03-Mar-2014 09:14 AM
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हलधर को नहीं सूझ रहा हल, मौसम के क्रोध न किया बेकल, नैराश्य में गया श्रम का फल
कर्म करने वाले किसान का मर्म आहत है, फसलों की तबाही देखकर। यद्यपि किसान जज्बे, जोश और जुनून से कर्म करता है, बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि किसान की किस्मत की कुंडली में
कठिनाई का केतु और रूकावट का राहु ग्रह बन जाते हैं। ऐसे ग्रहों की शांति के लिए मुआवजे की आहुति दी जाती है। बेशक, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मुआवजा मंत्र फूंकने की कोशिश की है, लेकिन अफसरशाही रूपी केतु और लालफीताशाही रूपी राहू के कारण मध्यप्रदेश का किसान बेबस है। उसकी आंखों में आंसू हैं। वह कभी आकाश की तरफ इस उम्मीद से देखा करता था कि इंद्र देवता प्रसन्न होकर उस पर वर्षारूपी कृपा दृष्टि करेंगे, लेकिन आज इंद्र की कृपा ओलों के रूप में बरसी है। प्रदेश के 49 जिलों के सैंकड़ों गांवों की फसलें खड़ी की खड़ी नष्ट हो चुकी हैं। अतिवृष्टि ने पहले ही किसानों का हौंसला तोड़ दिया है। सोयाबीन की फसलें पानी में सड़ गई थी। इस साल बेतहाशा पानी गिरा लेकिन खरीफ की फसल तबाह हो गई। पर सरकार को उसमें 4 लाभ दिख रहे थे। पहला लाभ तो यह था कि पानी ज्यादा गिरा है तो नमी भी अधिक हो गई है और इससे गेहूं की फसल की बम्पर उपज होना तय माना जा रहा था, दूसरे पड़त खेतों में गेहूं-चना बुआई कर दी गई थी, तीसरे जनवरी में जो बारिश हुई वह फायदेमंद साबित हुई उसने नमी सही समय पर पहुंचाई, चौथे फरवरी में तापमान नीचे रहा जो फसलों के लिए अच्छा था। इन सारे लाभों के साथ सरकार को भी लगा कि किसान गेहूं, चना जैसी रबी की बम्पर फसल उगा सकते हैं, पर शायद किसानों का दुर्भाग्य उनका पीछा नहीं छोड़ रहा है। फरवरी में जब फसल पक कर खड़ी थी लगातार एक सप्ताह तक हुई बारिश ने सब कुछ बर्बाद कर दिया। मौसम की भविष्यवाणी मार्च में भी तबाही मचाने की है। कुल मिलाकर किसान निराशा में हैं। एक नहीं चार-छह बार ओले गिरने से फसलें खेत में बिछ गई हैं और सडऩे लगी हैं। देवास, नीमच, धार, बैतूल, सीहोर, टीकमगढ़, रायसेन जैसे जिलों में कुछ ज्यादा ही प्रभाव है। झाबुआ, अलीराजपुर, रीवा और छतरपुर में थोड़ी राहत है। खास बात यह है कि रायसेन, विदिशा, भोपाल, इंदौर और उज्जैन संभाग में बारिश भी पहले के मुकाबले अधिक हुई थी तो जहां पानी ज्यादा गिरा वहीं ओले भी ज्यादा गिरे। जबकि रीवा, शहडोल का बेल्ट पहले भी सूखा था अभी भी नुकसान कम हुआ। भिंड में भी कुछ नुकसान की आशंका है। सबसे ज्यादा मार चने पर पड़ी है। गेहूं में जहां ओले गिरे वहां नुकसान हुआ बारिश कुछ हद तक गेहूं की फसल झेलने में कामयाब रही। सरसो उजड़ गई। यदि मौसम तबाही नहीं मचाता तो तीनों फसलों के रिकार्ड टूटते।
