ब्रांड मोदी बनाम ब्रांड राहुल
18-Feb-2014 07:46 AM 1234834

दिल्ली में कांग्रेस के अधिवेशन में जब राहुल गांधी की बहुप्रतीक्षित दावेदारी से कांग्रेस की शीर्ष नेता सोनिया गांधी ने इनकार कर दिया तो मीडिया जगत को यह बड़ा अप्रत्याशित फैसला लगा। बीते दिसंबर में 4 राज्यों में करारी चुनावी पराजय के बाद सोनिया गांधी ने आश्वासन दिया था कि कांग्रेस शीघ्र ही अपने प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी का नाम सार्वजनिक करेगी। एक तरह से यह राहुल के नाम पर अंतिम मुहर लगाने जैसा ही था और तभी से लगातार राहुल बनाम मोदी पर केंद्रित चुनावी घमासान को मीडिया ने बढ़ावा दिया। किंतु सोनिया गांधी दूर की सोचती हैं। उनकी दूरदर्शिता का नजारा हम 2004 में देख चुके हैं। इसलिए जब उन्होंने राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने से इनकार कर दिया तो कहीं न कहीं यह समझ में आया कि रण छोडऩे की इस रणनीति के पीछे भविष्य की संभावनाएं छिपी हुई हैं।
यह निर्विवाद है कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के रूप में इस देश में पहली पसंद नहीं माना जाता। वे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से भी पीछे हैं जो जुमां-जुमां कुछ माह पहले ही राजनीति में आए हैं। ऐसे हालात में राहुल गांधी को बतौर प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट करना और फिर सुनिश्चित पराजय का भार उन पर लादना सोनिया को रास नहीं आया। लेकिन पीछे हटने की यह रणनीति आने वाली कांग्रेसी राजनीति का स्पष्ट संकेत है।
राहुल गांधी कांग्रेस का युवा चेहरा हंै। स्वयं राहुल गांधी कांगे्रस में अमूलचूल बदलाव करना चाहते हैं। एक ऐसा बदलाव जिसके तात्कालिक परिणाम शायद उतने उत्साहजनक न हों, लेकिन दूरगामी परिणाम अवश्य ही सकारात्मक निकल सकते हैं और लंबी रेस तक दौडऩे वाले घोड़े के समान कांग्रेस अगले दशक की राजनीति में एक प्रमुख हस्ती बन सकती है। तमाम विरोधाभाषों के बावजूद यह सत्य है कि आज भी इस देश में कांग्रेस को 28 प्रतिशत वोट मिलते हैं जो कि भाजपा जैसी प्रमुख विपक्षी पार्टियों के मुकाबले भी 12 प्रतिशत अधिक हैं। इतनी बड़ी संख्या में समर्थकों वाली पार्टी के पास एक सुनिश्चित दूरगामी दृष्टिकोण होना आवश्यक है। इस तथ्य से सोनिया भी अनजान नहीं है। इसीलिए उन्होंने राहुल गांधी को प्रोजेक्ट करने से पहले यह मुनासिब समझा कि देश में राहुल गांधी एक युवा चेहरे के रूप में स्थापित हो जाएं।
राहुल गांधी की ब्रांड इमेज बनाने वाली 500 करोड़ रुपए के अभियान का भी मुख्य लक्ष्य यही है। युवाओं के बीच राहुल गांधी नरेंद्र मोदी के मुकाबले पीछे हैं। यद्यपि उनकी उम्र नरेंद्र मोदी से 20 वर्ष कम है, लेकिन शहरी और ग्रामीण शिक्षित वर्ग में नरेंद्र मोदी ने गहरी पकड़ बना ली है। उधर जिन युवाओं का मौजूदा राजनीति से मौह भंग है उनके बीच अरविंद केजरीवाल एक लोकप्रिय नाम है। किंतु इन चुनाव में मुख्य मुकाबला तो राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी के बीच ही है। यदि सही तरीके से समझा जाए तो यह मुख्य मुकाबला 28 प्रतिशत बनाम 16 प्रतिशत वोटरों के बीच है।
