04-Feb-2013 10:52 AM
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भारतीय जनता पार्टी में हवा का रुख भांपे बगैर हवाबाजी शुरू हो गई है। प्रधानमंत्री पद का महासंग्राम चुनावी मैदान में नहीं पार्टी के अपने अखाड़े में लड़ा जा रहा है। यशवंत सिन्हा, राम जेठमलानी से लेकर अरुण जेटली, सीपी ठाकुर समेत कई नेता अब यह जोर-शोर से कहने लगे हैं कि नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाए। उधर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी नरेंद्र मोदी के नाम पर मौन स्वीकृति दे दी है। किंतु भाजपा के भीतर मौन स्वीकृति और मुखर तरफदारी के बीच कश्मकश में अब सहयोगी दलों के कूदने से प्रधानमंत्री का यह भीतरी घमासानÓ बड़ा रोचक हो गया है और इस भीतरी घमासान के बाहरी सूत्रधार हंै शिवसेना, जनतादल यूनाइटेड तथा अकाली दल। अकाली दल जहां मोदी को प्रधानमंत्री बनाए जाने पर राजी होने के संकेत दे चुका है तो शिवसेना ने खुलकर सुषमा स्वराज की पैरवी की है और उधर जनता दल यूनाइटेड ने भी संकेत दे दिया है कि सुषमा स्वराज उनकी पसंद है। चुनाव कभी भी हो सकते हैं। यह भाजपा बखूबी जानती है। सीबीआई की मेहरबानी से साधे गए मुलायम, माया और करुणानिधि कब पाला बदल लें कहा नहीं जा सकता। लिहाजा भारतीय जनता पार्टी का एक वर्ग प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी को लेकर छायी धुंध को साफ करने में जुट गया है। राहुल गांधी की कांग्रेस में नंबर दो के रूप में ताजपोशी के बाद धुंध हटाने की यह प्रक्रिया और तेज हुई है, लेकिन इस प्रक्रिया में बहुत कुछ ऐसा है जो धुंधला रहा है और इस अस्पष्टता में यशवंत सिन्हा जैसे नेता विवादों की आहूतियां देने से पीछे नहीं हट रहे हैं। एक टीवी चैनल पर जब यशवंत सिन्हा ने नरेंद्र मोदी की पुरजोर पैरवी की तो साथ ही अपना नाम भी आगे बढ़ाते हुए यह कहने से नहीं चूके कि प्रधानमंत्री बनने के योग्य तो वे भी हैं पर उनका जनाधार नहीं है। सिन्हा की यह टिप्पणी परोक्ष रूप से सुषमा स्वराज पर लक्षित थी। जिनके समक्ष जनाधार का प्रश्न यक्ष प्रश्न बनकर खड़ा हुआ है, लेकिन इस सारी कवायद में नेपथ्य में धकेल दिए गए लालकृष्ण आडवाणी को भूलने की गलती की जा रही है। पर वे शांत नहीं हैं भीतर ही भीतर आडवाणी शतरंजी चालें चल रहे हैं और यह शतरंजी चालें कहीं न कहीं उन हालातों की तरफ ले जा सकती हैं जहां चौतरफा घमासान के दौर में कम्प्रोमाइज केंडीडेट के रूप में आडवाणी प्रकट हो सकते हैं। कहने वालों का तो यह भी कहना है कि नितिन गडकरी की विदाई में आडवाणी का बहुत बड़ा हाथ है। जब जेठमलानी गडकरी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद बौखला गए थे तो उन्हें ढांढस बंधाने वाले आडवाणी ही थे जिन्होंने जेठमलानी को खुलकर तो नहीं लेकिन बातों ही बातों में यह संकेत दे दिया था कि नाराज होने की आवश्यकता नहीं है तुम जैसा चाह रहे हो वैसा ही होगा और वैसा ही हुआ। रातों-रात परिस्थितियां बदल गईं जो हालात 2005 में आडवाणी को भाजपा की राजनीति में पीछे धकेलने के लिए जिम्मेदार थे कुछ वैसे ही हालातों ने गडकरी को रातों-रात अध्यक्ष पद से रुखसत करा दिया। यह रुखसतगी अनायास थी या सुनियोजित यह कहना तो मुश्किल है किंतु दोबारा अध्यक्ष न चुने जाने के बाद गडकरी ने आयकर अधिकारियों के प्रति जो रवैया अपनाया और उन्हें देख लेने की धमकी दी उससे बहुत कुछ साफ हो जाता है और साथ ही आडवाणी की ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है। जिस दिन राजनाथ की ताजपोशी हुई उस रात दिल्ली के एक होटल में एक पहुंचे हुए भाजपा नेता द्वारा ऑफ द रिकार्ड बोला गया यह वाक्य सबको याद रहेगा कि गृहमंत्री रहते हुए आडवाणी ने घास थोड़ी ही छीली थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक एमजी वैद्य ने गडकरी की विदाई में आयकर विभाग की सक्रियता पर प्रश्न चिन्ह लगाकर इस विवाद को और हवा दी है।

