भोजशाला पर भाजपा की दुविधा
16-Feb-2013 11:45 AM 1234996

भारतीय जनता पार्टी में वैचारिक लावा खदबदा रहा है। ऐसा लगता है कि हिंदुत्व और धर्मनिरपेक्षता की दो कठोर चट्टानों के बीच का उबाल किसी विस्फोट की तैयारी में है। धार की भोजशाला का

मुद्दा अनायास ही संवेदनशील नहीं हुआ है। इससे पहले शुक्रवार को कई बार बसंत पंचमी पड़ी है और प्रशासन ने अपनी सूझ-बूझ से मामले को निपटाया भी है। लेकिन इस बार वसंत का आगमन भाजपा में बुढ़ाते हिंदुत्व को नई जवानी दे गया और हिंदुत्व के मुद्दे को नकारने वाले नेताओं को संघ सहित तमाम हिंदुत्ववादी ताकतों से यह नसीहत मिली कि हिंदुत्व की और लौटने में ही भलाई है क्योंकि पार्टी अब तक हिंदुत्व की ही खाती आई है। लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं है। हिदुत्व और धर्मनिरपेक्षता के बीच भारतीय जनता पार्टी में भारी कश्मकश और उथल-पुथल का दौर चल रहा है। 80 दिनों के भीतर पहले कसाब और उसके बाद अफजल गुरु की फांसी ने भाजपा में सन्नाटा पैदा किया है। इस सन्नाटे की एक झलक मध्यप्रदेश में कार्यसमिति के दौरान भी देखने को मिली जब अफजल गुरु के मामले पर कोई प्रमुख नेता बोलने को तैयार नहीं था। कहीं से कोई आवाज आई भी तो उसे दबा दिया गया या फिर चर्चा वहीं रोक दी गई। हिंदुत्व से लेकर राम मंदिर, धारा 370, अफजल गुरु और कसाब की फांसी, समान नागरिक संहिता, रामसेतु तथा अब भोजशाला जैसे मुद्दों पर राजनीति करने वाली भाजपा अचानक अपनी आक्रामकता से भटक क्यों रही है यह शोध का विषय हो सकता है। शिवराज सिंह ने तो भोपाल में दलबल के साथ ईदगाह मैदान पहुंचकर कुछ समय पहले ही पार्टी की रीति-नीति का संकेत दे दिया था। लेकिन उमाभारती जो प्रखर हिंदुत्व की स्वयंभू प्रवक्ता हैं, ने जब यह बयान दिया कि दोनों समुदाय चाहे तो शांतिपूर्वक नमाज भी हो सकती है और पूजा भी, तो यह लगा कि पार्टी कहीं न कहीं अंतरद्वंद्ध के भ्रमजाल में फंसी हुई है और यह अंतरद्वंद्व हिंदुत्व बनाम धर्मनिरपेक्षता का ही है।
भारतीय जनता पार्टी ने राम मंदिर की आग देश में जलाकर अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को परवान चढ़ाया था किंतु राम मंदिर मुद्दा अब उतना प्रभावी नहीं रहा। विशेष न्यायालय के फैसले के बाद करीब-करीब यह मुद्दा अपने अंजाम तक पहुंचने की कगार पर है। बल्कि यह कहा जाए कि कांग्रेस जब चाहे तब इस मुद्दे का समाधान कर सकती है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। भीतरी सूत्र तो यह तक बताते हैं कि पिछड़ों के आरक्षण में अल्पसंख्यकों की हिस्सेदारी का कांग्रेसी पैतरा दरअसल मंदिर मुद्दे पर व्यापक सहमति बनाने के लिए उठाया गया कदम था। किंतु कुछ मुस्लिम नेताओं की जिद और सलमान खुर्शीद की जल्दबाजी के कारण कांग्रेस की यह मंशा परवान नहीं चढ़ पाई। पर अब राहुल गांधी की ताजपोशी के बाद अपनी खोई जमीन को वापस पाने के लिए कांग्रेस राम मंदिर मुद्दे के प्रभावी समाधान के लिए मुस्लिमों को राजी करने का जोखिम उठा सकती है। ऐसी सूरत में भाजपा