अब अधिकारी कहते हैं कि पैसे कलेक्टरों को जारी कर दिए गए हैं वहां क्या स्थिति है उन्हें नहीं पता। ज्यादातर कलेक्टर कह रहे हैं कि पैसा बंट गया है। यहां यह बताना जरूरी है कि एक फरवरी 2014 को 562.27 करोड़ रुपए जारी किए गए थे इसका अर्थ यह हुआ कि जब ओले बरसने वाले थे तभी लगभग 4-5 दिन पहले पैसे कलेक्टरों के पास पहुंचे और उसमें से भी ज्यादातर राशि बंट नहीं पाई। पैसे बांटना भी आसान नहीं है। क्योंकि कितना बोया, क्या बोया, कितना सिंचित रकबा है, कितना गैर सिंचित रकबा है। राहत राशि क्या होगी। ऐसे कई सवालों से जूझना होता है। (देखें-बाक्स) अब केवल निराशा और आंसू हैं और इसमें सरकार की लापरवाही तथा अधिकारियों का ढीलापन और वृद्धि कर देता है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी ओलावृष्टि से तबाह फसलों का आंकलन करने के लिए अधिकारियों की बैठक के दौरान नाराजगी व्यक्त करते हुए कह चुके हैं कि किसानों को सोयाबीन के मुआवजे का पैसा अभी तक क्यों नहीं मिला। जैसा कि पहले भी बताया जा चुका है कि सोयाबीन के नाम से 562.27 करोड़ की राशि राज्य सरकार ने एक फरवरी को कलेक्टरों को भेजी। भला मुख्यमंत्री को क्या पता कि उनके मंत्रालय के ही अफसर राशि भेजने में इतनी देर लगाते हैं। सर्वेक्षण के बाद भी सोयाबीन का पैसा नहीं बंट पाया तो किसानों ने 10 से 20 प्रतिशत ब्याज पर कर्ज लेकर बुआई की और उस बुआई को भी प्राकृतिक आपदा ने लील लिया। तो किसान आत्महत्या के लिए प्रेरित होगा ही। सरकारी लापरवाही का यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए सारी दुनिया में फसल बीमा किया जाता है। अमेरिका जैसे देशों में तो किसानों को इतना मुआवजा मिलता है कि वे बिना किसी खौफ के फसलें उगाते हैं और लाभ कमाते हैं, लेकिन भारत में बीमा योजनाएं भी सरकारी ढर्रे पर चलती हैं। भारत में केंद्र सरकार की बीमा योजना तो पूरी तरह बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए हैं। (देखें बाक्स)
बहरहाल 10 मार्च तक सर्वे होगा और 20-22 मार्च तक सरकार के पास पूरे आंकड़े आएंगे इन आंकड़ों को आगे भेजा जाएगा और फिर किसानों के पास राहत राशि मई-जून तक ही पहुंच सकेगी। कहा जाता है कि बारिश में फरवरी माह में 86 वर्ष का रिकार्ड तोड़ दिया। इसीलिए सरकार ने विकास के 2000 करोड़ रुपए किसानों को देने की घोषणा की है। इसका अर्थ यह हुआ कि एक हेक्टेयर में 2.47 एकड़ के लगभग जमीन पर 15 हजार रुपए ही मिलेंगे यानी 6 हजार 70 रुपए प्रति एकड़ के करीब। 