इसीलिए राहुल के निशाने पर मोदी हैं, तो मोदी के निशाने पर राहुल। राहुल के विज्ञापन अभियान का लक्ष्य भी कहीं न कहीं नरेंद्र मोदी ही हैं। जब वे कहते हैं कि नफरत की राजनीति नहीं चाहिए तो उनके जेहन में नरेंद्र मोदी होते हैं और जब नरेंद्र मोदी सोनिया गांधी के उस आरोप का जवाब देते हैं कि मोदी ने जहर फैलाया है तो मोदी के जेहन में सोनिया नहीं कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ही होते हैं। शब्दों का यह चुनावी युद्ध अब अपने चरम पर है। राहुल गांधी के साथ एक खास सकारात्मक तथ्य यह है कि दिनों-दिन उनकी भाषण शैली में निखार आ रहा है। यह शायद उस जापानी कंपनी के ट्यूटोरियल का परिणाम भी हो सकता है, लेकिन उनके भाषण लेखक उन्हीं पुरानी घिसी-पिटी बातों को बारंबार दोहरा रहे हैं। जिनका मकसद कांग्रेस के कथित गौरवमयी इतिहास का वर्णन और युवा चेहरे का प्रस्तुतिकरण है। भारत को लेकर कांग्रेस का विजन क्या है और मौजूदा हालात में जब कांग्रेस ही आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी है, राहुल गांधी भ्रष्टाचार विरोधी योद्धा के रूप में कैसे स्थापित हो सकते हैं यह स्वयं राहुल ने भी कहीं नहीं बताया। इसके बावजूद राहुल के कुछ कदम काबिले तारीफ है। मसलन घोषणा पत्र पर चर्चा के लिए उन्होंने अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग समुदाय और वर्गों के विविध पृष्ठभूमि वाले लोगों से मुलाकात की, लेकिन दिल्ली में जिस तरह वे पूर्वोत्तर के छात्र के समर्थन में धरने पर बैठे उससे यही लगा कि यह एक स्टंट मात्र है। क्योंकि दिल्ली की पुलिस कांग्रेस शासित केंद्र के अधीन है। अरविंद केजरीवाल ने भी पूर्वोत्तर के छात्रों के समर्थन में धरना देकर ईंट का जवाब पत्थर से दे दिया। इससे साफ जाहिर है कि यदि राहुल ने विपक्ष को गंजों को कंघा बेचने वाला कहा है तो उनका मकसद कहीं न कहीं विपक्ष पूरा भी कर रहा है और राहुल के हर कदम का जवाब देने की कोशिश हो रही है।
किंतु इस सारे राजनीतिक परिदृश्य में वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव की तश्वीर धुंधली दिखाई देती है। चुनावी सर्वेक्षणों में उत्तरप्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में भाजपा को भारी बढ़त दिखाते हुए एनडीए को 231 तक सीटें मिलने की भविष्यवाणी तो की गई है, भविष्य की राजनीति को देखते हुए तीसरे मोर्चे के गठन के जो प्रयास किए जा रहे हैं वे भी कहीं न कहीं आगामी लोकसभा चुनाव के बाद के परिदृश्य की तरफ इशारा कर रहे हैं। जयललिता की वाम पार्टियों से निकटता और शरद पवार का मोदी गान का क्या अर्थ है यह समझना थोड़ा सा कठिन है।
फिर भी मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही है। दिल्ली की गद्दी के दोनों ही प्रबल दावेदार हैं और यह भी तय है कि इनकी दखलंदाजी के बिना दिल्ली के नायक का फैसला करना असंभव ही होगा। तीसरा मोर्चा कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो भाजपा और कांग्रेस के बिना सरकार बनाना संभव नहीं होगा। ब्रांड राहुल के समर्थक और समालोचक भी इस अवसर को उसी दृष्टि से देख रहे हैं। अनुमान लगाने वाले विश्लेषकों का कहना है कि जयललिता ने वामदलों की तरफ रुख करते हुए सारे समीकरण बिगाड़ दिए हैं और एनडीए की संभावनाओं को व्यापक नुकसान पहुंचाया है। कुछ जानकार इसे राहुल के प्लान बी की शुरुआत मानते हैं। प्लान बी का अर्थ है येन-केन-प्रकारेण नरेंद्र मोदी को सत्ता में आने से रोकना। कमोबेश यही प्लान भाजपा और एनडीए का भी है जो आगामी सरकार किसी भी स्थिति में यूपीए की नहीं बनने देना चाहती। क्या इस प्लान की शुरुआत शरद पवार ने कर दी है?