मुद्दा विहीन तो हो ही जाएगी राम के नाम पर राजनीति करने का उसका मकसद भी जनता के सामने स्पष्ट हो जाएगा। इसीलिए बहुत सोच-विचार के बाद धार भोजशाला के मुद्दे को केंद्र में लाया जा रहा है। वैसे तो हिंदुवादी संगठनों ने देश में तीन हजार ऐसे स्थल चिन्हित कर रखे हैं जो उनके अनुसार हिंदु धार्मिक स्थल थे किंतु उन्हें मस्जिदों या इबादतगाहों में बल पूर्वक तब्दील कर दिया गया। किंतु इनमें अयोध्या का राम मंदिर, ज्ञान वापी मस्जिद (आलमगिरी मस्जिद-काशी विश्वनाथ मंदिर के समक्ष) जिसे औरंगजेब ने मंदिर के ध्वंशावशेषों पर बनवाया था तथा कृष्ण जन्मभूमि और अब धार की भोजशाला को मुक्त कराने का संकल्प हिंदुत्ववादी ताकतें उठाती रही हैं। इसमें भारतीय जनता पार्टी स्वाभाविक रूप से सहयोगी बनी रही और भाजपा के बहुत से नेताओं ने इन्हीं मुद्दों की लगातार राजनीति की। किंतु लगता है अब ये मुद्दे भाजपा की प्राथमिकता की सूची में नहीं हैं। भाजपा का एक वर्ग इन विवादास्पद मुद्दों से आगे पार्टी को ले जाने के लिए पुरजोर कोशिश कर रहा है। इस वर्ग का मानना है कि इन विवादास्पद मुद्दों के साथ सत्तासीन होना आसान नहीं है। खासकर देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय की उपेक्षा करते हुए। यही कारण है कि जब कुंभ के दौरान संत सम्मेलन में मोदी को हिंदुत्व का प्रतीक बताते हुए हिंदुत्व पर लौटकर आगामी लोकसभा चुनाव में जाने की बात उठी तो पार्टी के भीतर अंतरविरोध उभरकर सामने आ गए। स्वयं मोदी अब कट्टर हिंदुत्ववादी छवि से बाहर निकलना चाहते हैं। इसकी झलक उस समय ही देखने को मिल गई थी जब उत्तरप्रदेश चुनाव के समय मोदी ने साफ कर दिया था कि वे चुनावी सभाओं में सिर्फ विकास की बात करेंगे। विवादास्पद हिंदुत्ववादी मुद्दों को हाथ नहीं लगाएंगे। मोदी अपने उस रुख पर कायम हैं दिल्ली में मोदी ने श्रीराम कॉलेज में जिस अंदाज में बात की उससे साफ जाहिर है कि वे गुजरात दंगों की छाया से निकलना चाहते हैं और इसी कारण हिंदुत्व के पैराकार की छवि उन्हें सूट नहीं कर रही है। यूरोपियन संघ ने भी मोदी की स्वीकारोक्ति विकास पुरुष के रूप में की है। हिंदुत्व के पुरोधा के रूप में नहीं। यही हाल भारतीय जनता पार्टी के तमाम नेताओं का है जिनका कद राष्ट्रीय हो चुका है और जो राष्ट्र की राजनीति में निर्विवाद रूप से स्थापित होने के लिए प्रयासरत हैं। इनमें मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का नाम भी प्रमुखता से लिया जाता है जिनके बारे में यह कहा जाने लगा है कि वे अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि के प्रति कुछ ज्यादा ही सचेत हैं। इसके प्रमाण राम मंदिर फैसले के वक्त प्रदेश में अतिरिक्त सतर्कता तथा लगभग कफ्र्यू जैसी स्थिति निर्मित करने से लेकर वर्ष 2006 में वसंत पंचमी के दिन धार की भोजशाला में पूजन और नमाज सफलता पूर्वक आयोजित कराने में देखे जा सकते हैं। स्वयं मोदी अब मुसलमानों के बीच अपनी छवि को तराश रहे हैं। हाल ही में गुजरात के जाम नगर की सलाया नगर पालिका में 