तेलंगाना पर राजनीति
03-Mar-2014 09:06 AM 1235006

तेलंगाना जैसे राज्य भले ही जनआंदोलन से जन्में हों, लेकिन सच तो यह है कि राज्यों का पुनर्गठन राजनीतिक दलों की महत्वाकांक्षा का परिणाम है। इसीलिए देश में हर क्षेत्र से राज्य बनाने की मांग उठ रही है। इस वक्त देश में 17 और राज्यों का पुनर्गठन करने के लिए छोटे-बड़े आंदोलन चल रहे हैं और यह आंदोलन राजनीतिक दलों ने ही पैदा किए हैं। क्योंकि मंत्री और मुख्यमंत्री बनने की चाहत रखने वाले नेताओं की तादाद अच्छी-खासी है। उधर कांग्रेस भाजपा जैसी बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां छोटे राज्यों का गठन करके वहां राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करना चाहती हैं। दरअसल पंडित जवाहरलाल नेहरू भाषाई आधार पर राज्यों के गठन के खिलाफ थे, लेकिन अब तो क्षेत्रीय आधार पर भी राज्य गठित होने लगे हैं। सामाजिक कार्यकर्ता श्रीरामालू ने मद्रास से आंध्रप्रदेश को अलग किए जाने की मांग को लेकर 58 दिनों तक लगातार अनशन किया था उसके बाद उनकी मृत्यु हो गई और कम्युनिष्ट पार्टियों का वर्चस्व बढऩे लगा। जिसे देखते हुए कांग्रेस ने मद्रास से आंध्रप्रदेश को अलग कर दिया। विडम्बना देखिए कि तेलंगाना विधेयक कांग्रेस और भाजपा के गुप्त समझौते के चलते देश की आंखों में धूल झोंकते हुए अंतत: पारित हो गया। क्योंकि आंध्र में क्षेत्रीय पार्टियों की ताकत बढऩे लगी थी। 22 दिसंबर 1953 को जब न्यायाधीश फजल अली की अध्यक्षता में पहले राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ तब इसके तीन सदस्य अली के अतिरिक्त हृदयनाथ कुंजरू और केएम पाणिक्कर ने राज्य गठन की कुछ मर्यादा तय की थी इस आयोग की रिपोर्ट 1956 में आई और भाषाई आधार पर 14 राज्य व 6 केंद्र शासित प्रदेश बनाए गए। उस वक्त भी कांग्रेस ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पुष्ट करने के लिए इन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों का गठन किया। हालांकि यह भी सच है कि बड़े राज्यों के चलते कामकाज में दिक्कत आ रही थी बाद में बंबई राज्यों को तोड़कर महाराष्ट्र और गुजरात 1960 में बनाए गए। गौरतलब है कि दोनों राज्यों में तब क्षेत्रीय पार्टियां सर उठाने लगी थी। 1966 में पंजाब और हरियाणा के वक्त राज्यों का विवाद बढ़ चुका था। पंजाब और हरियाणा के साथ-साथ हिमाचल भी 1966 में अस्तित्व में आया। हिमाचल का गठन केवल इसलिए किया गया कि वह एक पहाड़ी क्षेत्र था। लेकिन उसके बाद राज्यों का गठन कांग्रेस ने अपने राजनीतिक हितों को ध्यान में रखते हुए किया। 1972 में मेघालय, मणिपुर और त्रिपुरा जैसे राज्यों का गठन होने के साथ ही यह विवाद चल पड़ा कि छोटे-छोटे राज्यों को बनाने की क्या तुक है कांग्रेस हर बार यही कहती रही कि इससे प्रशासन अच्छा चलता है, लेकिन पूर्वोत्तर की समस्या आज भी ज्यों की त्यों है। 1987 में मिजोरम का गठन किया गया। मिजोरम के गठन के पीछे भी कांग्रेस की राजनीतिक महत्वाकांक्षी थी। चुनाव से पहले राजीव गांधी ने अरुणाचल प्रदेश और गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जिसका फायदा मिला। केंद्र में लगभग छह वर्ष तक राज करने वाली भाजपा नीत एनडीए सरकार भी कहीं न कहीं अपना राजनीतिक आधार बनाने की कोशिश में थी। इसीलिए उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ अस्तित्व में आ गए। हालांकि इन तीनों राज्यों की मांग लगे समय से की जा रही थी।
संसद में कैमरा ब्लैकआउट
लोकसभा में कुल एक घंटे 25 मिनट का अद्भुत दृश्य, संसदीय इतिहास में न भूलने वाली घटना बन गया। तीन बजे सदन की कार्यवाही शुरू हुई और चार बजकर 25 मिनट पर यानी महज डेढ़ घंटे में आंध्र प्रदेश को बांटकर अलग तेलंगाना राज्य बनाने का विधेयक पारित कर दिया गया। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के एक फोन से भाजपा की रणनीति बदली और सरकार की राह विधेयक पर आसान हो गई। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह खुद सदन में बैठकर पूरी स्थिति को मॉनीटर कर रहे थे। इसके पहले सरकार के रणनीतिकार भाजपा नेताओं से मिलकर सरकार का स्पष्ट संदेश पहुंचा चुके थे। किसी अनहोनी को टालने के लिए सत्ता पक्ष व विपक्ष, दोनों जल्दबाजी में दिखे। सत्ता पक्ष से गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के अलावा केवल जयपाल रेड्डी बोले। विपक्ष से एकमात्र वक्ता थीं नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज। शिंदे महज पांच मिनट बोले। सुषमा करीब दस मिनट बोलीं। जयपाल रेड्डी को भाषण शुरू करने के तीन मिनट के बाद ही रुकने को कहा गया। दरअसल विधेयक पारित कराने की रणनीति दोपहर डेढ़ बजे के करीब बन गई थी जब भाजपा नेताओं को लगा कि सरकार किसी भी सूरत में विधेयक पारित कराने पर आमादा है।  सूत्रों के मुताबिक, भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह को पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के फोन करके कहा कि विधेयक पर संशय की स्थिति ठीक नहीं है, इसे पारित नहीं करवाया गया तो गलत संदेश जाएगा। बस इसके बाद से ही भाजपा की रणनीति बदल गई। लाल कृष्ण आडवाणी ने भाजपा नेताओं को दो टूक कह दिया था कि पूरी चर्चा के बाद ही बिल पास होना चाहिए। लेकिन मोदी समर्थक भाजपा नेताओं ने आडवाणी की दलील को अनसुना करते हुए बिल को पास कराया। लोकसभा की नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने हालांकि यह तर्क दिया है कि यदि भाजपा कोई विरोध करती तो कांग्रेस यह अफवाह फैलाती कि भाजपा बिल का विरोध कर रही है। पार्टी ने ऐसा नहीं होने दिया। उन्होंने कहा है कि आडवाणी बिल पास कराने के तरीके से सहमत नहीं है लेकिन वह तेलंगाना के विरोध में नहीं हैं।

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