03-Mar-2014 11:44 AM
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नरेंद्र मोदी का इतिहास अब कांग्रेस पर भारी पड़ रहा है। आम आदमी पार्टी ने अपना नाम ही इस तरह का रखा है कि वह आम आदमी के निकट कहलाती है। मोदी स्वयं को चाय वाला बताकर देश की

आम जनता के करीब जा चुके हैं, लेकिन राहुल बाबा अभी भी जनता की नजरों में राजा ही बने हुए हैं। उन्होंने थोड़ी बहुत कोशिश की थी कि राजा की बजाय सेवक बन जाएं, लेकिन उनकी कोशिशें बेकार गईं। मणिशंकर अय्यर ने बचे-खुचे अभियान पर यह कहते हुए पानी फेर दिया कि मोदी चाहें तो कांग्रेस अधिवेशन में चाय बेच सकते हैं। इससे यह संदेश गया कि कांग्रेस की नजर में चाय जैसे मामूली पेशों की कोई इज्जत नहीं है। राहुल गांधी ने सफाई दी और वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने भी अय्यर के बयान से असहमति प्रकट की, लेकिन नुकसान तो हो चुका था। जिस देश में मुद्दों की नहीं शब्दों की राजनीति चलती हो वहां हर शब्द संभलकर बोलना पड़ता है। लिहाजा अब कांग्रेस चाय की जगह दूध पिला रही है और मोदी की चाय को जहरीली बता रही है। गोरखपुर में चेतना तिराहे पर जब एक तरफ कांग्रेस के कार्यकर्ता लोगों को राहुल मार्का दूध पिलाते दिखे और भाजपा के कार्यकर्ता चाय पिलाते दिखे तो लोकतंत्र का यह बड़ा हास्यास्पद रूप सामने आया। दोनों राष्ट्रीय दलों में जमीन का आदमी बनने की होड़ लगी हुई है और जमीन का आदमी बेचारा यह चाह रहा है कि वह भले ही आसमान तक न पहुंचे, लेकिन उसके कदम कुछ तो बढ़ें।
और कुछ भी दरकार नहीं है तुझसे
मेरी चादर मेरे पैरों के बराबर कर दे।
चादरों के बाहर पैर निकल रहे हैं और अर्थशास्त्रियों के देश में अर्थव्यवस्थाएं चरमरा रही हैं। ऐसे में मोदी की चाय को जहरीली कहा जाए या राहुल के दूध को पौष्टिक लेकिन जरूरत तो दो बूंद पानी की है जिसकी तलाश में आज भी महानगरों में लाखोंं लोग भटकते हैं। जहां दो बूंद पानी मयस्सर न हो वहां चाय और दूध की सियासत हजम नहीं होती।
बहरहाल मोदी यह भी कहते हैं कि उनके आगे नाथ है न पीछे पगहा। परिवार विहीन व्यक्ति हैं इसलिए भ्रष्टाचार नहीं करेंगे। यह कहां का तर्क है। क्या जिनका परिवार रहता है वह ईमानदार नहीं होते। ईमानदारी का यही ढिंढोरा राहुल भी पीट रहे हैं और संसद में कुछ विधेयक पारित कराने पर आमादा हैं। जिनके चलते लोगों के भ्रष्टाचार पर रोक लग सकेगी। दूध और चाय शुद्ध मिलने लगे तो हम मानेंगे कि भ्रष्टाचार नहीं हो रहा है। जहां तक दूध की बात है इस देश में कुपोषित बच्चों का आंकड़ा शर्मनाक है। राहुल गांधी यदि पिछले एक दशक में सत्ता में रहते हुए उन बच्चों के मुंह में दूध डालने की कोशिश करते जो कुपोषण के अभाव में दम तोड़ रहे हैं तो शायद ज्यादा बेहतरी से काम होता। मोदी भी गुजरात के कच्छ में बीमार हो चुके उद्योगधंधों को संवारने की कोशिश करते तो शायद उन परिवारों को राहत मिलती जो रोजगार के अभाव में भटक रहे हैं और पलायन को मजबूर हैं। दूध और चाय का दिखावा करने से कुछ नहीं होगा। न चाय की बहस काम आएगी और न दूध का दुधारूपन।
काम तो संवेदनाएं ही अंतत: आएंगी। इस देश को राजनीति की नहीं संवेदनाओं की जरूरत है और एक ऐसा संवेदनशील व्यक्ति इस देश की सत्ता को चाहिए जो सच्चे अर्थों में जनता का दुख दूर कर सके। केजरीवाल ने दिल्ली में पानी मुफ्त देकर पानी की राजनीति की, लेकिन जब लगा कि दिल्ली की समस्याओं को हल करना संभव नहीं है तो एक तरफ खड़े हो गए। सिर्फ एक लालच में कि कल को राष्ट्रीय राजनीति में कोई भूमिका निभाने का अवसर मिल जाए, लेकिन ऐसा संभव नहीं है। मनीष तिवारी ने कभी आम आदमी पार्टी पर टिप्पणी करते हुए कहा था एवरी-डे इज नाट ए संडे। सच बात है। हर बार ऐसा नहीं होगा कि केजरीवाल को 8-10 सीटों की जरूरत पड़े और कांग्रेस इसकी पूर्ति कर दे। राष्ट्रीय राजनीति का रास्ता ज्यादा पेंचीदा है। दिल्ली राष्ट्रीय राजनीति का निचोड़ हो सकती है, लेकिन संपूर्ण नहीं हो सकती। राष्ट्रीय राजनीति में तो वही ठहरेगा जो जनता के बीच जाकर काम करेगा और जनता को बदलाव परिलक्षित होगा फिर चाहे वे जहरीली चाय पिलाने वाले लोग
हों या मीठा दूध पिलाने वाले या शुद्ध पानी पिलाने वाले।
आम आदमी के बीच जाने के लिए इन सारी तरकीबों की आवश्यकता नहीं है। आम आदमी को तो राहत चाहिए। महंगाई से, बेरोजगारी से, भुखमरी से और अव्यवस्थाओं से राहत। उसे एक निर्भय जीवन चाहिए, जिसमें निर्भयाओं के साथ पाश्विक बलात्कार न हो। उसे स्वच्छ राजनीति चाहिए, जिसमें हत्यारों को छोडऩे के लिए राजनीतिक दलों की लामबंदी न हो। उसे एक ताकतवर सरकार चाहिए जो पड़ोसियों की हरकतों का सोच-समझकर जवाब दे सके। जिसमें यह काबिलियत होगी सत्ता उसे ही मिलेगी यह तय है।