18-Mar-2014 09:58 AM
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दस माह के अन्तराल से एक बार फिर छत्तीसगढ़ मेें नक्सलियों ने झीरमघाटी में घात लगाकर लगभग उसी स्थान पर हमला बोला जहां पिछले वर्ष मई माह में कांग्रेस नेता महेन्द्र कर्मा सहित कई वरिष्ठ कांग्रेसियों और उनके

सुरक्षाकर्मियों की निर्दयता से हत्या कर दी गई थी। इस बार नक्सलियों ने टाहकबाड़ा में अपने मिलिट्री इंटेलीजेंस की सहायता से पीपुल्स सीक्रेट सर्विस निशानदेही पर खतरनाक हमले को अजांम दिया। खास बात यह है कि नक्सलियों को सुरक्षाबलों की हर जानकारी थी। उन्होंने सी.आर.पी.एफ की रोड ओपनिंग पार्टी पर घात लगाकर पहले ब्लास्ट किया, बाद में अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। जवानों की संख्या 44 थी सब कुछ इतने अचानक हुआ कि जवानों को संभालने का मौका नहीं मिला सी.आर.पी.एफ के 11 और जिला पुलिस के 4 जवान मौके पर ही शहीद हो गये और तीन गंभीर रूप से घायल हुए जिनका इलाज चल रहा है। नक्सलियों ने तो लाशों पर भी बम लगा दिया था ऐसे में बचाव अभियान मुश्किल हो गया। सवाल यह है कि नक्सलियों का खुफिया तंत्र हमारे खुफिया तंत्र से मजबूत क्यों है। इस हमले से पहले आसपास के ग्रामीणों को हमले की जानकारी थी। स्कूलों में शिक्षक तो पहुंचे लेकिन बच्चे नदारत थे। इसके बाद भी सुरक्षाबलों को सतर्क नहीं किया गया। आश्चर्य इस बात का है कि लगातार ऐसे हमले हो रहे हैं और सुरक्षाबलों की रणनीति को ध्वस्त करने में हर बार नक्सली कामयाब हो जाते हैं इस हमले में भी कुछ ऐसा ही हुआ।
नक्सलियों ने उपयुक्त जगह का चयन करने के बाद बाकायदा अभ्यास कर घातक हमला किया। पीएसएस ने जवानों की हर तरह की गतिविधियां हासिल कर ली थी। मसलन कितनी संख्या में तोंगपाल थाने से जवान निकलते हैं, कितनी टुकडिय़ां बनाकर चलते हैं। जवानों के पास किस किस्म के हथियार हैं। किस समय जवान निकलते हैं और कब लौटते हैं आदि-आदि। तोंगपाल से जवानों के निकलते ही इस बात की सूचना मौके पर मौजूद नक्सलियों को लग गई और वे सुनियोजित तरीके से एंबुश लगाकर जवानों की ताक में बैठ गए। हमलावर नक्सली पांच दिनों से तोंगपाल और झीरमघाटी के इलाके में मौजूद थे। पहले वे झीरम घाटी में हमले की फिराक में थे। लेकिन वहां सीआरपीएफ की पोस्ट काफी ऊंचाई पर होने की वजह और सुरक्षा इंतजाम चाक-चौबंद होने के चलते उन्होंने अपना इरादा बदल दिया। इसके बाद उन्हें सड़क निर्माण में सुरक्षा देने में जुटे जवान आसान निशाना जान पड़े और वे अपने मंसूबों में कामयाब रहे। नक्सलियों ने हमले के बाद बेंगपाल और मारजूम के बीच के जंगलों में अपनी कामयाबी का जश्न मनाया। देर रात तक ढोल-नगाड़ों की गूंज सुनाई देती रही। बेंगपाल से गुजरे ग्रामीणों ने नक्सलियों को दो घायलों को लादकर ले जाते देखा।
पीएसएस लोकल ऑर्गनाइजेशन स्क्वॉड और अन्य सहयोगी संगठनों जन मिलिशिया, संघम सदस्यों, क्रांतिकारी आदिवासी महिला संगठन, चेतना नाट्य मंडली और बाल संघम की मदद से अचूक सूचनाएं हासिल करती है। इसका नेटवर्क इतना मजबूत है कि थाना व कैंप से पुलिस व दीगर सुरक्षा बलों के निकलते ही इसकी भनक नक्सलियों को लग जाती है। इस बीच वे एंबुश लगाकर उन्हें आसानी से निशाना बना लेते हैं। पुलिस अब तक इसकी काट नहीं तलाश पाई है। वर्ष 2010 में नक्सलियों ने मिलिट्री इंटेलीजेंस बनाई। एमआई भी सुरक्षा बलों जैसे ही जानकारी रखती है। इसकी सूचना पर ही सेंट्रल मिलिट्री कमीशन हमलों की रणनीति बनाने के साथ जगह तय कर लड़ाकों को अभ्यास करवाती है।
