16-Apr-2014 08:10 AM
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वर्ष 1957 में जब पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 47.78 प्रतिशत मत प्राप्त करते हुए कुल 494 लोकसभा सीटों में से 371 लोकसभा सीटें जीत कर स्वयं को एक तरह से अजेय बना दिया था, तब किसी ने

कल्पना नहीं की थी कि भारतीय राजनीति में एक दिन ऐसा भी आएगा जब कांग्रेस सहयोगियों के लिए भीख मांगती नजर आएगी और उसकी सीटों की संख्या दहाई के अंक तक पहुंचने की आशंका पैदा हो जाएगी। वर्ष 1957 से लेकर वर्ष 2014 तक लगभग 57 वर्षों में भारतीय संसद के स्वरूप में ज्यादा परिवर्तन नहीं आया है। उस समय 494 सीटों के लिए चुनाव लड़े गए थे और अब 542 सीटों के लिए चुनाव लड़े जा रहे हैं। यानी 57 सालों में लोकसभा सीटों की संख्या बमुश्किल 48 से 51 तक बढ़ पाई है। जबकि उस दौरान जनसंख्या 60 करोड़ से बढ़कर 120 करोड़ से ऊपर हो चुकी है। जनसंख्या दोगुनी है। सीटें उतनी ही हैं। यह एक अलग बहस का विषय हो सकता है, किंतु भारतीय राजनीति में साढ़े पांच दशक में आए बदलाव ने यह बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है कि विश्व का यह सबसे बड़ा लोकतंत्र 1984 के बाद से लेकर अब तक बैसाखियों पर टिकने को विवश है। क्षेत्रीय दलों ने भारतीय राजनीति में जिस तरह पकड़ बनाई है उसके चलते राष्ट्रीय पार्टियों का शासन इन्हीं दलों के रहमो-करम पर निर्भर है। चाहे यूपीए हो या एनडीए दोनों में 22-29 दलों के टेके लगाने ही पड़ते हैं। किसी एक दल को बहुमत अब एक स्वप्न बनकर रह गया है। 1957 के बाद 1962 में पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस को 44.72 प्रतिशत वोट मिले। वोटों की संख्या में लगभग तीन प्रतिशत की कमी आई और सीटें भी घटकर 361 रह गईं लेकिन कांग्रेस को छोड़कर कोई भी पार्टी तीन अंकों तक नहीं पहुंच पाई। दोनों चुनावों की खासियत यह रही कि कांग्रेस के अलावा निर्दलीयों को सर्वाधिक मत मिले। 1957 में जहां निर्दलीय 19.32 प्रतिशत वोट लेकर 42 सीटें जीतने में कामयाब रहे थे। वहीं 1962 के चुनाव में भी निर्दलीयों की ताकत अच्छी खासी थी और वे 11.5 प्रतिशत मत लेकर 20 सीटें जीते। 1967 में हालात बदलने शुरू हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू का देहांत और कांग्रेस की नीतियों में बदलाव के कारण कांग्रेस से मोहभंग शुरू हो गया। लेकिन तब भी कांग्रेस एक बहुत बड़ी ताकत थी। स्वतंत्रता संग्राम में कांग्रेस के योगदान का स्मरण उस समय की पीढ़ी के जेहन में ताजा ही था। इसलिए अपना भाग्य विधाता वह कांग्रेस को ही मानती थी। 1967 में पहली बार 520 लोकसभा सीटों के लिए चुनाव हुआ और राजनीतिक क्षितिज पर भारतीय जनसंघ 35 सीटें लेकर अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल रहा। उस समय स्वतंत्रता पार्टी नामक एक दल ने 44 सीटें जीतकर कांग्रेस को चुनौती दी थी। पहली बार 300 के नीचे कांग्रेस का आंकड़ा आया और लोकसभा में कुल सीटों का आंकड़ा 520 तक पहुंचा। लेकिन 40.78 प्रतिशत वोट लेकर 283 सीटों के साथ कांग्रेस अभी भी सबसे ताकतवर दल था। निर्दलीयों की ताकत तब भी सबसे ज्यादा थी। 