18-Mar-2014 10:23 AM
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सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों से कहा है कि वे अपराधिक मामलों में संलिप्त संसाद विधायक की सुनवाई में तेजी लाते हुए ऐसे मामलों को एक साल के भीतर निपटाने की कोशिश करे। देखा जाए तो कोर्ट का यह फैसला उन राजनीतिज्ञों के

लिए राहत भरा है जो वर्षों तक किसी मामले के खिंचने के कारण बदनामी का दंश झेलते हैं लेकिन साथ ही उन राजनीतिज्ञों के लिए परेशानी भरा है जो अपनी ताकत का इस्तेमाल कर न्याय प्रक्रिया को लम्बा खींचने में कामयाब रहते हैं और यह देरी कई बार अंधेर बन जाती है।
पिछले वर्ष ही सुप्रीम कोर्ट ने दागी सांसदों विधायकों के चुनाव लडऩे पर 6 वर्ष तक की रोक का प्रावधान किया था जिसके चलते लालू यादव जैसे नेताओं को सांसदी से हाथ धोना पड़ा था और जेल भी जाना पड़ा था, लेकिन शीघ्र ही लालू यादव जमानत पर जेल से बाहर आ गये और अब उनका मामला सुप्रीम कोर्ट में है जहां यह कितने साल खिंचेगा कहा नहीं जा सकता। संभवत: इसीलिए दागियों को शीघ्र निर्णय देने की कोशिश कोर्ट ने की है। कोर्ट को अच्छी तरह मालूम है कि राजनीतिज्ञ अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर कानून से बचते रहते हैं लेकिन जिस तरह की मुहिम सुप्रीम कोर्ट ने हाल के दिनों में चलाई है उससे लग रहा है कि कहीं न कहीं कोर्ट राजनीति के शुद्धिकरण के पक्ष में है। क्योंकि पिछली बार जब दागियों को बचाने संबंधी अध्यादेश को राहुल गांधी ने फाड़ कर फेंका था उस वक्त भी संसद में बैठे हमारे देश के कर्णधार दागियों को बचाने की कोशिश कर रहे थे।
दरअसल सर्वोच्च न्यायलय के 10 जुलाई 2013 के फैसले के बाद विधेयक और फिर अध्यादेश लाना ही एक ऐसी सांमती मानसिकता थी, जो व्यक्गित संकीर्ण स्वार्थपूर्तियों के लिए अपनाई गई। अदालत ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) को अंसवैधानिक करार देते हुए रदद कर दिया था। इस आदेश के मुताबिक अदालत द्वारा दोषी ठहराते ही जनप्रतिनिधि की सदस्यता समाप्त हो जाएगी। अदालत ने यह भी साफ किया था संविधान के अनुच्छेद 173 और 326 के अनुसार दोषी करार दिए लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल ही नहीं किए जा सकते हैं। इसके उलट जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) के अनुसार सजायाफता जनप्रतिनिधियों को निर्वाचन में भागीदारी के सभी अधिकार हासिल हैं। अदालत ने महज इसी धारा को विलोपित किया था। जिसे सरकार ने पहले तो पुनर्विचार याचिका के जरिए बदलवाने की कोशिश की, लेकिन अदालत ने बिना सुने ही याचिका खारिज कर दी। इसी वजह से अदालत का फैसला यथावत बना रहा। इसी यथास्थिति को बदलने के नजरिए से सरकार ने प्रस्तावित अध्यादेश में जनप्रतिनिधित्व कानून संशोधन एवं विधिमान्यकरण विधेयक-2013 में धारा 8(4) का वजूद बनाए रखने के उपाय किए थे जिससे 2 साल या इससे अधिक की सजा मिल जाने के बावजूद सांसद-विधायकों की सदस्यता सदनों में बहाल रहे। हालांकि इसमें नये प्रावधान भी जोड़े गये। जिनके मुताबिक सदन में प्रतिनिधि न तो मतदान का अधिकारी होगा और न ही उसे वेतन-भत्ते मिलेंगे। इस बाबत विधि विषेशज्ञों का मानना था कि सांसद व विधायकों को वोट डालने का अधिकार संविधान ने दिया है न कि अध्यादेश अथवा किसी अन्य कानून ने? यह अधिकार अस्थायी कानूनी उपायों से नहीं छीना जा सकता है? प्रतिनिधियों को वेतन दृ भत्ते भी वेतन-भत्ता एवं पेंशन कानून-1954 के मार्फत मिलते हैं, न कि किसी इतर कानून के जरिए? लिहाजा इस लाभ से सजायाफता प्रतिनिधियों को वैकलिपक कानून से वंचित नहीं किया जा सकता? यहां महत्वपूर्ण सवाल यह भी खड़ा होता है कि जब सदस्य मतदान का ही अधिकार खो देंगे तो सदन को देने का उद्देश्य कैसे पूरा होगा?
क्या है नया निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने सांसदों और विधायकों से जुड़े मामलों की सुनवाई पूरी करने के लिए एक साल की समयसीमा तय कर दी है। कोर्ट ने कहा है कि निचली अदालतों को एमपी और एमएलए से जुड़े मामलों में आरोप तय होने से एक साल के भीतर फैसला देना चाहिए। इसके लिए सांसदों-विधायकों से जुड़े मामलों की सुनवाई डेली आधार पर की जाए। अगर निचली अदालतें आरोप तय करने के एक साल के भीतर सुनवाई पूरी करने में विफल रहती हैं,तो उसे हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को इसका कारण बताना होगा। सर्वोच्च अदालत ने यह निर्देश एक गैर-सरकारी संस्था की ओर से दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इस पीआईएल पर लॉ कमिशन की राय ली थी। इस फैसले के साथ सर्वोच्च अदालत ने इलेक्टोरल पॉलिटिक्स में बदलाव के विषय को आगे बढ़ाया है। पिछले साल जुलाई में सुप्रीम कोर्ट ने क्रिमिनल मामलों में दोषी ठहराए गए राजनेताओं के सांसद-विधायक पद पर बने रहने और चुनाव लडऩे की योग्यता समाप्त कर दी थी। कोर्ट के इस आदेश के बाद से कई बड़े नेताओं के खिलाफ मामलों की जल्द सुनवाई और फैसले का रास्ता खुल गया है।