षणों में एनडीए को 200 से अधिक सीटों की भविष्यवाणी की जा रही है। एनडीए में शामिल हो चुके छोटे-मोटे दल इस संभावना से उत्साहित हैं, लेकिन जादुई आंकड़ा अभी भी दूर है। राजनीति में अवसरवाद के चरम पर पहुंचे कई राजनीतिक दलों की प्रतिबद्धताएं डगमगाने लगी हैं। वैसे भी राज्य में सुचारू शासन चलाने के लिए केंद्र से संबंध मधुर रखना जरूरी है। यह सभी जानते हैं। देखना है कि आने वाले समय में कितना बदलाव होता है।
543 सीटें और 10 चरण
चुनाव आयोग ने मौसम का मिजाज, सुरक्षा की स्थिति, संवेदनशीलता, संसाधनों की उपलब्धता और कुछ सीमा तक राजनीतिक दलों की सक्रियता को दृष्टिगत रखते हुए अलग-अलग राज्यों में विभिन्न चरणों में चुनाव की घोषणा की है। अंडमान निकोबार, चंडीगढ़, दादरानगर हवेली, दमन और दीव, लक्ष्यदीप, पुड्डूचेरी जैसे केंद्र शासित प्रदेशों के साथ-साथ अरुणाचल, गोवा, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल, कर्नाटक, केरल, दिल्ली, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, पंजाब, सिक्किम, तमिलनाडु और उत्तराखंड में एक ही चरण में मतदान संपन्न हो जाएगा। इनमें तमिलनाडु सबसे बड़ा राज्य है। वैसे इन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश से 167 सीटें लोकसभा में हैं। आंध्र, मणिपुर, उड़ीसा, राजस्थान, त्रिपुरा जैसे राज्यों की 92 सीटों पर दो चरणों में वोट डाले जाएंगे। असम, झारखंड, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ की 116 सीटों पर तीन चरणों में वोट डाले जाएंगे। पश्चिम बंगाल और जम्मू कश्मीर की 48 सीटों पर छह चरणों में मतदान होगा। जबकि बिहार और उत्तरप्रदेश जैसे बड़े राज्यों की 120 सीटों पर छह चरणों में वोट डाले जाएंगे। मध्यप्रदेश में 10, 17 एवं 24 अप्रैल को वोटिंग होगी। 7 अप्रैल को दो राज्यों की छह सीटों के लिए, 9 अप्रैल को 5 राज्यों की 7 सीटों के लिए, 10 अप्रैल को 14 राज्यों की 92 सीटों के लिए, 12 अप्रैल को तीन राज्यों की पांच सीटों के लिए, 17 अप्रैल को 13 राज्यों की 122 सीटों के लिए, 24 अप्रैल को 12 राज्यों की 117 सीटों के लिए, 30 अप्रैल को 9 राज्यों की 89 सीटों के लिए, 7 मई को 7 राज्यों की 64 सीटों के लिए और 12 मई को तीन राज्यों की 41 सीटों के लिए वोट डाले जाएंगे और नतीजे 16 मई को दोपहर तक मिल जाएंगे। इन चुनावों में 44.10 करोड़ पुरुष वोटर ही नहीं 37.35 करोड़ महिला वोटर भी बढ़-चढ़कर भाग लेंगी। चुनाव आयोग को उम्मीद है कि 70 प्रतिशत मतदाता पोलिंग बूथ तक पहुंचेंगे इसीलिए मतदान का समय बढ़ाते हुए उसे सुबह 7 से शाम 6 बजे तक किया गया है। 2009 से 10 करोड़ ज्यादा मतदाता इस बार चुनाव आयोग की सूची में हैं। मतदाताओं की यह संख्या यूरोप और दक्षिणी अमेरिका जैसे महाद्वीपों की कुल जनसंख्या से कहीं अधिक है। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारतीय लोकतंत्र का आकार कितना विशाल है और भारतीय चुनाव कितने बड़े पैमाने पर लड़े जाते हैं। अनुमान तो यह भी है कि इस बार चुनावी खर्च में भारत अमेरिका को पीछे छोड़ देगा। इसीलिए चुनाव आयोग ने भी चुनावी खर्च की सीमा बढ़ा दी है।
दिलचस्प मुकाबले