27 में से 24 सीटों पर जब भारतीय जनता पार्टी के मुस्लिम प्रत्याशियों ने विजय हासिल की तो इसे भी मोदी के धर्मनिरपेक्ष अभियान से जोड़कर देखा गया। कहने को तो यह एक मामूली सी जनसंख्या वाली नगर पालिका है, लेकिन मोदी की हिंदुत्ववादी छवि को विकासवादी छवि में बदलने की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम कहा जा सकता है। हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनाव के दौरान भी मोदी के मुखमंडल से राम मंदिर सहित तमाम विवादास्पद विषय सुनने को नहीं मिले। उनकी चुनावी रणनीति विकास केंद्रित थी और अब उसी को लेकर वे आगे भी बढ़ रहे हैं। ऐसे में हिंदुत्व का मुद्दा भाजपा के लिए भारी कश्मकश वाला मुद्दा साबित हो रहा है। यद्यपि अशोक सिंघल से लेकर राजनाथ सिंह और स्वयं संघ के प्रमुख मोहन भागवत मोदी को एक काबिल हिंदुवादी नेता मानते हैं। किंतु मोदी हिंदुत्व पर लौटने को मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं। उनकी छवि गढऩे वाली पीआर कंपनी भी मोदी बनाम विकास के मुद्दे को आगे बढ़ाती रही है और इसमें उसे बेतहाशा सफलता भी मिली है। धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने वाले नीतिश की सभाओं में जहां चप्पलें, कुर्सियां, मेजें उछलती हैं वही मोदी मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में अपनी पहचान स्थापित करने में कामयाब रहते हैं। इसी कारण भाजपा को इस सूत्र पर लगातार मंथन करना पड़ रहा है कि धर्मनिरपेक्षता जिसका दूसरा अर्थ मुस्लिमों की अवांछित पैरोकारी ही हो चुका है, के मुकाबले हिंदुत्व को स्थापित किया जाए या मोदी वादी विकास को। सूत्र यह बताते हैं कि धर्मनिरपेक्षता की काट मोदी का विकास का फार्मूला हो सकता है। इसी कारण मध्यप्रदेश में अब सरकार ने भी विवादास्पद मुद्दों को हल करने का प्रयास शुरू कर दिया है। हालांकि भोजशाला को लेकर भाजपा की अंदरूनी राजनीति ठीक-ठाक नहीं चल रही है। धर्म गुरु भी शिवराज के रवैये से खुश नहीं दिखाई देते हैं, लेकिन शिवराज अपने दामन पर किसी प्रकार का दांव नहीं लगने देना चाहते है। खबर तो यहां तक है कि शिवराज ने आलाकमान सहित तमाम बड़े नेताओं को स्पष्ट शब्दों में कह दिया है कि वे इस मुद्दे पर ज्यादा विवाद के पक्ष में नहीं हैं और न ही हिंदु-मुस्लिम तनाव होते देखने चाहते हैं।
किंतु बसंत पंचमी के करीब आते ही भोजशाला विवाद हमेशा गर्माने लगता है। खासकर शुक्रवार के दिन बसंत पंचमी आने से। भोजशाला परिसर में पूजा और नमाज की अनुमति मिलने के बाद यह तीसरी बार था, जब शुक्रवार के दिन बसंत पंचमी पड़ी। 