मोदी कैसे लाएंगे 272 सीटें
दिल्ली के रामलीला मैदान में भारतीय जनता पार्टी की दो दिवसीय राष्ट्रीय परिषद की बैठक में ग्लैमरÓ तो था लेकिन ग्लोÓ नहीं था। राष्ट्रीय और क्षेत्रीय मीडिया में पहले की तरह यह परिषद उतना कवरेज नहीं पा सकी क्योंकि पहले तो सुनंदा पुष्कर की आसामायिक मृत्यु और फिर अरविंद केजरीवाल के 32 घंटे के प्रहसन ने भाजपा को एक तरह से सुर्खियों से नाकआउट ही कर दिया। केजरीवाल इसीलिए तैनात किए गए हैं कि वे मीडिया में भाजपा की सुर्खियों के सूचकांक को पर्याप्त ऊंचाइयों तक न जाने दें यही उनका मिशन है और इसी कारण कांग्रेस कहीं न कहीं परोक्ष रूप से उनका धन्यवाद करती है।
बहरहाल उम्मीद तो थी कि भाजपा की इस दो दिवसीय राष्ट्रीय परिषद में आम आदमी पार्टी की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं और सुशासन के प्रति जनता की ललक को लेकर भारतीय जनता पार्टी कोई विजन प्रस्तुत करेगी लेकिन ऐसा होता दिखाई नहीं दिया। ये दो दिवसीय कार्य परिषद मुख्यरूप से कांग्रेस पर वार करने का सामरिक स्थलभर बनकर रह गई। जिस तरह कांग्रेस के अधिवेशन में मुख्य निशाना भाजपा पर था उसी तरह भाजपा के अधिवेशन में भी तमाम वीरों के तरकश के तीर मानो कांग्रेस के लिए ही सुरक्षित रखे हुए थे।
आगामी चुनाव की रणनीति को देखते हुए यह उम्मीद थी कि भाजपा अपने कार्यकर्ताओं के समक्ष कुछ फार्मूले प्रस्तुत करेगी और जीतने के लिए नए रास्ते तलाशे जाएंगे, लेकिन ज्यादातर वक्ताओं ने इतिहास और वर्तमान पर अपना भाषण केंद्रित रखा। आम आदमी पार्टी के आसन्न संकट को लेकर भी कोई गंभीर चिंतन या मंथन होता दिखाई नहीं दिया। नरेंद्र मोदी तो पूरी तरह राहुल गांधी और कांग्रेस पर निशाना साध रहे थे उन्होंने कहा राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाये जाने के मुझे दो कारण दिखाई दे रहे हैं। राजनीतिक कारण तो है ही लेकिन इसके साथ एक मानवीय कारण भी है। जब लोकसभा चुनाव में पराजय निश्चित दिख रही है और विनाश सामने नजर आ रहा है तो कोई मां अपने बेटे की राजनीतिक बलि चढ़ाने के लिए तैयार नहीं होती है। तो मां का यही निर्णय रहा.. मेरे बेटे को बचाओ।ÓÓ उन्होंने अपनी पिछड़ी जाति के कार्ड को आगे बढ़ाते हुए कहा कि राहुल को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाने के पीछे एक कारण यह भी है क्योंकि वह उच्च कुल में पैदा हुए हैं और कुलीन लोगों में एक भय यह भी है कि उनके सामने जो उम्मीदवार है, वह पिछड़ी जाति में पैदा हुआ है। मोदी ने कहा, प्रधानमंत्री पद की दौड़ से भागने का और भी कारण है, वह ये कि जिस परंपरा में वह पले बढ़े हैं और जिस परिवार के हैं और जिस तरह वह जीते हैं, उनके मन की रचना भी सामंतशाही होती है। वह किसी चाय वाले से भिडऩा पसंद नहीं करेंगे।ÓÓ उन्होंने कटाक्ष किया, वे नामदार हैं, मैं कामदार हूं। ऊंच नीच का मामला है।ÓÓ
कांग्रेस की ओर से लोकसभा चुनाव परिणाम से पहले प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किये जाने की परंपराÓ की दलील की चीर फाड़ करते हुए मोदी ने सवाल किया कि 1947 में भारत जब आजाद हुआ तो कांग्रेस की यह कथित परंपरा कहां चली गयी थी? उन्होंने कहा कि पूरी कांग्रेस एक स्वर में सरदार वल्लभभाई पटेल को प्रधानमंत्री चाहती थी लेकिन वो कौन सी परंपरा थी, जिसने पटेल को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। मोदी ने कहा कि 1984 में जब श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या हुई तो राजीव गांधी दिल्ली से बाहर कोलकाता में थे। वह तुरंत दिल्ली आये और कुछ ही पल में उन्हें प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी गयी। उन्होंने कहा, परंपरा की बात करने वाली कांग्रेस से मैं पूछना चाहता हूं कि क्या कोई संसदीय दल की बैठक हुई थी? क्या संसदीय दल ने राजीव को प्रधानमंत्री चुना था? दो चार लोगों ने हड़बड़ी में उन्हें प्रधानमंत्री बनाने का फैसला कर डाला और आज हमें परंपरा की सीख दी जा रही है।