नक्सलियों ने हमले से पहले आसपास के गांववालों को सतर्क कर दिया था। वजह यही है कि टाहकवाड़ा स्कूल में शिक्षक तो पहुंचे थे पर एक भी छात्र-छात्रा नहीं पहुंचे। वहीं हमले से पहले बेंगपाल के करीब की देवगुड़ी में पूजा के लिए पहुंचे ग्रामीणों को नक्सलियों ने भगा दिया था। सीआरपीएफ व जिला बल की संयुक्त पार्टी जब टाहकवाड़ा की ओर सड़क निर्माण के लिए सुरक्षा देने निकली थी, तब गिनती के जवानों ने ही बुलेट पु्रफ जैकेट पहने हुए थे। शहीद जवानों को देखने के बाद पता चलता है कि ज्यादातर जवानों ने बीपी जैकेट का उपयोग ही नहीं किया था। जानकारों की मानें तो सामने चल रहे जवानों ने जैकेट पहने होते तो केज्युअल्टी काफी कम होती। नक्सलियों को पता था कि जवानों ने सुरक्षा उपाय नहीं किए हैं। ऐसे में उन्होंने एरो हेड फॉर्मेशन के आकार का खतरनाक एंबुश लगाया। पेड़ों के पीछे और खेतों की मेढ़ के पास उन्होंने प्रेशर बम लगा रखे थे, जो जवानों के पास आते ही फूट जाते थे।
भाजपा को नुकसान
लगातार दूसरे चुनाव में नक्सली हमला होने से भाजपा को राज्य में चुनावी नुकसान हो सकता है। पार्टी में टिकिट वितरण को लेकर पहले ही असंतोष है और यह कांड राज्य सरकार की नाकामी को उजागर कर सकता है। हालांकि मुख्यमंत्री रमन सिंह ने नक्सली हमले को चुनावी मुद्दा मानने से इनकार कर दिया है। लेकिन कांग्रेस नेता अजीत जोगी ने आरोप लगाया है कि सरकार नक्सलियों के प्रति नरम है और जानबूझकर संवेदनशील इलाको में ढील दे रही है। दरअसल नक्सली चाहते हैं कि उनके प्रभाव वाले क्षेत्र में लोग चुनाव में वोट न डालें। लेकिन जनता अब नक्सलियों से खौफ नहीं खाती है। कुछ दिन पहले ही बस्तर के एक गांव में नक्सलियों की खबर पुलिस तक गांव वालों ने ही पहुंचाई थी। ये लोग सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत मिलने वाले अनाज को लेने के लिए लगभग 60-65 किलोमीटर दूर सार्वजनिक वितरण केंद्रों पर पहुंच रहे हैं। ग्रामीणों की आवाजाही से साफ होता है कि नक्सलियों का प्रभाव पहले जितना नहीं रहा। स्वयं नक्सल कमांडर इस बात को स्वीकार कर रहे हैं। कुछ समय पूर्व नक्सलियों की एक बैठक हुई जिसमें नक्सल कमांडरों ने नक्सलवाद के घटते प्रभाव पर चिंता व्यक्त की थी।
दूसरा तथ्य यह भी है कि नक्सलियों के भीतर भी फूट पड़ चुकी है। आंध्रप्रदेश के नक्सली कमांडर अपना प्रभुत्व जमाना चाहते हैं। जिन्हें बिहार और पूर्वोत्तर के नक्सली कमांडरों की भूमिका नागवार गुजरती है। नक्सली चाहते हैं कि उनके कमांडर पूर्वोत्तर के ही हों। क्योंकि नक्सलवाद का जन्म इसी क्षेत्र में हुआ था, लेकिन इस तनातनी में नक्सलवादियों की पकड़ कमजोर हो रही है। सरकार का भी यही मानना है कि भले ही नक्सलवादी सुरक्षाबलों को निशाना बनाने में कामयाब रहे हैं, लेकिन सच तो यह है कि वे चाह कर भी अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। सुरक्षाबलों ने नक्सल तंत्र के बीच अच्छी सेंध लगाई है, लेकिन असल चिंता यह है कि बस्तर के जंगलों में अभी भी उनका ही साम्राज्य है और वे समानांतर सरकार चला रहे हैं। लोगों के बीच से नक्सलियों को पहचानना आसान नहीं है। क्योंकि जनता उनसे भय खाती है और इसी कारण उन्हें समर्थन भी देती है। स्थानीय व्यापारी से लेकर कई बड़ी इंडस्ट्री डर के मारे नक्सलियों को चौथ भी देती है। यदि पुलिस इस डर को निकालने में कामयाब रही तो नक्सलवाद की कमर टूट सकती है
पर इसके साथ-साथ राजनीतिक प्रयास भी करने ही होंगे।