2003 और 2006 की घटनाओं से सबक लेते हुए प्रशासन ने इस बार तनाव टालने के लिए काफी पहले से तैयारी कर ली थी। हालांकि कुछ दिन पहले ही हिंदुवादी संगठनों के कार्यकर्ताओं ने परिसर में लगाए जा रहे बैरिकेड्स और जालियां तोड़कर भविष्य में होने वाले तनाव के संकेत दे दिए थे। इंदौर में हुई हिन्दू जागरण मंच की बैठक में भी कार्यकर्ताओं व पदाधिकारियों ने दिनभर पूजा करने और मुसलमानों को भोजशाला से दूर रहने की चेतावनी दे दी थी। लगातार बढ़ते तनाव और हिंसा के डर से आसपास के रहवासी कुछ दिनों के लिए घरों पर ताले डालकर चले गए। भोजशाला का विवाद इलाहाबाद में चल रहे कुंभ में भी चर्चित रहा। कैलाश विजयवर्गीय से लेकर लक्ष्मीकांत शर्मा तक साधु-संतों के चक्कर लगाते देखे गए। संत समुदाय ने बसंत पंचमी के दिन भोजशाला में नमाज पढऩे की अनुमति देने पर कुंभ छोड़कर धार कूच करने की चेतावनी देकर सरकार को परेशानी में डाल दिया था। हालांकि तस्वीर का दूसरा पहलू कहता है कि सरकार चाहे किसी की रही हो सभी ने अपने-अपने सियासी मकसद हल करने के लिए भोजशाला को हमेशा ही हथियार बनाया है। भोजशाला भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीन है। 12 मई 1997 को दिग्विजय सिंह ने भोजशाला हिन्दुओं के लिए प्रतिबंधित की और नमाज की अनुमति दे दी। 2001 में वसंतोत्सव की पूजा पर प्रतिबंध लगाया गया। 18 से 20 फरवरी 2003 को भी तनाव रहा। 8 अप्रैल 2003 को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने प्रति मंगलवार को हिन्दुओं के लिए फूल-अक्षत लेकर सूर्योदय से सूर्यास्त तक नि:शुल्क प्रवेश, बसंत पंचमी पर हिन्दू, शुक्रवार को मुस्लिम समाज को नमाज की अनुमति दे दी। यही विवाद की जड़ है। जब-जब शुक्रवार को बसंत पंचमी आती है, तनाव होता है।
आंसु गैस फायरिंग के बीच नमाज
शुक्रवार 15 फरवरी को एक बार फिर शिवराज सरकार अग्नि परीक्षा से गुजरी और एएसआई के निर्देशानुसार एक से तीन बजे तक नमाज तथा शेष समय में पूजा संपन्न की गई। कड़ी सुरक्षा के बीच मुस्लिम जनों को दूसरे गेट से भोजशाला परिसर में लाकर नमाज पढ़वाई गई। इस दौरान प्रशासन विरोधी नारे लगे। भारी तनाव के बीच नमाज पढ़ी गई। भोजशाला उत्सव समिति के जुलूस को पुलिस ने 10 किलोमीटर पहले ही रोक दिया था और शंकराचार्य नरेंद्रानंद सरस्वती को धार की बजाए ओंकारेश्वर रवाना कर दिया गया था। कफ्र्यू जैसे हालात के बीच वसंत पंचमी भले ही उतनी हिंसक न बीती हो किंतु इसमें यदि मुस्लिम समुदाय के कुछ नेतागण वसंत पंचमी के दिन ही नमाज पढऩे की जिद छोड़ देते तो शायद हालात इतने न बिगड़ते और सरकार को भी राहत बनी रहती। पुलिस ने आंसु गैस के गोले छोड़े, लाठियां बरसाई और हवाई फायरिंग भी की। इससे पूर्व 3 फरवरी 2006 को शुक्रवार और वसंत पंचमी दोनों ही थे। दोपहर 12 बजे तक सब ठीक चल रहा था। लेकिन अचानक प्रभारी मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने कहा कि मुस्लिम जनों को नमाज अदा करवाना है। भोजशाला खाली कर दी जाए। उनके इस प्रस्ताव पर संघ नेता भी आसानी से राजी हो गए और ताबड़तोड़ भोजशाला खाली करवाई जाने लगी। दोपहर एक से तीन बजे तक नमाज अदा करवाई गई। इधर, विरोध कर रहे हिंदुओं पर अब पुलिस की लाठियां बरसाना शुरू हो चुकी थीं। पूरे षड्यंत्र में मुख्य दोषी कैलाश विजयवर्गीय ही थे। उन्होंने हिंदुओं को दोपहर 12 बजे तक नमाज अदा कराने की कोई सूचना नहीं दी थी। मामला इतने में ही नहीं रुका। शाम को विजयवर्गीय मुस्लिम जनों के पास गए और अपना वादा पूरा करने की बात कही। इस पर धार शहर काजी ने सार्वजनिक रूप से उनका आभार मानते हुए उन्हें हार पहनाया। 