2 एकड़ या 5 एकड़ वाले छोटे और सीमांत किसानों को पूरे सालभर का मुआवजा कितना मिलेगा समझा जा सकता है। इससे बेहतर तो वे मजदूरी करके ज्यादा कमा सकते हैं। मुआवजा मजबूरी बनता है और मजबूरी मजदूरी में बदल जाती है। मध्यप्रदेश के शहरों में गांव से पलायन करके आए किसानों की संख्या लगातार बढऩे का यही कारण है। साल दर साल सूखा पड़ रहा है। अतिवृष्टि हो रही है, ओले गिर रहे हैं और छोटे-छोटे किसानों को उनके खेतों पर साल भर में बमुश्किल 40-50 हजार का मुआवजा मिलता है। यह मुआवजा पर्याप्त नहीं होता। जमीन का उपजाऊपन और उसमें उगने वाली फसलों की विशेषता दूसरी बात है, लेकिन सच तो यह है कि मुआवजे के खेल में अन्नदाता मानसिक रूप से टूट जाते हैं। मध्यप्रदेश सरकार किसानों को शून्य प्रतिशत ब्याज पर ऋण दे रही है, लेकिन सच्चाई यह है कि ऋण अदायगी की एक निश्चित अवधि है उसके बाद पैसा नहीं देने पर पेनल्टी लगती है। किसान जो कि कृषि पर निर्भर है, कई बार कृषि उपज सही नहीं होने की स्थिति में दोहरी चुनौती का सामना करते हैं। हालांकि सरकारें अक्सर प्राकृतिक आपदा के बाद ऋण अदायगी रोक देती है, कई बार कर्जे भी माफ होते हैं, लेकिन उसके बाद भी किसानों के बीच निराशा और उनकी आत्महत्याएं क्यों बढ़ रही हैं, यह जानने की कोशिश नहीं की गई। दूसरी तरफ राजनीति भी उनकी कमर तोड़ देती है। हाल ही में फसल तबाही के बाद पत्रकार वार्ता में कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष अरुण यादव से विशेष रूप से यह जानने की कोशिश की गई कि कांग्रेस केंद्र सरकार से कितनी राहत राशि की अनुशंसा करेगी तो उन्होंने गोलमोल जवाब दिया कि हम देखेंगे पर्याप्त मदद मांगी जाएगी। उनसे बार-बार पूछा गया, लेकिन वे कोई निश्चित फिगर नहीं बता सके।
बहरहाल चुनाव सामने है सरकारी अमला क्या करेगा। क्या वह सर्वेक्षण करके किसानों को मुआवजा दिलाने की कोशिश में लगा रहेगा या फिर चुनाव आयोग कर्मचारियों को चुनाव के काम में लगा देगा। असंतोष पनप रहा है, जगह-जगह किसानों के प्रदर्शन हो रहे हैं। पटवारियों पर हमले तेज हो गए हैं। सरकारी सर्वेक्षण करने वालों को गांवों से भगाया जा रहा है। किसानों में गुस्सा है और आक्रोश है। उधर जो इस मुसीबत से बचने की हिम्मत नहीं जुटा पाए वे मौत को गले लगा रहे हैं। अभी तक दो किसानों की आत्महत्या और एक किसान की सदमें से मृत्यु की खबर है। आत्महत्या के कारण क्या हैं यह शायद पदा नहीं लग पाएगा। क्योंकि जब भी कोई प्राकृतिक प्रकोप आता है उसके बाद होने वाली हर आत्महत्या को उसी प्रकोप से जोड़कर देखा जाता है। जब सुनामी आई थी उसके बाद दर्ज आत्महत्याओं को सुनामी के ही खाते में डाला गया, लेकिन यहां प्रश्न केवल आत्महत्या का नहीं है। बल्कि यह विचार करने का है कि इस तरह की आपदाओं से कैसे निपटा जाए। किस तरह की कृषि पद्धति अपनाई जाए कि नुकसान कम से कम हो।