13.78 प्रतिशत वोट के साथ वे 35 सीट जीतने में कामयाब रहे। लोकतंत्र अंगड़ाई ले रहा था, सारी दुनिया में बदलाव का दौर था भारत की तरफ भी दुनिया की नजरें थी। स्वतंत्रता के 20 वर्ष बीत चुके थे, बदलाव की प्रतीक्षा थी, लेकिन कांग्रेस अडिग थी। 1971 के पांचवे लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी का करिश्मा फिर चला। कांग्रेस के वोट में लगभग 3 प्रतिशत की वृद्धि हुई और 93 सीटें भी बढ़ी। कांग्रेस को 352 सीटें मिली। आसपास दूर-दूर तक कोई नहीं था। भारतीय जनसंघ की ताकत भी घटी और सीपीआई भी 23 तक सिमटकर रह गई, लेकिन यहां एक बड़ा परिवर्तन देखने में आया। पहली बार अन्य दलों ने 66 सीटें जीतकर भविष्य की राजनीति का आभास दे दिया था। इन्हें 22.16 प्रतिशत वोट मिले। जो किसी भी राष्ट्रीय पार्टी के लिए आज की तारीख में पर्याप्त माने जाते हैं।
1975 में भारतीय राजनीति को इमरजेंसी का काला दौर देखना पड़ा। मीडिया पर प्रतिबंध था और देश लगभग गुलामी जैसे हालातों का सामना कर रहा था। इंदिरा गांधी का नया अवतार तानाशाह के रूप में हुआ, जिसने इस देश के लोकतांत्रिक चरित्र को छलनी कर दिया। जनता जो कांग्रेस से प्यार करती थी वह अचानक कांग्रेस के विरोध में खड़ी हो गई। इंदिरा पाकिस्तान से युद्ध के समय नायक बनकर अवतरित हुईं, अचानक सारे देश में खलनायक बन गईं। भारतीय राजनीति में राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण ने दूसरी क्रांति की नींव रखी। देश में बदलाव की बयार चल रही थी। 1977 के चुनाव में इसका नतीजा भी मिल गया। कांग्रेस की सीटें सिमटकर 153 रह गईं। 197 सीटों का घाटा। भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास की यह अभूतपूर्व घटना थी, लेकिन उसके बाद भी कांग्रेस को 34.52 प्रतिशत वोट मिले थे। कांग्रेस के विरोध में गठित हुई जनता पार्टी और उनके सहयोगियों ने 43.17 प्रतिशत वोट हासिल कर 298 सीटें जीतीं। किसी गैर कांग्रेसी सरकार का यह अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है, लेकिन यह प्रदर्शन बरकरार नहीं रह सका। पर इसने देश की राजनीति में गैर कांग्रेसवाद की शुरुआत कर दी थी और इसके साथ ही यह सुनिश्चित हो गया था कि आगामी 3 दशक के भीतर देश में नई राजनीतिक ताकतें जन्म लेंगी। पर उनका स्वरूप क्या होगा इसे लेकर भ्रम की स्थिति थी। जनतादल का शासन अंधेर नगरी और चौपट राजा के समान निहायत घटिया तथा अनियंत्रित रहा। गैर कांग्रेसी सरकार का प्रयोग जनता को रास नहीं आया। वैसे भी गैर कांग्रेसी सरकार का गठन नकारात्मक वोटों पर हुआ था। जनता ने क्रोध जताया था, लेकिन कांग्रेस अभी भी उनकी पसंदीदा पार्टी थी। 1977 में जो परिवर्तन का आगाज हुआ वह 1980 आते-आते तक ठहर गया। 1980 में पहली बार 545 लोकसभा सीटों के लिए चुनाव हुए और कांग्रेस एक बार फिर 42.69 प्रतिशत वोट लेकर 353 सीटें जीतने में कामयाब रही। उसे 271 सीटें अधिक मिलीं। इंदिरा गांधी की लोकप्रियता का यह चरम था। उसके बाद भारतीय राजनीति में जो कुछ हुआ वह इतिहास ही है। 