03-Mar-2014 09:11 AM
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बिहार में लालू यादव की पार्टी राजद से पहले 13 विधायकों की बगावत की खबरें आईं बाद में 9 वापस लौटे तो लालू को राहत मिली। उधर पासवान की बेवफाई ने उन्हें चिंतित कर दिया। पिछले दो

दशक की राजनीति के बारे में कहा जाता है कि जिस तरफ पासवान होंगे वही सरकार बनाएगा। जैसे द्वार पर शुभचिंह के रूप में लोग गणपति स्थापित करते हैं वैसे ही गठबंधन सरकारों की शोभा कुछ नेता सदैव बढ़ाते हैं जिनमें रामविलास पासवान का नाम सबसे ऊपर है। पासवान में कुछ अद्भुत शक्ति है जिससे वे भांप लेते हैं कि आगामी सरकार किसकी बनने वाली है और उसी के साथ हो लेते हैं। इस बार भी हवा का रुख देखकर कांग्रेस के साथ रहे रामविलास पासवान ने भाजपा से हाथ मिला लिया है। इस बात का संकेत लोजपा नेता सूरज भान सिंह ने दिया। सिंह ने कहा कि सीटों को लेकर बड़े नेताओं के साथ आपसी सहमति बन गई है। सम्भव है पासवान ने आगामी सरकार में अपना पोर्टफोलियो भी तय कर रखा हो। बहरहाल चुनाव पूर्व समझौता हुआ है तो यह भी सुनिश्चित है कि पासवान आगामी सरकार का हिस्सा होंगे। इस समझौते ने जदयू को परेशानी में डाल दिया है क्योंकि रामविलास पास अति पिछड़े वर्ग से आते हैं, मोदी पिछड़े वर्ग के होने के कारण वैसे भी इस वर्ग के वोट बड़ी संख्या में खींचने के काबिल हैं यदि पासवान का वोट बैंक जुड़ गया तो बिहार में काफी फायदा दोनों को मिलेगा यह गठबंधन 40 सीटें तक लाने की ताकत रखता है। इसका फायदा उत्तरप्रदेश में भी मिलेगा। बिहार में भाजपा का उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के साथ भी गठबंधन हो गया है। रालोसपा को भाजपा ने तीन सीटें दी हैं- नवादा, कटिहार और काराकाट। सूत्रों का कहना है कि कांग्रेस और राजद के गठबंधन पर भी मुहर लग गई है। इसके साथ राकांपा भी होगी। कहा जा रहा है कि राजद 27 सीटों पर चुनाव लड़ेगी, 13 पर कांग्रेस और 1 सीट पर राकांपा। पासवान से लालू की दूरी के संकेत 2013 में ही मिल गए थे जब आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव जेल गए थे। दरअसल यह सब रामविलास पासवान और लालू प्रसाद के पुत्र-प्रेम के कारण घटित हुआ। दोनों अपने-अपने बेटों के भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए प्रयासरत थे और उसके हिसाब से ही काम कर रहे थे। जब लालू प्रसाद ने अपने बेटों के लिए मंच तैयार किया था तो एलजेपी ने कुछ नहीं कहा लेकिन जब पासवान ने अपने बेटे चिराग पासवान को आगे बढ़ाना शुरू किया तो आरजेडी नाराज हो गई। उसके एक नेता जावेद अंसारी ने एलजेपी को विश्वासघाती पार्टी बताया। लालू के खास मित्र रघुवंश प्रसाद सिंह ने तो यह भी कहा कि आरजेडी को लोकसभा की 40सीटों पर चुनाव लडऩा चाहिए। एलजेपी ने इस बात पर उन्हें आड़े हाथों लिया था।
बताया जाता है कि रामविलास पासवान लोक सभा चुनाव में जेडी (यू) के साथ जाने की संभावना पर भी गौर कर रहे थे। लेकिन यह बात आरजेडी को पसंद नहीं आयी। वह चाहती है कि पहले की तरह ही एलजेपी उनके साथ चुनाव लड़े। वहीं नीतिश ने भी पासवान को घास नहीं डाली बाद में एलजेपी के संसदीय बोर्ड के चेयरमैन चिराग पासवान ने कहा था कि अगर स्थितियां विपरीत रहीं तो हम सभी 40सीटों पर अकेले ही चुनाव लड़ेंगे। चिराग पासवान ने तो यह भी कहा था कि उनके पास इतनी ताकत है कि वह अकेले ही चुनाव लड़ सकते हैं। चिराग बीजेपी की ओर झुक रहे थे और वह उनसे चुनावी समझौता करने को उत्सुक थे। रामविलास पासवान को एनडीए ने मंत्री पद दिया था लेकिन कांग्रेस ने कोई पद नहीं दिया। इस बात की तकलीफ बाप-बेटे दोनों को थी।
जातीय समीकरण में उलझे नीतिश
रामविलास पासवान के पाला बदलने से बिहार के मुख्यमंत्री और जनतादल यूनाइटेड के नेता नीतिश कुमार जातीय समीकरण में फंसते दिखाई दे रहे हैं। बिहार में पिछड़े और अति पिछड़ों की संख्या अच्छीखासी है। भाजपा नारा दे रही है कि एक पिछड़े को प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिए जो कभी चाय बेचता था। कुछ दिन पहले नरेंद्र मोदी ने भी कहा था कि वे राजनीतिक रूप से अछूत है और उनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार किया जाता है। नरेंद्र मोदी को केंद्र में रख की जा रही राजनीति ने नीतिश की नींद इसलिए हराम कर दी है क्योंकि बिहार में मुस्लिम वोट का बंटवारा आमतौर पर कांग्रेस, राजद और जनतादल यूनाइटेड के बीच होता है। यदि यह वोट बंटता है तो तीनों में से कोई भी फायदे में नहीं रहेंगे। बल्कि उन सीटों पर जहां मुस्लिमों की तादाद 20 प्रतिशत से अधिक है। भाजपा और पासवान के गठबंधन की जीतने की संभावना प्रबल हो जाएगी। इसीलिए सभी वर्गों में अपनी पकड़ बनाना नीतिश कुमार को चुनौती भरा लग रहा है। कभी भाजपा के साथ जब उनका गठबंधन था उस वक्त दोनों दलों ने समाज के हर वर्ग को अपने पक्ष में करने की कोशिश की थी और इसमें काफी सफलता भी मिली थी। नीतिश वैसे भी सोशल इंजीनियरिंग के माहिर समझे जाते हैं। लेकिन उनकी यह महारत इस बार कामयाब होते नहीं दिख रही। बिहार में वे अलग-थलग हैं और जिन वामपंथियों का साथ उन्होंने लिया है उनका जनाधार मुख्यत: नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में है। नक्सल प्रभावी क्षेत्रों में वोट देने के लिए ज्यादातर मतदाता नहीं निकलते हैं। आमतौर पर नक्सलवादी मतदान का बहिष्कार किया करते हैं और फिर नीतिश ने विकास का जो मॉडल अपनाया है जिसके आधार पर वे 14 प्रतिशत विकास दर का दावा कर रहे हैं। वह मॉडल नक्सलवादियों को पूरी तरह नापसंद है और उस मॉडल को उन्होंने रेड कॉरीडोर में बलपूर्वक रोक रखा है। इसलिए वामदलों के साथ नीतिश की जुगलबंदी बहुत फायदेमंद साबित नहीं होगी।