पंजाब, हरियाणा जैसे प्रदेशों के उदाहरण हमारे सामने है जहां मेढ़ पर खेती से लेकर अन्य उपाय किए जाते हैं। फसलों को बचाने के लिए। अभी भी जमीन में ओले और बारिश के कारण नमी आ गई है इसलिए किसानों को सलाह दी जा रही है कि वे 60-70 दिन में पकने वाली फसलें उगा लें ताकि नुकसान की कुछ तो भरपाई हो पर प्रश्न यही है किसानों को तो सोयाबीन का ही पैसा नहीं मिला है। ऐसे में फसल उगाएंगे भी तो उसके लिए पैसे कहां से आएंगे। बेहतर यही है कि मुआवजा सही तरीके और सही सलीके से, सही हकदार के पास, सही समय पर पहुंचे, ताकि अन्न का अमृत बांटने वाले किसान को हानि का हलाहल पीने से बचाया जा सके। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने भी कहा था हिंदुस्तान के किसान राष्ट्र की आत्मा हैं। उन पर पड़ी निराशा की छाया को हटाया जाए, तभी हिंदुस्तान का उद्धार हो सकता है। इसके लिए यह आवश्यक है कि हम यह अनुभव करें कि किसान हमारा है और हम किसान के हैं।
चक्रवात की विनाशलीला
मौसम विज्ञानी ओलावृष्टि को मौसम परिवर्तन से जोड़कर देख रहे हैं। जलवायु का चक्र बदल रहा है। समुद्री धाराओं का प्रभाव लगातार खतरे पैदा करता है। अलनीनो का प्रभाव भी मौसम पर पड़ा है। राजस्थान में हरियाली बढऩे से भी बारिश का सिलसिला गड़बड़ाया है, लेकिन जब कहा जाता है कि 86 वर्ष का रिकार्ड टूटा तो इसका अर्थ यही है कि ऐसी बारिश उस समय भी होती थी जब ग्लोबल वार्मिग जैसी समस्याएं नहीं थी। पश्चिमी मध्यप्रदेश सहित प्रदेश के 49 जिलों में ओलावृष्टि का कारण राजस्थान पर बने ऊपरी हवा के चक्रवात को बताया गया। जिससे मौसम बिगड़ा।
बाढ़ राहत पूरी नहीं बंटी
वर्षाकाल जून 2013 से सितम्बर 2013 के दौरान प्रदेश में अतिवृष्टि/बाढ़ से हुई क्षति एवं आर.बी.सी. 6-4 के मानदण्डों के अनुरूप सहायता राशि प्रदान की गई थी। यह अभी तक पूरी नहीं बटी है।
- प्रदेश के 28 जिलों की फसलें अतिवृष्टि एवं बाढ़ से प्रभावित हुई।
- इस अवधि में 827087 कृषकों का 984871.96 हेक्टेयर रकबा प्रभावित हुआ।
- प्रभावित रकबे का अनुमानित मूल्य राशि रु. 4640.59 करोड़ था।
- आर.बी.सी. 6-4 के मापदण्डों के अनुसार उपरोक्त 28 जिलों के कृषकों को सहायता राशि उपलब्ध कराने हेतु राशि रु. 562.27 करोड़ का आवंटन जारी किया गया।
- इसी प्रकार बाढ़ एवं अतिवृष्टि से हुई जनहानि, पशुहानि, मकान की क्षति आदि मदों से संबंधित सहायता राशि उपलब्ध कराने हेतु कुल राशि रु. 95.27 करोड़ का आवंटन प्रदान किया गया।
- मुख्यत: सतना, सागर, रीवा एवं रायसेन की अतिरिक्त मांगे भी आई हैं। जो कि लगभग राशि रु. 243.00 करोड़ की हैं, जिनका परीक्षण कर बजट की उपलब्धता के आधार पर निराकरण किया जाना है।
- बाढ़ योजना 2018 में आवश्यकता के अनुरूप वित्त विभाग से राज्य स्रोतों से तृतीय अनुपूरक अनुमान में राशि रु. 258.00 करोड़ की मांग की है।
- वर्तमान में बाढ़ मद (2018) में राशि रु. 3.12 करोड़ का बजट शेष है।
सरकार लाएगी फसल बीमा योजना