1984 में इंदिरा गांधी की दुखद हत्या कर दी गई। यह हत्या आपरेशन ब्लू स्टार का प्रतिशोध थी, लेकिन जनता ने इस हत्या का प्रतिशोध कांग्रेस को समर्थन देकर लिया। भारत ही नहीं विश्व के इतिहास में पहली बार किसी विशाल लोकतंत्र में किसी भी पार्टी को ऐसी सफलता नहीं मिली। इंदिरा की सुनामी में कांग्रेस ने 49.1 प्रतिशत वोट प्राप्त करते हुए 516 लोकसभा सीटों में 404 सीटें जीतीं और इतिहास रच दिया। राजीव गांधी के नेतृत्व में यह कांग्रेस की अंतिम प्रभावी विजय थी। अटल बिहारी वाजपेयी जैसे कई दिग्गज पराजित हो गए, लेकिन उसके बाद कभी भारतीय राजनीति ने किसी एक दल को बहुमत में आते नहीं देखा।
1989 में बोफोर्स कांड के चलते इस देश की राजनीति में इमरजेंसी के बाद पहली बार एक प्रभावी बदलाव देखने को मिला। जब विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में लगभग 18 दलों ने मिलकर कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा बनाते हुए चुनाव लड़ा। इन चुनावों में बोफोर्स तोप खरीदी में हुआ भ्रष्टाचार एक प्रभावी मुद्दा था। भारतीय जनता पार्टी अयोध्या में कार सेवा के रथ पर सवार होकर सारे देश में लगातार लोकप्रिय हो रही थी, लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह में जनता ने एक परिवर्तनशील लोकप्रिय राजनेता देखा। सारे गैर कांग्रेसी और कांग्रेस से मोहभंग होकर कांग्रेस छोड़ चुके बड़े नेता लामबंद हो गए। विश्वनाथ प्रताप सिंह कभी राजीव गांधी के विश्वासपात्र हुआ करते थे, लेकिन वे अब बागी थे। 525 लोकसभा सीटों के लिए हुए चुनावों में कांग्रेस को भारी पराजय मिली। उसकी सीटें 407 से घटकर 197 पर आ गईं। यद्यपि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी, लेकिन उसने विपक्ष में बैठना स्वीकार किया और विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में भाजपा तथा अन्य दलों के सहयोग से संयुक्त मोर्चा सरकार बनी। 1988 में जनतादल का गठन जनमोर्चा, जनता पार्टी, लोकदल और कांग्रेस एस को मिलाकर किया गया था। बाद में डीएमके, तेदेपा और असम गण परिषद जैसी पार्टियां जनतादल के साथ आईं और संयुक्त मोर्चे का गठन हुआ। इसकी खासियत यह थी कि इसे बाहर से समर्थन देने वालों में भाजपा के अतिरिक्त सीपीआईएम और सीपीआई दोनों शामिल थे। निर्दलीय और छोटे दलों ने 59 सीटें जीतीं। 2 से बढ़कर 85 तक पहुंची भाजपा कांग्रेस के विकल्प के रूप में उभरकर सामने आई। 10वें प्रधानमंत्री वीपी सिंह और उप प्रधानमंत्री देवीलाल के अतिरिक्त सारा मंत्रिमंडल विभिन्न रंगों से रंगा हुआ था। गठबंधन सरकार का यह पहला अनुभव था। इसीलिए ज्यादा कामयाब भी नहीं हुआ। 