पिछले कई लोकसभा चुनाव की बनिस्पत इन चुनावों को आम आदमी पार्टी ने रोचक तो बना ही दिया है। जिस तरह से प्रत्याशी मैदान में हैं उसके चलते कई सीटों पर सारे देश की नजर रहेगी। अरविंद केजरीवाल नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी से चुनाव लड़ सकते हैं। हालांकि अभी पार्टी ने कुछ तय नहीं किया है। यदि ऐसा हुआ तो बनारस में वीर रस बहेगा। दूसरी सबसे दिलचस्प लड़ाई दिल्ली के चांदनी चौक में देखने को मिलेगी जहां कपिल सिब्बल के मुकाबले आम आदमी पार्टी ने टीवी पत्रकार और अब राजनीतिज्ञ आशुतोष को मैदान में उतारा है। इस सीट पर लड़ाई का त्रिकोण है क्योंकि भाजपा ने मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी हर्षवर्धन को टिकिट दिया है। भाजपा ने दिल्ली में सातों टिकिट दिग्गजों को ही दिए हैं। मीनाक्षी लेखी नई दिल्ली से उदित राज उत्तर पश्चिमी दिल्ली, मनोज तिवारी पूर्वोत्तर दिल्ली से मैदान में हैं। उत्तरप्रदेश में राहुल गांधी को चुनौती देंगे कुमार विश्वास। उधर नागपुर में नितिन गडकरी के मुकाबले अंजली दमानियां के मैदान में आने से लड़ाई रोचक हो गई है। अरविंद केजरीवाल शाजिया इल्मी को सोनिया गांधी के मुकाबले उतारना चाहते थे, लेकिन शाजिया ने साफ मना कर दिया अन्यथा सोनिया के समक्ष भी एक मजबूत प्रत्याशी खड़ा होता। भाजपा के तमाम दिग्गज नेता उत्तरप्रदेश से चुनावी मैदान में हैं। राजनाथ सिंह लखनऊ से और मुरली मनोहर जोशी कानपुर से चुनाव लड़ेंगे। उमा भारती को बुंदेलखंड में ही रखते हुए झांसी से टिकिट दिया गया है। उधर कल्याण सिंह अपने पुत्र के लिए टिकिट पाने में कामयाब हो गए हैं। बिहार में भी दिलचस्प लड़ाई देखने को मिलेगी। शत्रुध्न सिन्हा पटना साहिब से मैदान में हैं तो राष्ट्रीय जनतादल छोड़कर भाजपा का दामन थामने वाले रामकृपाल सिंह यादव लालू यादव की बेटी मीसा भारती को चुनौती देंगे। उत्तराखंड में दो पूर्व मुख्यमंत्रियों मेजर जनरल (रिटा.) बीसी खंडूरी को पौढ़ी गढ़वाल तथा रमेश पोखरियाल निशंक को हरिद्वार से टिकिट दिया गया है। छत्तीसगढ़ में सरोज पांडे दुर्ग से और रमेश वैश्य रायपुर से लड़ेंगे। आम आदमी पार्टी ने बस्तर में सोनी सोरी को टिकिट दिया है। जिनका मुकाबला भाजपा के दिग्गज नेता दिनेश कश्यप से होगा। चंडीगढ़ में थोड़ा ग्लेमर बिखेरने की कोशिश की गई है और यहां अनुपम खेर की पत्नी किरण खेर चुनाव लड़ रही है। उधर अमृतसर में नवजोत सिंह सिद्धू के स्थान पर अरुण जेटली चुनाव लड़ेंगे।
दल बदलने का मौसम आया
चुनावी खुमारी शबाब पर है। रंग और अबीर की तरह राजनीति के रंग भी विखरने लगे हैं। मौके की नजाकत देखकर रंग बदलने वालों के रंग बदलने लगे हैं। वैसे भी रंग का माहौल है इसलिए हर कोई चाह रहा है कि सब उसके रंग में रंग जांए लेकिन रंग के इस खेल में प्रतिबद्धताऐं टूटी हैं,नैतिकता की सीमा का अतिक्रमण हुआ है। कल तक जो अपने थे वे पराये हो गये और जो पराये हुआ करते थे उन्हें अपना लिया गया है। राजनीति में बदलाव के बवंडर का असर कुछ इस कदर है कि एक ही छांव के नीचे सांप और मोर आराम फरमा रहे हैं। बिहार में धर्म निरपेक्षता के सरताज रामविलास पासवान ने फिर से एनडीए की शरण ली है तो कुछ ऐसे भी है जो बाकायदा अपना दल बदल रहे हैं। जैसे बिहार के राजद नेता रामकृपाल यादव ने पाटलीपुत्र की सीट