बहरहाल यह सब भीतर की बातें हैं जो बाहर दिख रहा है वह यह है कि भारतीय जनता पार्टी चुनाव से ज्यादा इन तैयारियों में डूब गई है कि प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी कौन हो। असल में देखा जाए तो यह मंथन गलत भी नहीं है। पिछले कुछ समय से जब गैर कांग्रेसी राजनीति परवान चढ़ी है चुनाव के वक्त सदैव यह सवाल उठ खड़ा होता है कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा। कांग्रेस में प्रधानमंत्री पद को लेकर कभी कश्मकश नहीं रही। क्योंकि वहां ज्यादातर एक ही परिवार से प्रधानमंत्रियों की आपूर्ति होती रही है और यह निर्विवाद है। इस बार भी राहुल गांधी की उम्मीदवारी लगभग तय मानी जा रही है। किंतु मुख्य विपक्षी गठबंधन एनडीए के समक्ष धर्मसंकट की स्थिति है। पिछली बार लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में एनडीए की पराजय हुई थी, लेकिन दोनों प्रमुख गठबंधनों के पास प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी थे जिन्हें जनता भलीभांति जानती थी। इस बार कांग्रेस का प्रत्याशी कौन होगा यह स्पष्ट हो चुका है, लेकिन एनडीए का प्रत्याशी घोषित नहीं किया गया है इसलिए सवाल उठना लाजिमी है। प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी की घोषणा किए बगैर चुनाव में जाने से नुकसान भी हो सकता है। अतएव राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के प्रमुख घटक जनतादल यूनाईटेड की यह मांग गलत नहीं है कि प्रधानमंत्री पद के लिए प्रत्याशी चुनाव पूर्व घोषित कर दिया जाए। किसी एक चेहरे को चुनाव में प्रस्तुत करना अब आम बात हो चुकी है। ज्यादातर राज्यों में भी मुख्यमंत्री घोषित कर चुनाव लड़े जा रहे हैं। जनता यह जानना चाहती है कि चुनाव के उपरांत सरकार का नेतृत्व कौन करेगा। इसीलिए प्रधानमंत्री पद को लेकर एनडीए में भारी मंथन चल रहा है और आने वाले दिनों में एनडीए को अपना प्रत्याशी हर हाल में घोषित करना ही पड़ेगा।
जहां तक नरेंद्र मोदी का प्रश्न है वे भारतीय राजनीति में इस समय सबसे लोकप्रिय नेता हंै। जिस अमेरिकन पीआर कंपनी की वे मदद ले रहे हैं उसने मोदी की आशाओं के अनुरूप काम कर दिखाया है। मोदी की ब्रांडिंग जिस बेहतरीन तरीके से की गई है वह स्वतंत्र भारत की राजनीति में एक अनुपम उदाहरण है। यह सत्य है कि गुजरात दंगों के बदनुमा दाग मोदी के दामन पर लगे हुए हैं और विपक्षी दलों को मोदी की यह कमजोरी हमेशा दिखाई पड़ती है, स्वयं मोदी को इस बात का मलाल है कि भारत की राजनीति में उनके कार्यकाल में हुए दंगों का जिक्र तो होता है, लेकिन कांग्रेस के कार्यकाल में हुए सिक्ख विरोधी दंगों से लेकर भागलपुर के दंगों तक सैंकड़ों ऐसी सांप्रदायिक घटनाओं का जिक्र नहीं किया जाता। लेकिन इसके बाद भी उद्योग जगत से लेकर राजनीतिक विश्लेषकों तक हर जगह नरेंद्र मोदी की छवि में बदस्तूर इजाफा हो रहा है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स से लेकर शहरी सर्वेक्षणों और मीडिया में मोदी को प्रधानमंत्री पद का सबसे काबिल उम्मीदवार समझा जाता है पर उनकी यह काबीलियत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेताओं के लिए कोई मायने नहीं रखती। बहुत