2 दिसंबर 1989 से लेकर 10 नवंबर 1990 तक वीपी सिंह की सरकार चली, लेकिन जैसे ही लालकृष्ण आडवाणी रामजन्म भूमि और बाबरी मस्जिद के मुद्दे को लेकर रथ यात्रा पर निकले और उनको बिहार में लालू यादव ने गिरफ्तार कर लिया। भाजपा लालू सरकार की बर्खास्तगी चाहती थी, लेकिन वीपी सिंह अपने चेले लालू को हटाने के पक्ष में नहीं थे। लिहाजा भाजपा ने वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया। बाद में विश्वासमत हारने के बाद वीपी सिंह ने अपने पद इस्तीफा दे दिया। इसके बाद जनतादल का विभाजन होकर इस दिल के टुकड़े हजार हुए की तर्ज पर चंद्रशेखर 64 सांसदों को लेकर कांग्रेस के समर्थन से 11वें प्रधानमंत्री बन बैठे और 6 मार्च 1991 को उन्होंने भी इस्तीफा दे दिया। आरोप लगा कि वे राजीव गांधी की जासूसी करवा रहे हैं। यह लंगड़ी सरकार टिक नहीं सकी, लेकिन इसने लंगड़ी सरकारों का दौर चालू कर दिया। 10वीं लोकसभा के लिए मध्यावधि चुनाव के समय कौन-किसके साथ है यह किसी को पता नहीं था। सब दल अलग भाग रहे थे। इसी समय मंडल और कमंडल (राम मंदिर) का मुद्दा लोगों को तोड़ चुका था। क्षेत्रीय ताकतों ने अपना मुकाम बना लिया था। दक्षिण में तो तेलगुदेशम, द्रमुक, अन्ना द्रमुक, जैसी पार्टियां प्रभावी थीं हीं उत्तर में भी राजनीतिक क्षितिज पर समाजवादी पार्टी, बहुजनसमाज पार्टी सहित तमाम क्षेत्रीय दल ताकतवर बन चुके थे। चंद्रशेखर का समाजवादी जनतादल और टुकड़ों में बंटने को तैयार खड़ा था। 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद जनता ने कांग्रेस के प्रति 1984 के समान सहानुभूति नहीं दिखाई और कांग्रेस 3 चरणों में हुए चुनाव के बाद 232 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी और बाद में उपचुनाव जीतकर उसकी संख्या 244 हो गई। इस चुनाव की खास बात यह थी कि नेहरू और गांधी परिवार का कोई भी सदस्य इन चुनावों में सक्रिय नहीं था। दूसरी बार किसी गैर गांधी को कांग्रेस ने प्रधानमंत्री बनाया। 12वें प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने पांच साल अल्पमत में रहकर भाजपा के रहमो-करम से सरकार चलाई। इसके एवज में भाजपा को राम मंदिर आंदोलन के समय पीवी नरसिम्हा राव ने परोक्ष समर्थन दिया, ऐसा कहा जाता है। भाजपा 120 सीट जीतकर प्रमुख विपक्ष की भूमिका में आ चुकी थी। देश में बदलाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था, कांग्रेस की कुनीतियों के कारण क्षेत्रीय दलों ने भारत की राजनीति में अपनी ताकत स्थायी बना ली। पीवी नरसिम्हा राव ने 5 साल सरकार येन-केन तरीके से घसीटा। 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा ढहा दिया गया उस वक्त राव ही प्रधानमंत्री थे। 1995 में अर्जुन सिंह और नारायण दत्त तिवारी ने निजी महत्वाकांक्षाओं के चलते कांग्रेस छोड़कर अपनी खुद की पार्टी गठित कर ली परंतु हर्षद मेहता कांड, जैन हवाला प्रकरण ने भी कांग्रेस की हवा निकाल दी। कांग्रेस का ग्राफ गिरता गया, लेकिन कोई दूसरी पार्टी राष्ट्रीय पटल पर कांग्रेस का विकल्प नहीं बन पाई। 