भोजशाला परिसर का सूक्ष्म निरीक्षण करें तो यह तथ्य सामने आता है कि भोजशाला प्रांगण के बाहर ठीक बगल में जो मस्जिद निर्मित की गई उसे निर्मित करने के पीछे एक विशेष मकसद था। भोजशाला के भीतर भी जिस तरह नमाज का आयोजन हुआ और भीतर के हिस्से को भी विवादास्पद बनाया गया वह भी एक विशेष लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए किया गया। देखा जाए तो भोजशाला के खंभों में, प्रखंडों में, प्रकोष्ठों में इसके हिंदु वास्तु, शिल्प और मूर्तिकला के सबूत  स्पष्ट दिखाई देते हैं। बहुत से पुरातत्व वेत्ता भी इस तथ्य से सहमत हैं कि यह एक हिंदु धर्म स्थान है जिस पर बाद में कब्जा किया गया है। किंतु दोनों समुदायों के बीच अभी भी इस महत्वपूर्ण मसले पर सहमति नहीं बन पाई है। राम मंदिर मुद्दा नेपथ्य में चला गया है। अदालत ने उस पर एक फैसला सुना दिया है फैसले को देखा जाए तो अदालत के रुख का अंदाजा हो सकता है कि अदालत विवादास्पद ढांचे को हिंदुओं के पूज्य पुरुष राम के जन्म स्थान के रूप में स्वीकार कर चुकी है। किंतु साथ ही अदालत ने एक तिहाई हिस्से पर मुस्लिमों का भी आधिपत्य स्वीकार किया है। मूल रूप से अदालत का यह फैसला इस बात के पक्ष में है कि वहां राम मंदिर ऐतिहासिक रूप से मौजूद था जिसे ध्वस्त कर बाद में मस्जिद बनाई गई। इसी कारण मुस्लिमों का भी एक बड़ा समुदाय दबे रूप में अब यह स्वीकार करने लगा है कि अयोध्या विवाद को ज्यादा खींचने की बजाय इसका बातचीत से हल निकालते हुए समाधान कर देना चाहिए। यदि तकनीकी रूप से और व्यावहारिक रूप से भी देखा जाए तो विशेष अदालत के फैसले के बाद इस विवाद में अब ज्यादा दम नहीं बची है। इसी कारण विवादों की राजनीति करने वालों को धार की भोजशाला एक बड़ा मुद्दा दिखाई दे रहा है।

 

कब क्या हुआ

धार स्थित भोजशाला पर 1995 में मामूली विवाद हुआ। मंगलवार को पूजा और शुक्रवार को नमाज पढऩे की अनुमति दी गई।
12 मई 1997 को कलेक्टर ने भोजशाला में आम लोगों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाया। मंगलवार की पूजा रोक दी गई। हिन्दुओं को बसंत पंचमी पर और मुसलमानों को शुक्रवार को 1 से 3 बजे तक नमाज पढऩे की अनुमति दी गई। प्रतिबंध 31 जुलाई 1997 तक रहा।
6 फरवरी 1998 को केंद्रीय पुरातत्व विभाग ने आगामी आदेश तक प्रवेश पर प्रतिबंध लगाया। 2003 में मंगलवार को फिर से पूजा करने की अनुमति दी गई। बगैर फूल-माला के पूजा करने के लिए कहा गया। पर्यटकों के लिए भी भोजशाला को खोला गया।
18 फरवरी 2003 को भोजशाला परिसर में सांप्रदायिक तनाव के बाद हिंसा फैली। पूरे शहर में दंगा हुआ। राज्य में कांग्रेस और केंद्र में भाजपा सरकार थी। केंद्र सरकार ने तीन सांसदों की कमेटी बनाकर जांच कराई। कमेटी में तत्कालीन सांसद शिवराज सिंह, एसएस अहलूवालिया और बलबीर पुंज शामिल थे। तीनों ने धार के हिन्दुओं से भेंट की और बयान दे डाले।

 