से मोदी विरोधी तो यह भी कहते हैं कि मोदी को कुछ ज्यादा ही बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया है। असल में देखा जाए तो मोदी ने कोई खास करिश्मा नहीं किया है। जिस गुजरात को उन्होंने वाइब्रेंट बनाया है वह पहले से ही वाइब्रेंट है और उसकी आर्थिक हैसियत तथा अधोसंरचना देश के अन्य राज्यों के मुकाबले पहले से ही बेहतर रही है। एक अच्छे रिकार्ड वाले प्रदेश को आगे ले जाकर मोदी ने कोई तीर नहीं मार लिया है। केवल यही नहीं बल्कि और भी बहुत से बिन्दु हैं जिन पर मोदी का विरोध किया जाता रहा है। मोदी वर्चस्व की राजनीति करते हैं। अपने दुश्मनों को जरा भी नहीं बख्शते। संजय जोशी प्रकरण अभी भी लोगों के जेहन में ताजा है और हरेन पंड्या की हत्या का दाग भी कहीं न कहीं मोदी के कॅरियर पर लगा हुआ है। इसके विपरीत सुषमा स्वराज एक सौम्य छवि की नेत्री हैं वे भारत की वर्तमान में कुशलतम महिला वक्ता कही जा सकती हैं। लोकसभा में उनका बोलने का अंदाज बहुत प्रभावी है उन्हें लंबा राजनीतिक अनुभव है। पार्टी और एनडीए पर भी उनकी अच्छी पकड़ है। लोकसभा में नेताप्रतिपक्ष रहते वे सरकार की बेहतरीन तरीके से खैर-खबर लेती रहती हैं। राष्ट्रीय-अंंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर सुषमा स्वराज की पकड़ किसी से छिपी नहीं है। विदुषी होने के साथ-साथ सुषमा स्वराज की याददाश्त भी अच्छी है। बेल्लारी में चुनाव के वक्त उन्होंने चंद हफ्तों में ही कन्नड़ सीख ली थी, लेकिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सुषमा स्वराज को लेकर आश्वस्त नहीं है। आज तक किसी भी संघ के नेता ने सुषमा को लेकर बहुत सकारात्मक टिप्पणी नहीं की। सुषमा राजनीति में अपनी दम पर आगे बढ़ी और बाद में लालकृष्ण आडवाणी ने उन्हें भरपूर समर्थन दिया, लेकिन संघ के विचारकों का मानना है कि सुषमा अपने दम पर एनडीए को जितने का माद्दा नहीं रखतीं क्योंकि किसी एक राज्य में उनका जनाधार नहीं है। संघ का यह आंकलन एक तरह से गलत भी नहीं कहा जा सकता। दिल्ली में मुख्यमंत्री रहते हुए सुषमा चुनाव हार गईं थी। मध्यप्रदेश से वे सांसद अवश्य हैं लेकिन मध्यप्रदेश में स्थानीय नेताओं की कमी नहीं है। मध्यप्रदेश या किसी अन्य प्रदेश में सुषमा का वैसा जनाधार नहीं है जैसा नरेंद्र मोदी का गुजरात में है। गुजरात में मोदी को भाग्य विधाता समझा जाता है।
मोदी की उम्मीदवारी से होगा धु्रवीकरण
देखा जाए तो भारतीय जनता पार्टी में 2014 के लोकसभा चुनाव की दृष्टि से नरेंद्र मोदी ही तुरुप का पत्ता हैं। मोदी में वह आक्रामकता और कुशलता है कि वे चुनाव में भाजपा को एक मुकाम तक पहुंचा सकते हैं। उनके आने से सीटें बढऩा भी तय है, लेकिन मोदी के लिए सबसे बड़ी कमी उन पर लगा सांप्रदायिकता का धब्बा है। मोदी को केंद्र में रखकर भाजपा विकास की राजनीति नहीं कर सकती। भले ही भाजपा विकास और भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाए किंतु विपक्ष मोदी के रहते सांप्रदायिकता को ही मुद्दा बनाएगा और इस मुद्दे में हिंदु-मुस्लिम ध्रुवीकरण की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। भाजपा की यह आशंका बिल्कुल दुरुस्त है कि एक बार मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करते ही धर्मनिरपेक्षता के नाम पर समूचा विपक्ष इकट्ठा हो जाएगा और इससे नुकसान हो सकता है। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी जैसे दल जो चुनाव के दौरान अलग-अलग रणनीति बनाते हैं एक सुर में मोदी के खिलाफ एकजुट हो जाएंगे और जनतादल यूनाईटेड एनडीए से टूटकर विपक्ष के साथ जुड़ जाएगा। इस प्रकार बिहार, उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों में नरेंद्र मोदी के आने से धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता की लड़ाई शुरू हो सकती है और इस लड़ाई में नुकसान भाजपा का ही होगा। लेकिन इस आंकलन से सभी लोग सहमत नहीं है। भाजपा के नेता राम जेठमलानी का मानना है कि मोदी ने पिछले एक दशक में अपनी छवि काफी सुधार ली है और अब मुस्लिमों के बीच भी उनका जनाधार है। जेठमलानी इस सिलसिले में गुजरात की मुस्लिम बहुल सीटों का उदाहरण देते हैं जहां मोदी को अच्छी खासी बढ़त हासिल हुई है। तो क्या मोदी को मुस्लिम मतदाताओं ने माफ कर दिया है? नहीं! जनतादल यूनाईटेड का मानना है कि मोदी को लेकर मुस्लिमों के रुख में बदलाव आना असंभव है। जब तक मोदी राजनीति में सक्रिय रहेंगे उन्हें इन आरोपों को झेलना ही होगा। इसीलिए विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में नीतिश कुमार ने मोदी को बिहार से बाहर रखने की जिद पाल ली थी। लेकिन नीतिश से यशवंत सिन्हा ने सवाल किया है कि यदि भाजपा सांप्रदायिक नहीं है तो मोदी कैसे सांप्रदायिक हो सकते हैं। लालकृष्ण आडवाणी ने भी एक ब्लॉग में कुछ माह पूर्व आडवाणी ने लिखा था कि मोदी भारतीय राजनीति के उन नेताओं में से हैं जिन्हें राजनीति के चलते सबसे ज्यादा बदनाम किया गया। देखना है मोदी के प्रति इन संवेदनाओं का क्या नतीजा निकलता है फिलहाल तो नवनिर्वाचित अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने यह स्पष्ट संकेत दिया है कि आगामी लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी महत्वपूर्ण भूमिका में रहेंगे। संभावना इस बात की भी है कि किसी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किए बगैर नरेंद्र मोदी को चुनाव संचालन का दायित्व सौंप दिया जाए। यदि ऐसा हुआ तो टिकिट वितरण से लेकर प्रचार की रणनीति में मोदी का बोलबाला रहेगा। एक दूसरी संभावना यह भी है कि किसी अन्य कम्प्रोमाइज प्रत्याशी के नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाए। लेकिन मोदी किसी के नेतृत्व में चुनाव संचालन करेंगे इसकी संभावना कम ही हैं। उत्तरप्रदेश में चुनाव प्रचार से दूर रहकर मोदी ने इसका संकेत दे दिया था। वे बिना किसी दबाव में काम करने वाले राजनेता है।
किसने लिखा वैद्य को पत्र
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दर्द आखिर सामने आ गया। भाजपा संघ की छाया से अलग जा रही है यह बात संघ को नागवार गुजरी है। संघ के विचारक एमजी वैद्य ने कहा है कि नितिन गडकरी भाजपा की आंतरिक साजिश के शिकार हुए हैं। उन्होंने अपने ब्लाग में वाशिंगटन से मिली एक चिट्ठी का जिक्र किया है जिसमें लिखा था कि गडकरी के लिए आपके समर्थन से मुझे निराशा हुई है। प्रश्न यह है कि यह चिट्ठी किसने लिखी।
यशवंत से असहमत उमा
मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा के उस विचार से सहमत नहीं हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि नरेंद्र मोदी लोकप्रिय हैं इसलिए उन्हें प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया जाए। उमा भारती का कहना है कि लोकप्रियता भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी की कसौटी नहीं हो सकती। एक टीवी चैनल को साक्षात्कार में उमा भारती ने कहा कि इतिहास में ऐसे उदाहरण मौजूद हैं जब कम जनाधार वाले नेता को प्रधानमंत्री बनाया गया, लेकिन वे बेहतरीन प्रधानमंत्री साबित हुए।
इन मुद्दों का क्या होगा?