1996 में भारतीय जनता पार्टी ने 161 सीटें जीतीं और वह सबसे बड़ी पार्टी बनी। (1977 में इमरजेंसी के बाद जो सरकार बनी थी वह किसी एक दल की नहीं थी। बल्कि विभिन्न दलों के विभिन्न विचारधाराओं के लोग एक बैनर के तले आकर कांग्रेस से लड़े थे। इस लिहाज से 1996 में पहली बार किसी दल ने कांग्रेस से अधिक सीटें प्राप्त की।) भाजपा 161 सीटों के साथ मात्र 13 दिन तक सरकार बना पाई। भाजपा को ज्यादा समर्थन नहीं मिला। बाद में एक जून 1996 को देवगोड़ा सरकार बनी, जिसे कांग्रेस का बाहरी समर्थन था और छोटे-बड़े कई दल शामिल थे। यह भानुमति का कुनबा भारत पर 18 माह तक शासन करता रहा। 1997 में गोड़ा के स्थान पर इंद्रकुमार गुजराल को कांग्रेस ने कठपुतली प्रधानमंत्री बनाकर सत्ता सौंपी और 1998 तक यह सरकार भी गिर गई। किसी एक दल के हाथ में सत्ता नहीं थी। सरकारें लगातार गिर रहीं थी। गठबंधन की राजनीति का किसी को अनुभव नहीं था। वर्ष 1998 में 11वीं लोकसभा के लिए जब देश तैयार हो रहा था उस समय किसी भी दल को यह आत्मविश्वास नहीं था कि वह बहुमत में आ पाएगा। कांग्रेस में भगदड़ मची हुई थी। सोनिया गांधी मान मनोव्वल के बाद कांग्रेस की बागडोर संभालने के लिए तैयार तो हुईं, लेकिन वे कोई करिश्मा नहीं दिखा सकी। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया और उसकी सीटों की संख्या 182 तक पहुंची। वाजपेयी दूसरी बार प्रधानमंत्री बने, लेकिन मात्र 413 दिनों के लिए। एक वोट से वे विश्वास मत में पराजित हो गए। पहली बार वाजपेयी छोटे-बड़े लगभग 24 दलों को जोडऩे में कामयाब रहे, लेकिन इस कामयाबी में भारतीय लोकतंत्र का बहुत अहित हुआ। कई समझौते करने पड़े और दलों की मांग के आगे केंद्र सरकार हमेशा झुकी रही। जयललिता ने जब वाजपेयी सरकार से समर्थन वापस लिया उस समय बैसाखी पर टिकी सरकार का दयनीय चेहरा देखा जा सकता था। जयललिता की मांग थी कि तमिलनाडु सरकार को बर्खास्त किया जाए, लेकिन यह संभव नहीं था। जयललिता के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप चल रहे थे। इसीलिए वे तिलमिला रही थीं। 1999 में फिर चुनाव हुए 40 माह के भीतर तीसरी सरकार बनने जा रही थी। इस बीच 1998 में शरद पवार, सोनिया गांधी का विरोध करके कांग्रेस से बाहर जा चुके थे और एनसीपी का गठन करने में कामयाब रहे। सोनिया का विदेशी मूल का मुद्दा छाया रहा, लेकिन वाजपेयी के प्रति जनता की सहानुभूति भी थी। इन चुनावों में एनडीए को 298 सीटें मिलीं। जबकि कांग्रेस 136 पर सिमट गई। भाजपा दूसरी बार सबसे बड़ी पार्टी बनी। सुकून इस बात का रहा कि लगभग पांच साल तक वाजपेयी शासन चलाने में कामयाब रहे। 2004 में प्रमोद महाजन के कहने पर फीलगुड के फेर में वाजपेयी सरकार धराशायी हो गई। वाजपेयी और सोनिया गांधी का चेहरा इन चुनावों में प्रमुख था। वाजपेयी सरकार ने अच्छा काम किया था। परमाणु परीक्षण से लेकर कारगिल में विजय तक, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं मिला। 