18-Mar-2014 09:42 AM
1234804
आंध्र में कांग्रेस से अलग हुए भूतपूर्व मुख्यमंत्री किरण रेड्डी ने अपनी अलग राजनैतिक पार्टी बना ली है पार्टी का औपचारिक ऐलान भले ही 18 मार्च को होगा लेकिन लोकसभा चुनाव की दृष्टि से उनकी जय समैक्य आंध्रा प्रजा समिति

(जेएसपीएस) कांग्रेस के लिए सरदर्द ही है। राज्य में चंद्रबाबू नायडू और वाईएसआर कांग्रेस के जगहमोहन रेड्डी काफी प्रभावशाली बनकर उभरे हैं ऐसी स्थिति में चंद्रबाबू नायडू का भाजपा की तरफ जाना त्रिकोणीय संघर्ष की तरफ इशारा कर रहा है और यदि ऐसा होता है तो ये तय है कि इस बार कांग्रेस का सीमांध्र से सफाया हो जाएगा लेकिन अकेले सीमांध्र की बात नहीं है । तेलंगाना में भी कांग्रेस का प्रभाव टीआरएस के कारण उतना महत्वपूर्ण नहीं रह गया है यही वजह है कि विधानसभा चुनाव साथ-साथ होने से कांग्रेस को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। किरण रेड्डी की पार्टी का चुनाव चिन्ह चप्पल होगा। पूर्व सांसद श्रीहरि राव ने मूल रूप से इस पार्टी का रजिस्ट्रेशन कराया था और वह जन समैक्य आंध्रा के संस्थापक अध्यक्ष होंगे जबकि किरण इसके अध्यक्ष होंगे। कांग्रेस के निष्कासित सांसद ए साई प्रताप, जी वी हर्ष कुमार, यू अरुण कुमार, एस हरि इसके उपाध्यक्ष होंगे। राज्य के दो पूर्व मंत्रियों को भी उपाध्यक्ष बनाया गया है। किरण ने एक समिति की भी घोषणा की, जिसमें पांच महासचिव, एक कोषाध्यक्ष और दो सदस्य होंगे। कांग्रेस के एक अन्य निष्कासित सांसद रायपति संभाशिव राव को समिति में स्थान नहीं मिला है। वहीं एक अन्य निष्कासित सांसद एल राजगोपाल को भी शामिल नहीं किया गया है क्योंकि उन्होंने राज्य का विभाजन होने की स्थिति में राजनीतिक संन्यास लेने की घोषणा की थी। राजगोपाल पिछले महीने लोकसभा में तेलंगाना विधेयक पर चर्चा के दौरान मिर्च स्प्रे का उपयोग करने को लेकर चर्चा में आए थे। किरण ने कहा कि हमने उन पर पार्टी में शामिल होने के लिए दबाव नहीं डाला क्योंकि उन्होंने लोगों से एक वादा किया है। लेकिन वह हमारे प्रेरक होंगे। कांग्रेस ने जिस तरह तलांगाना का गठन किया उससे आंध्र और तेलांगाना दोनों क्षेत्रों में कांग्रेस की ताकत कम हुई है यदि यही हाल रहा तो इस राज्य से भी कांग्रेस का सफाया होना तय है। भाजपा यहां अपना जनाधार बनाने की कोशिश में है। तेलांगाना विधेयक के समय भाजपा ने जो रूख अपनाया उसका फायदा है न नुकसान।
तेलंगाना में भाजपा अवश्य कोई चमत्कार दिखा सकती है यदि टीआरएस उसके निकट आती है। फिलहाल टीआरएस किसी के खाते में नहीं है। देखना है कि ऊंट किस करवट बैठता है पहले यह संकेत मिला कि तेलंगाना राष्ट्र समिति का कांग्रेस में विलय हो जाएगा, किंतु दुविधा यह है कि विलय होने की स्थिति में टीआरएस के नेताओं को क्या मिलेगा यह तय नहीं है। क्या के. चंद्रशेखर राव मुख्यमंत्री बनेंगे। कांग्रेस की संस्कृति यह है कि छोटे राज्यों के मुख्यमंत्री आमतौर पर केंद्र द्वारा थोपे जाते हैं। छत्तीसगढ़ में विद्याचरण शुक्ल को नजरअंदाज कर सोनिया के इशारे पर अजीत जोगी को कमान सौंपी गई, उत्तराखंड में हाल ही में बहुगुणा स्थानीय नेताओं के विरोध के बावजूद मुख्यमंत्री के रूप में थोपे गए जिन्हें बदलना पड़ा। तेलंगाना में भी कुछ ऐसी ही आशंका भांपकर टीआरएस ने कांग्रेस से दूरिया बना ली है। टीआरएस के नेता केटी रामाराव का कहना है कि टीआरएस कांग्रेस में विलय अथवा चुनाव पूर्व गठबंधन के लिए बाध्य नहीं है। यह निर्णय तभी लिया जाएगा जब तेलंगाना का औपचारिक रूप से गठन होगा। कांग्रेस के लिए यह दुविधा वाली स्थिति है क्योंकि टीआरएस ने कांग्रेस से विलय का वादा किया था ऐसा सूत्रों का कहना है। अब एक तरफ कुआं और एक तरफ खाई वाली स्थिति पैदा हो चुकी है। यदि कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ती है तो तेलंगाना में कई मुद्दे उभर सकते हैं। दूसरी तरफ सीमांध्र में कांग्रेस के सफाए की पूरी संभावनाएं हैं। खबर यह भी है कि चिरंजीवी को मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है क्योंकि आंध्र के वर्तमान मुख्यमंत्री अपना पद छोड़कर पार्टी से भी रुख्सत हो चुके हैं। कई बड़े नेता तेलंगाना के सदमे से उभर नहीं पाए हैं। यदि टीआरएस से चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं हुआ तो कांग्रेस की आकांक्षाओं पर कुठाराघात होगा। दक्षिण भारत में कर्नाटक और तेलंगाना ही कांग्रेस की आशा के केंद्र हैं बाकी राज्यों से तो उसका सफाया तय है। टीआरएस के नेता बी. विनोद का कहना है कि पार्टी के 90 प्रतिशत कार्यकर्ता चाहते हैं कि टीआरएस एक स्वतंत्र राजनीतिक हस्ती के रूप में काम करे। विनोद का कहना है कि टीआरएस की लोकप्रियता को देखते हुए अन्य दलों के विधायक टीआरएस से जुडऩे की ख्वाहिश रखते हैं। पिछले 13 वर्ष से टीआरएस लगातार तेलंगाना के लिए संघर्ष कर रही है। जबकि कांग्रेस का कहना है कि तेलंगाना के गठन का श्रेय सोनिया गांधी को है जिन्होंने तेलंगाना के लिए आंध्र में कांग्रेस की दुर्गति भी स्वीकार ली। उधर भारतीय जनता पार्टी भी कुछ उम्मीद लगाए बैठी हैं। सीमांध्र और तेलंगाना में उसकी उपस्थिति शून्य ही है, लेकिन तेलंगाना गठन में सहयोग देकर उसने मतदाताओं को अपनी तरफ खींचने की कोशिश की है। नरेन्द्र मोदी फैक्टर आंध्र प्रदेश में काफी प्रभावी चल रहा था लेकिन यह फैक्टर तेलंगाना प्रकरण के कारण अब उतना प्रभावी नहीं है तब भी सीमांंध्र में नायडू और तेलंगाना में टीआरएस का साथ मिलने पर एनडीए की ताकत बढ़ सकती है।