पर विवाद के वाद पार्टी छोड़ दी और भाजपा को अपना लिया उधर छत्तीसगढ़ में करूणा शुक्ला कांग्रेस में चली गईं। मध्यप्रदेश में तो भागीरथ प्रसाद ने टिकिट कन्फर्म होने के बाद कांग्रेस को धोखा दे दिया। बदलाव का यह दौर जारी है। कहीं लालच में, कहीं दुखी होकर, कहीं हार के डर से,कहीं किसी को नुकसान पहुंचाने के लिए पार्टी बदलने का दौर जारी है बिहार में नीतिश मंत्रीमंडल की रेणु कुशवाह का भाजपा में जाना पहले से ही तय था उन्होंने चुनाव के समय अपना दल बदल लिया ऐसे कई नाम है उत्तर प्रदेश में तो लम्बी लिस्ट है कांग्रेस के जगदम्बीका का पाल भाजपा में जाने को बेताव है तो अन्य बहुत से सांसद भी पार्टी बदलने का मन बना रहे हैं। लिस्ट में दूसरा नाम है उन्नाव से कांग्रेस सांसद अन्नू टंडन का अन्नू पिछला चुनाव भारी बहुमत से जीत कर संसद पहुंची थी। लेकिन इस बार उनको लगता है कि पार्टी उन्हें टिकट नहीं देगी। अन्नू ने अपने कई करीबियों को बीजेपी में अपने लिए स्थान बनाने के लिए सक्रिय कर दिया है। बीजेपी के हमारे सूत्रों के मुताबिक कई बड़े नेताओं से उनकी बात हो चुकी है लेकिन अभी किसी ने भी उनको हाँ नहीं कहा है। बताय जा रहा है कि टंडन के मामले में मोदी ही अंतिम निर्णय करेंगे। वैसे देखा जाए तो उन्नाव में टंडन को लेकर कोई विरोध नहीं है तो ऐसे में बीजेपी उनको गले लगा सकती है। यहाँ बीजेपी नेता हृदय नारायण दीक्षित जो कि उन्नाव के ही हैं वो जरुर विरोध कर सकते हैं। लिस्ट में तीसरा नाम है महाराजगंज से कांग्रेस सांसद हर्षवर्धन का। हर्षवर्धन भी पुराने कांग्रेस के नेता हैं। पार्टी के साथ वो हर बुरे समय में खड़े रहे। लेकिन इस बार पूर्वांचल में जिस तरह का माहौल बना है उसे देख कर हर्षवर्धन को लगता है कि कांग्रेस में रहते वो अपनी सीट नहीं बचा सकते ऐसे में ये भी बीजेपी में जाने की जुगत लगा रहे हैं। क्षत्रिय बिरादरी के होने के कारण ऐसा माना जा रहा है की योगी आदित्यनाथ भी इनके नाम पर अपनी मुहर लगा दे। लेकिन बीजेपी सभी नफे नुकसान का आकलन करने के बाद ही इनको लेने के मूड में है। श्रावस्ती से कांग्रेस सांसद विनय कुमार पाण्डेय अपनी सम्भावित हार और इलाके में मोदी लहर को देखते हुए पाला बदलने का मन बना चुके हैं। दरअसल विनय ने कांग्रेस आलाकामन से अपनी सीट बदलने को कहा था लेकिन वो इस पर राज़ी नहीं हुए ऐसे में पाण्डेय ने बीजेपी में अपने करीबियों को सक्रिय कर दिया है। लेकिन इस सीट पर जो समीकरण बन रहे हैं उसे देखते हुए नहीं लगता कि बीजेपी इनको अपने साथ लेकर चलेगी। फिर पाण्डेय एड़ी चोटी का बल लगाये हुए हैं। देखना ये होगा कि इनकी मुहीम क्या रंग लाती है। बहराइच से कांग्रेस सांसद कमल किशोर कमांडो भी बीजेपी में जाने का सपना देख रहे हैं।
कमांडो ने भी अपनी सीट बदलने का निवेदन किया था जिसे पार्टी ने इंकार कर दिया है। कमाडों को लगता है कि यदि उनकी सीट न बदली तो मोदी लहर में उनकी सांसदी बह जायेगी। कमाडों के करीबियों ने उनको राय दी है कि समय रहते वो बीजेपी में शामिल हो जाएँ वरना उनकी हार कोई बचा नहीं सकता। कमाडों बीजेपी में शामिल होने के लिए भाजपा नेताओं गणेश परिक्रमा कर रहे हैं। उनको उम्मीद है कि मोदी के नाम पर जनता उनको भी पार लगा देगी।