2004 में भाजपा और उसके सहयोगियों को बहुमत नहीं मिल पाया। एनडीए बुरी तरह धराशायी हो गया। इस तरह यूपीए अस्तित्व में आया। खासियत यह थी कि कांग्रेस मात्र 141 सीटें लेने के बावजूद पांच साल तक सरकार चलाने में कामयाब रही। परमाणु समझौते के समय वामपंथियों को छोड़कर किसी ने भी कांग्रेस को डिगाने की कोशिश नहीं की। तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी ने यूपीए-2 के समय एक छोटे से मुद्दे पर समर्थन वापस ले लिया था, लेकिन कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि कांग्रेस का अनुभव गठबंधन सरकार चलाने में भाजपा से बेहतर है। भाजपा ने पहली बार 13 दिन, दूसरी बार 413 दिन और तीसरी बार लगभग साढ़े चार वर्ष से अधिक गठबंधन सरकार चलाई, लेकिन कांग्रेस ने लगातार एक दशक तक अनवरत सरकार चलाई है। गठबंधन सरकारें इस देश का सत्य बन चुकी हैं। पिछले 30 वर्षों से लगातार गठबंधन सरकारें ही आ रही हैं। भारतीय संविधान में सभी दलों को चाहे वे क्षेत्रीय हों या राष्ट्रीय लोकसभा में अपना प्रतिनिधि भेजने का हक है। अनगिनत दल और निर्दलीय चुनावी प्रक्रिया में भाग ले सकते हैं। इसकी कोई सीमा नहीं है। दो दलीय शासन व्यवस्था न होने के कारण सदैव अल्पमत सरकारों का खतरा बना रहता है और तीन दशक से यह एक कड़वी सच्चाई बन चुका है। आज भी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी को 272 सीटें मिलेंगी इसकी कोई गारंटी नहीं है। इसी कारण गठबंधन सरकार चाहे भाजपा हो या कांग्रेस दोनों की मजबूरी है।
सीट कहां से लाएगी भाजपा
भाजपा को 2009 के चुनाव में मात्र 112 सीटें मिल पाईं थी। जिन राज्यों में उसकी पकड़ है वहां उसका प्रदर्शन ठीक-ठाक ही रहा, लेकिन नए राज्य तलाशने में भाजपा सफल नहीं हो सकी। लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में 1996 के बाद पहली बार भाजपा का ग्राफ इतना गिरा। यह गिरावट बाद में विधानसभा चुनाव में भी देखने को मिली। कई राज्य भाजपा के हाथ से निकल गए। पिछले दो चुनावों में राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को वोटरों ने नकार दिया था। इस बार भाजपा की स्वीकार्यता बढ़ती दिखाई दे रही है पर सवाल यह है कि भाजपा को सीटें कहां से मिलेंगी। मध्यप्रदेश, गुजरात, राजस्थान जैसे तीन प्रदेशों में भाजपा को मजबूत कहा जा सकता है, लेकिन यहां भी कुल जमा 80 सीटें हैं जिनमें से भाजपा 65 से अधिक जीतने की स्थिति में नहीं है। मध्यप्रदेश में 21 सीटें और गुजरात में 20 सीटें जीतने के बाद 24 सीटें राजस्थान से मिल जाएंगी यह एक बड़ा प्रश्न है। इसी प्रकार उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाजपार्टी, कांग्रेस जैसे बड़े दलों की मौजूदगी में भाजपा को 35 सीटें मिल जाएं वही बहुत है। बिहार में भाजपा का प्रदर्शन ठीक-ठाक रहा तो 20-22 सीटें मिलेंगी। अन्य प्रदेशों में कर्नाटक से 13-14 सीटें आ सकती हैं। बाकी देश के बहुत से हिस्सों में भाजपा की मौजूदगी मोदी लहर के बावजूद उतनी प्रभावी नहीं है। ऐसी स्थिति में 170 से 175 के बीच भाजपा का आंकड़ा पहुंचना आश्चर्यजनक ही कहा जाएगा, लेकिन यह भी मानें कि भाजपा अटल बिहारी वाजपेयी के समय के प्रदर्शन की बराबरी कर लेगी तब भी उसको सरकार बनाने के लिए लगभग 90 सीटों की जरूरत पड़ेगी। जहां