फसल बीमा का क्लेम किसानों को मिल नहीं पाता। क्योंकि इसे प्राप्त करना भारत जैसे देश में बहुत कठिन है। फसल बीमा तो दूर मुआवजा प्राप्त करने के लिए जो फसल क्षति का पत्रक सरकार ने प्रस्तुत किया है उसे भरना सर्वेक्षण अधिकारी के लिए भारी कठिन है। तहसील का नाम, प्रभावित ग्रामों की संख्या, प्रभावित ग्रामों में रवि का बोया गया कुल क्षेत्रफल, कृषक संख्या, प्रभावित संख्या और उसमें भी कितना प्रतिशत है। लघु तथा सीमांत किसानों के लिए और अन्य कृषकों के लिए अलग-अलग नियम, कुल प्रभावित कृषकों की संख्या, कुल प्रभावित रकबा, क्षति का अनुमानित मूल्य और आरबीसी 6-4 के के मापदण्डों के अनुसार सहायता राशि वितरण के लिए आवंटन की मांग यह सब बताने पर सहायता राशि का क्लेम बनता है। बीमा कंपनियां तो खून ही निकाल लेती है। किसान प्रीमियम देता रहता है पर जरूरत पर उचित मुआवजा या क्लेम नहीं मिलता। इसी सीजन में सोयाबीन के नुकसान पर 2900 करोड़ रुपए का क्लेम मांगा गया। केंद्र सरकार ने प्राइवेट कंपनियों के हितों को ध्यान में रखते हुए टेंडर प्रक्रिया से फसल बीमा जारी करने की योजना बनाई। जिसमें ढाई से साढ़े तीन प्रतिशत प्रीमियम की बजाय 8-9 प्रतिशत प्रीमियम आने की संभावना है। खास बात यह है कि सरकार प्रीमियम पर जो सब्सिडी देगी उसका लाभ किसानों को न मिलकर सीधे बीमा कंपनियों को मिलेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि बीमा कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए किसानों को लाभ देने का बहाना किया जा रहा है। फिर यह बीमा भी प्री-एडिंग पर न होकर बेक एडिंग पर है। कुल मिलाकर किसानों के लिए यह लाभ का सौदा नहीं है। इसीलिए मध्यप्रदेश सरकार फसल बीमा ला रही है कृषि विभाग के प्रिंसिपल सेके्रट्री राजेश राजौरा कहते हैं कि फसल बीमा से किसानों को सरकार बेहतर लाभ दे सकेगी। इसके लिए कमेटी बनाई गई है। इस कमेटी में कृषि उत्पादन आयोग की अध्यक्षता में कृषि राजस्व एवं सहकारिता के प्रमुख सचिव तथा वित्त सचिव एवं कृषि संचालक शामिल रहेंगे। फसल बीमा का क्षेत्र व्यापक है इसमें बाढ़ के समय पशुधन या किसी व्यक्ति को हुए नुकसान का भी समावेश किया जाना चाहिए। बहुत से देशों में ऐसा है। फसल बीमा का दायरा बढ़ाया जाना चाहिए। खास बात यह है कि मुआवजा हो या फसल बीमा जितना शीघ्र मिलेगा किसान को उतनी ही राहत पहुंचेगी। यदि कानूनी अड़चनों में किसान का नुकसान हुआ तो फिर आत्महत्या की घटनाएं बढ़ती जाएंगी।
ओलावृष्टि से लगभग पूरा प्रदेश प्रभावित है 49 जिलों के 3789 गांव ओला प्रभावित माने गए हैं। संख्या बढ़ भी सकती है। तहसीलों से पांच मार्च तक जानकारी मंगाई है। यह नेत्रांकन सर्वे है जिसकी रिपोर्ट सरकार को भेजी जाएगी। विस्तृत सर्वे 10 मार्च तक किया जाएगा और 15-20 मार्च तक सारा आंकड़ा प्रोफार्मा में आएगा तथा पत्रक बनेगा। मुआवजे में 75 प्रतिशत हिस्सा भारत सरकार का और 25 प्रतिशत हिस्सा केंद्र सरकार का है। रिलीफ फंड साढ़े चार सौ करोड़ रुपए का बनाया हुआ है जिसमें 75-25 के अनुपात से पैसा डालते हैं, लेकिन यदि ज्यादा पैसे खर्च हुए तो उसे जस्टिफाई करके सही आंकड़े उपलब्ध कराते हुए राशि बढ़ाई जा सकती है।
-राजेश चतुर्वेदी, पीएस राजस्व