प्रधानमंत्री की भागमभाग और मिली-जुली राजनीति के चक्कर में भारतीय जनता पार्टी अपने मूल मुद्दों से भटक गई है। मोदी का नाम प्रधानमंत्री के रूप में लिए जाने के बाद अब यह सवाल उठाए जा रहे हैं कि धारा 370, राम मंदिर, यूनिफार्म सिविल कोर्ट जैसे मुद्दों का क्या होगा। मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित कर और इन मुद्दों पर लौटकर क्या भाजपा देश की 18 प्रतिशत मुस्लिम आबादी के वोटों से वंचित होने का जोखिम उठा सकेगी।
मप्र में मिली-जुली प्रतिक्रिया
मध्यप्रदेश के किसी भी नेता ने सुषमा स्वराज की तो पैरवी की ही नहीं अभी तक गिने-चुने मंत्री हैं जिन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी पसंद का सार्वजनिक इजहार किया है। जगन्नाथ सिंह, शिवराज सिंह को प्रधानमंत्री बनाए जाने के पक्ष में हैं तो सरताज सिंह प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की ताजपोशी की खुलकर पैरवी कर चुके हैं। कुछ अन्य मंत्री भी हैं जो मोदी के पक्ष में बताए जाते हैं। इन मंत्रियों के रुख से लग रहा है कि ये अपने सेनापति से नाखुश है। अन्यथा वे किसी भी हालत में शिवराज सिंह की पैरवी नहीं करते।
राजनाथ के समक्ष चुनौतियां
भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने राजनाथ सिंह के समक्ष चुनौतियां कम नहीं हैं। लेकिन यह भी सच है कि राजनाथ सिंह को अध्यक्ष बनाने में नरेंद्र मोदी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। माना जा रहा है कि इससे भाजपा को आगामी लोकसभा चुनाव में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश से फायदा भी मिल सकता है, लेकिन यह भविष्य की बात है। तात्कालिक तथ्य यह है कि भारतीय जनता पार्टी ने लंबे समय बाद संघ के निर्णय को चुनौती दी है। हालांकि इस घटनाक्रम को चुनौती न मानते हुए आयकर छापों की स्वाभाविक परिणिति माना जा रहा है, किंतु प्रश्न वहीं है कि इस परिणिति के लिए माहौल अचानक क्यों बना। आयकर विभाग की छठी इंद्री उसी दिन क्यों जागृत हुई जिस दिन गडकरी की ताजपोशी पर अंतिम मुहर लगाई जाने वाली थी। आडवाणी ने अचानक एड़ी-चोटी का जोर अंतिम समय में क्यों लगाया। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि गडकरी की कश्ती वहीं डूबी जहां पानी कम था। यह एक अनुमान भी हो सकता है और सच्चाई भी किंतु जिस गति से और जिस तत्परता से गडकरी को धराशायी किया गया वह अनायास नहीं था। शायद आने वाले समय में इसकी सच्चाई सामने आ ही जाएगी। बहरहाल इतना तो तय है कि भारतीय जनता पार्टी के भीतर भी अब राजनीतिक चतुराई जाग चुकी है और कांग्रेस की तरह वहां भी ध्वस्त करने तथा उठाने का खेल चल रहा है। लेकिन जनता जर्नादन को इससे कोई मतलब नहीं है जो कुछ सामने दिखता है उसे ही सच्चाई मान लिया जाता है और सच यह है कि जिस कार्पोरेट ऑफिस को गडकरी ने बड़े शौक से बनवाया था उसमें अब राजनाथ सिंह बिराजेंगे। केवल बिराजेंगे ही नहीं बल्कि अब पार्टी की कार्यशैली में भी बदलाव देखा जाएगा। विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न पदाधिकारियों के ऊपर इस औचक परिवर्तन का असर होना अवश्यंभावी है। आगामी चुनाव के समय इस परिवर्तन की झलक शायद राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और दिल्ली में देखने को मिले, लेकिन परिवर्तन के अलावा भी कई चुनौतियां हैं जो राजनाथ सिंह के लिए कठिन जान पड़ती हैं। सबसे बड़ी चुनौती है केंद्र में आगामी संभावित विजेता के रूप में भारतीय जनता पार्टी को प्रस्तुत करना। भाजपा को जनता फिलहाल कांग्रेस