तक भाजपा के सहयोगियों का प्रश्न है तेदेपा, शिवसेना, अकाली दल, लोकजन शक्ति पार्टी और तमिलनाडु की 4-5 छोटी पार्टियां फिलहाल भाजपा से जुड़ी हैं। पूर्वोत्तर में संगमा ने भाजपा का साथ दिया है। इन सारे सहयोगियों की संख्या बमुश्किल 40 तक पहुंचेगी। इसका अर्थ यह है कि बाकी 50 सीटें गठबंधन के बाहर से ही तलाशनी होंगी। मोदी की स्वीकार्यता गठबंधन के बाहर न के बराबर है। बीजू जनता दल, जगन मोहन रेड्डी और जयललिता वक्त पडऩे पर मोदी का साथ दे सकते हैं। मायावती निजी स्वार्थ के चलते अंतिम समय में विश्वास मत से गैर हाजिर रहकर भाजपा को परोक्ष समर्थन दे सकती हैं। ममता बनर्जी ने मुस्लिम नेताओं से वादा किया है कि वे एनडीए के साथ नहीं जाएंगी। यह वादा तोडऩा ममता को महंगा पड़ेगा। इसके अतिरिक्त बाकी दलों में मोदी के करीब आने की संभावना बहुत कम है। निर्दलीय और छोटे-मोटे दल 10-15 की संख्या में जुड़ सकते हैं, लेकिन इस गठजोड़ के लिए बहुत समझौते करने पड़ेंगे जो कि मोदी जैसे नेता के लिए शायद संभव न हो। मोदी भाजपा को सत्ता के करीब तो पहुंचा सकते हैं, लेकिन खुद सत्ता पर काबिज हो पाएंगे इसमें संदेह ही हैं। दूसरी बात यह है कि नरेंद्र मोदी इंदिरा गांधी के बाद पहले शख्स हैं जो सही मायने में बगैर दबाव के काम करेंगे और जिस तरह उन्होंने गुजरात में शंकर सिंह बघेला, केशुभाई पटेल, हरेन पंडया जैसे विरोधियों को ठिकाने लगाया है उसी तर्ज पर वे विभिन्न दलों के दागी नेताओं को आगामी पांच वर्षों के भीतर ठिकाने लगाने की काबिलियत रखते हैं। यह डर सभी के भीतर गहरे तक बैठा हुआ है। इसीलिए सभी राजनीतिक दल भरसक कोशिश कर रहे हैं कि मोदी चुनाव न जीत सकें। कांग्रेस दहाई के अंक तक सिमटने वाली थी, लेकिन अब उसका ग्राफ थोड़ा सा ऊपर चढ़ा है और यदि कांग्रेस 140 से ऊपर सीटें लाने में कामयाब हो जाती है तो बाकी सारे दल जिनमें वामपंथी भी शामिल हैं कांग्रेस के बैनर तले एकत्र हो सकते हैं। यह एकत्रीकरण धर्मनिरपेक्षता के नाम पर होगा। इसीलिए मोदी की राह चुनाव के बाद भी आसान नहीं होगी। भाजपा को मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए 200 से अधिक सीटें जीतनी होंगी। अन्यथा भाजपा के भीतर से ही सुषमा, आडवाणी या फिर स्वयं राजनाथ के रूप में कोई धर्मनिरपेक्ष चेहरा प्रकट हो जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
गठबंधन के महारथी
सबसे पहले वीपी सिंह ने चार दलों को मिलाकर संयुक्त मोर्चा बनाया और भाजपा वामदलों के बाहरी समर्थन से सरकार चलाई। इसके बाद चंद्रशेखर कांग्रेस की बैसाखियों पर टिक गए। नरसिम्हा राव भाजपा की मेहरबानी से झारखंड मुक्ति मोर्चा के गुरुजी जैसे लोगों को खरीदकर पांच साल सरकार चलाने में कामयाब रहे। देवेगोड़ा और आईके गुजराल कांग्रेस की मेहरबानी पर कुछ दिन प्रधानमंत्री बनने में कामयाब रहे। अटल बिहारी वाजपेयी ने 13, 413 दिन और फिर साढ़े चार साल सरकार चलाई, लेकिन मनमोहन सिंह पिछले एक दशक से गठबंधन सरकार चलाने वाले सर्वाधिक सफल राजनेता बने।