18-Feb-2014 06:17 AM
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बिहार के खगडिय़ा जिले के मोरकाही थाना क्षेत्र के अमौसी भरेन गांव में 2 अक्टूबर 2009 की रात भूमि विवाद को लेकर छह बालकों सहित 16 लोगों की गोली मारकर हत्या करने वाले आरोपियों को पटना हाईकोर्ट द्वारा बरी किए जाने के फैसले ने बिहार में नए विवाद को जन्म दिया है। इन आरोपियों को फरवरी 2012 में निचली अदालत ने कड़ी सजा सुनाते हुए 10 को मृत्युदंड व चार को आजीवन कारावास दिया था। किंतु पटना हाईकोर्ट ने संदेह का लाभ देते हुए सभी को बरी कर दिया है। न्यायाधीश वीएन सिन्हा एवं न्यायाधीश राजेंद्र कुमार मिश्रा की खंडपीठ ने अपने 77 पृष्ठ के फैसले में कहा है कि अभियोजन पक्ष की ओर से दिए गए साक्ष्य में अनेक प्रकार की गड़बडिय़ां पाई गई हैं। जिसकी वजह से किसी को न तो मृत्युदंड दिया जा सकता है और न ही आजीवन कारावास। कोर्ट ने पुलिसिया जांच पर भी सवाल उठाया और खगडिय़ा के डीएम को निर्देष दिया कि पीडि़त पक्ष को मुआवजा दिया जाए। इस अनोखे फैसले के बाद राज्य के महाधिवक्ता ने सुप्रीम कोर्ट जाने का संकेत दिया है। न्यायाधीशों का कहना था कि अभियुक्तों के नाम बाद में बदल दिए गए और पुलिस ने बाद में 37 लोगों को अभियुक्त बनाया। गवाही में भी एकरूपता नहीं थी। गवाहों ने अलग-अलग तरीके से घटना को कोर्ट में प्रस्तुत किया, जिसके चलते अभियुक्तों को संदेह का लाभ देना तय था।
इस दिल दहला देने वाले हत्याकांड में बरी होने वाले अभियुक्तों के नाम हैं सिकंदर सदा, सज्जन सदा, तारिणी सदा, सुशील सदा, सनातन सदा, हरिलाल सदा, दिलीप सदा, राम सदा, बिल्लौ सदा, बोरहन सदा- इन सभी को निचली कोर्ट ने फांसी की सजा दी थी जबकि ओपी मेहतो, घुरन सदा, लड्डू लाल सदा एवं उमेश मेहतो को आजीवन कारावास की सजा दी गई थी।
अब प्रश्न यह है कि लाशें तो गिरी थीं कुछ की गर्दन काटी गई थी, कुछ को गोली मारी गई थी। इन लाशों को सबने देखा। पुलिस ने भी देखा और सरकार ने मुआवजा भी दिया। किंतु यह पता नहीं चला कि 16 लोगों की हत्या करने वाले लोग कौन है। पटना हाईकोर्ट का कहना है कि पुलिस ने इसके लिए पर्याप्त सबूत एकत्र नहीं किया। जबकि पुलिस कह रही थी कि उसने वैज्ञानिक अनुसंधान किया। यह कैसा वैज्ञानिक अनुसंधान था कि 16 लोग मारे गए और पुलिस को भनक तक नहीं लगने दी गई। इससे साफ जाहिर होता है कि कहीं न कहीं पुलिस की अपराधियों से मिलीभगत थी जिसके कारण जान बूझकर मुकदमा इतना कमजोर बनाया गया कि वह अदालत में ही नहीं ठहर पाया। हाईकोर्ट के लंबे फैसले में पुलिसिया गड़बड़ी का विस्तार से जिक्र है। सवाल यह भी है कि यदि सभी आरोपी बेकसूर थे तो उन्हें जेल क्यों भेजा गया। उनका नुकसान हुआ, कुछ की नौकरी भी चली गई। उन्होंने मानसिक और शारीरिक प्रताडऩा झेली क्या उन्हें मुआवजा मिलेगा या नौकरी दी जाएगी। बिहार में ऐसा होता रहा है। जघन्य घटनाओं के बाद पुलिस की विवेचना कुछ इस तरह होती है कि अपराधियों को इत्मीनान रहता है कि वे छूट जाएंगे और उनका बाल का बांका भी नहीं होगा। एक दिसंबर 1997 को लक्ष्मणपुर बाथे में 58 लोग मारे गए थे यह मामला न्याय की दहलीज पर 16 वर्ष तक चलता रहा। अक्टूबर 2013 में इस कांड के सभी 56 आरोपियों को बरी कर दिया गया। राज्य सरकार ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। इसके अलावा भी मियांपुर, जहीरबिगहा और गया नरसंहार के आरोपी भी बिना सबूत के छूट चुके हैं। लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार में तो 11 वर्ष बाद 46 लोगों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल हुई थी। इन सारी घटनाओं ने इस बात की पुष्टि की है कि बिहार में अपराधियों को संरक्षण देने वाला तंत्र पुलिस के बीच अभी भी फल फूल रहा है। अमौसी नरसंहार तो नीतिश कुमार के राज में ही हुआ। इसलिए वे भी यह कहने का साहस नहीं कर सकते कि उन्होंने बिहार से जंगल राज को पूरी तरह रुखसत कर दिया है। बिहार में पुलिस की कार्यप्रणाली लगभग वैसी ही है जैसी लालू यादव के कार्यकाल में हुआ करती थी। हाईकोर्ट द्वारा अपराधियों को बरी किए जाने के बाद अब सरकार अपना मुंह छिपा रही है। सरकार का कहना है कि फैसले का अध्ययन किया जाएगा। वैसे सुप्रीम कोर्ट में सरकार को ज्यादा राहत मिलने की अपेक्षा नहीं।