कुंभ में भी राजनीति
भोजशाला मुद्दे पर कुंभ में भी काफी व्यापक चर्चा हुई। जिसका सार यही था कि किसी तरह मध्यप्रदेश सरकार को कोई ठोस कदम उठाने के लिए बाध्य किया जाए, लेकिन सरकार कानून के खिलाफ भला कैसे जा सकती है। यह भी बड़े आश्चर्यजनक संयोग की बात है कि भारतीय राजनीति में कुछ दूरगामी घटनाएं कुंभ के दौरान ही घटी। राहुल, राजनाथ की ताजपोशी, शिंदे का विवादास्पद भगवा आतंकवाद संबंधी बयान और अब अफजल गुरु की फांसी। इन सबसे अलग किंतु महत्वपूर्ण नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की मांग। इन सारी घटनाओं में कहीं न कहीं अंतरसंबंध है। सारी घटनाएं एक-दूसरे से अलग होते हुए भी अलग नहीं है। कांग्रेस ने जब आगामी सत्ता के दावेदार के रूप में राहुल गांधी का नाम आगे बढ़ाया तो यह यक्ष प्रश्न सामने था कि राहुल गांधी की जीत सुनिश्चित कैसे की जाएगी। खासकर मोदी जैसे संभावित उम्मीदवार के सामने। इसीलिए भगवा आतंकवाद कांग्रेस के चिंतन शिविर से निकलकर देश के हिंदुत्ववादी तबके के कानों तक पहुंचा और उसकी अनुगूंज सारे देश में सुनाई दी। किंतु जब अफजल को फांसी पर लटकाया गया तो भगवा आतंकवाद बनाम इस्लामी आतंकवाद का मुद्दा एक तरफ पड़ा नजर आया। उधर इस मुद्दे के केंद्र में रहे नरेंद्र मोदी को मजबूरी में कहना पड़ा कि देर आयद दुरुस्त आयद। मोदी की यह टिप्पणी अफजल गुरु की फांसी के संबंध में थी पर इसमें कहीं न कहीं हिंदुत्व के मुद्दे को पीछे धकेले जाने की टीस भी थी। मोदी हिंदुत्व के स्वयंभू नेता बन चुके है और उनको व्यापक समर्थन भी मिल रहा है, लेकिन मोदी का हिंदुत्व विकास की पैकेजिंग में सामने आ रहा है। यह एक ऐसा मंत्र है जिसकी काट ढूंढना कांग्रेस के लिए आवश्यक है पर कुंभ में जब दो दिवसीय धर्म संसद एवं संत महासम्मेलन के दौरान देश की राजनीति पर चिंता जताई गई तो यह साफ समझ में आया कि मोदी की ताजपोशी से लेकर राहुल के नंबर दो बनने तक सारे घटनाक्रम पर इस देश के सबसे बड़े हिंदु समुदाय के धार्मिक गुरु और संत नजर रखे हुए हैं। किंतु कांग्रेस ने सत्ता की भागीरथी में राहुल की डुबकी के सारे इंतजाम अभी से प्रारंभ कर दिए हैं। वीरप्पन के साथियों को किसी भी दिन फांसी हो सकती है। बेअंत सिंह का हत्यारा रजुआणा भी अब निर्भीक नहीं है। उधर धारा 370 जैसे मुद्दों पर भाजपा भी फिलहाल खामोश है। जहां तक समान नागरिक संहिता का प्रश्न है सुप्रीम कोर्ट और देश की अदालतों के फैसलों की मार्फत इसकी बैकडोर एंट्री हो चुकी है लिहाजा यह मुद्दा भी उतना प्रभावी नहीं रहा। रामसेतु पर कुंभ में कोई चर्चा नहीं हुई क्योंकि दक्षिण के साधु संत इस पर ज्यादा वाद-विवाद नहीं करना चाहते। भाजपा भी तमिलनाडु में अपना जनाधार बढ़ाने के प्रयास में है। लिहाजा वह रामसेतु पर ज्यादा मुखर नहीं है।

FIRST NAME LAST NAME MOBILE with Country Code EMAIL
SUBJECT/QUESTION/MESSAGE
© 2025 - All Rights Reserved - Akshnews | Hosted by SysNano Infotech | Version Yellow Loop 24.12.01 | Structured Data Test | ^