का विकल्प नहीं मान रही है। यह सच है कि कांग्रेस के खिलाफ माहौल है, लेकिन भाजपा के पक्ष में भी माहौल नहीं है। हिमाचल प्रदेश के चुनावी नतीजे इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। महंगाई के बावजूद वहां भाजपा के मुकाबले कांगे्रस को तरजीह दी गई। इसीलिए कांग्रेस विरोधी माहौल को अपने पक्ष में करना राजनाथ सिंह की एक बड़ी चुनौती है। भारतीय जनता पार्टी में बढ़ती गुटबाजी भी बतौर अध्यक्ष राजनाथ सिंह को ही साधनी पड़ेगी। सबसे बड़ी बात तो यह है कि केंद्र की सत्ता से दूर होने के बाद लगभग 10 साल विपक्ष में रहते हुए भाजपा को जितना विस्तार करना चाहिए था उतना विस्तार वह कर नहीं पाई। इसका कारण यह है कि भाजपा में विचारधारा का संकट उत्पन्न हो रहा है। सरकार के विरोध में वह खड़ी जरूर दिखाई देती है, लेकिन उस विरोध का स्वरूप क्या होगा यह समझ से परे है। इसीलिए भाजपा को उसके सिद्धांत की पटरी पर लाना राजनाथ सिंह की एक बड़ी चुनौती है। एक अन्य चुनौती है भ्रष्टाचार। भ्रष्टाचार के विरोध में मुखर रही भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों में भी भ्रष्टाचार जमकर किया जा रहा है। कर्नाटक में येदियुरप्पा को सत्ता से हाथ धोना पड़ा। उन्होंने अलग पार्टी बनाकर भाजपा को पर्याप्त नुकसान पहुंचाया और अब इस दक्षिण भारतीय राज्य से भाजपा की विदाई तय हो चुकी है। शायद भाजपा का यहां भी वही हश्र हो जो उत्तरप्रदेश में हुआ है। कई दूसरे राज्यों में भी यही समस्या है। उत्तराखंड, हिमाचल जैसे छोटे प्रदेशों में ही नहीं उत्तरप्रदेश में भी भाजपा के पिछडऩे का कारण यही है। नितिन गडकरी से बहुत उम्मीदें थी, लेकिन वे भी भाजपा के गिरते ग्राफ को संभाल नहीं पाए। इसीलिए एक प्रभावी विपक्ष के रूप में राजनीति में अपनी मौजूदगी दर्ज कराना भारतीय जनता पार्टी के लिए बहुत जरूरी है। राजनाथ सिंह के समक्ष यह चुनौती लगातार खड़ी रहेगी। उत्तरप्रदेश में कल्याण सिंह की वापसी से भाजपा को लाभ होगा इस बात के आसार कम हैं। अन्य दूसरे प्रदेशों में भी कमोबेश यही स्थिति है, लेकिन राजनाथ सिंह से पार्टी को बड़ी उम्मीदे हैं। देखना है कि वे उम्मीदों पर कितने खरे उतरते हैं।
सीटें कहां से मिलेंगी
भारतीय जनता पार्टी मध्यप्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़, गोवा और कर्नाटक में अपने दम पर सत्ता में है जबकि बिहार और पंजाब में गठबंधन सरकार में है। बाकी राज्यों में पार्टी का जनाधार उतना मजबूत नहीं है। किसी भी राष्ट्रीय दल को उत्तर से लेकर दक्षिण तक सभी राज्यों से वोट मिलने चाहिए और सीटें भी मिलनी चाहिए। कश्मीर में भाजपा को बमुश्किल एक आध सीट मिल पाती है। हिमाचल में उसकी स्थिति जरूर मजबूत है। दिल्ली में भी पार्टी का प्रदर्शन अच्छा कहा जा सकता है किंतु उत्तरप्रदेश में भाजपा का ग्राफ लगातार गिरा है। पंजाब, हरियाणा जैसे राज्यों में औसत प्रदर्शन देखा जाता है। महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ मिलकर सम्मानजनक सीटें पार्टी प्राप्त कर सकती है गुजरात, राजस्थान में स्थिति मजबूत है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में भी अच्छी बढ़त हासिल हो सकती है। झारखंड और बिहार से भी कुछ उम्मीदें हैं, लेकिन बाकी अन्य जगह भाजपा को बड़ी भारी बढ़त हासिल होना असंभव है। दक्षिण के एकमात्र राज्य कर्नाटक में पार्टी की दुर्गति छिपी नहीं है। पूर्वोत्तर में भाजपा को कोई नहीं जानता। इसीलिए नरेंद्र मोदी के आने से इन स्थितियों में बड़ा बदलाव आएगा यह कहना जल्दबाजी होगी।