ÓÓ उन्होंने कहा कि 2004 के लोकसभा चुनाव के बारे में भी मैं दावे से कह सकता हूं कि कांग्रेस के किसी संसदीय दल ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री नहीं चुना था। उसने सोनिया गांधी को इस पद के लिए चुना था लेकिन बाद में सोनिया ने सिंह को मनोनीत कर उन्हें इस पद पर नियुक्त कर दिया। संसदीय परंपरा की बातें करके कांग्रेस के नेता सच्चाई से नहीं बच सकते।ÓÓ कुछ कांग्रेसी नेताओं द्वारा उन्हें चाय वालाÓ कहे जाने पर व्यंग्य करते हुए मोदी ने कहा कि इन दिनों चाय वाले की बड़ी खातिरदारी हो रही है। देश का हर चाय वाला आज सीना तान कर घूम रहा है। चाय वाले से भिडऩे में कांग्रेस को बड़ी शर्मिन्दगी हो रही है। ये बहुत ईमानदार है (लोग कहते हैं)। उन्हें (कांग्रेस को) ईमानदार से मुकाबला करने में शर्म महसूस होती है। कांग्रेसियों के मेरे बारे में ऐसे बयान उनकी सामंतवादी मानसिकता को दर्शाते हैं।
कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व पर हमला जारी रखते हुए मोदी ने कहा कि टेप रिकार्डÓ पर भरोसा करें या ट्रैक रिकार्डÓ पर। कांग्रेस की गलत नीतियों के कारण देश की हालत खराब है। देश की समस्याओं की जड़ में कुशासन है। सिर्फ बिलÓ (विधेयक) नहीं बल्कि राजनीतिक विलÓ (इच्छाशक्ति) चाहिए और उन्हें लागू करने के लिए दिलÓ चाहिए। बिल बिल हम बहुत सुन चुके, अब एक्ट (कानून) नहीं एक्शन चाहिए।ÓÓ केन्द्र और राज्यों के परस्पर मिलजुल कर कार्य करने की अवधारणा को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्रियों को मिलकर काम करने की जरूरत है। साथ ही कहा कि क्षेत्रीय आकांक्षाओं को संकट नहीं समझना चाहिए बल्कि उसे विकास का अवसर मानना चाहिए। क्षेत्रीय आकांक्षाओं को चुनौती नहीं मानना चाहिए बल्कि उसकी इज्जत करनी चाहिए। मोदी ने कहा कि गुजरात का कई वर्षों से मुख्यमंत्री होने के नाते संघीय ढांचे का क्या महत्व है, वह बखूबी समझते हैं। हर राज्य का महत्व और उसकी पीड़ा को वह भलीभांति समझ सकते हैं इसलिए सरकार बनने पर भाजपा संघीय ढांचे को शक्तिशाली बनाने में रुचि दिखाएगी।
तीसरा मोर्चा फिर जीवित होगा?
चुनाव पूर्व सर्वेक्षण के नतीजों ने तीसरे मोर्चे की संभावना देख रहे कुछ नेताओं को फिर सक्रिय कर दिया है। हाल ही में मुलायम सिंह यादव ने एक न्यूज चैनल को साक्षात्कार में बताया था कि तीसरा मोर्चा बनने की प्रबल संभावना है। हालांकि इस पर बातचीत चुनाव परिणामों के बाद ही होगी। तीसरे मोर्चे के गठन के लिए यह अनिवार्य है कि सभी गैर भाजपा और गैर कांग्रेसी दल एक छत्र के नीचे जमा हों, लेकिन इनमें कुछ ऐसे हैं जो एक-दूसरे के जानी दुश्मन हैं। जैसे उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजपार्टी का तालमेल असंभव है। बिहार में लालू की दुश्मनी नीतिश कुमार से जगत विख्यात है। तमिलनाडु में डीएमके और एडीएमके का एक साथ आना असंभव है। बंगाल में ममता बनर्जी कभी भी उस गठबंधन के साथ नहीं जाएंगी जिसमें लेफ्ट हो। ये तमाम विरोधाभाष हैं। किंतु इनके साथ ही एक सच्चाई यह भी है कि कभी न कभी यह दल एक छत्र के नीचे रह चुके हैं। जैसे ममता बनर्जी और वामपंथी यूपीए वन में शामिल थे। बहुजन समाजपार्टी और समाजवादी पार्टी ने यूपीए को बाहरी समर्थन दिया। वामदल भी एक समय यूपीए को बाहरी समर्थन दे चुके हैं। कई दूसरे राजनीतिक दल हैं। जो समय समय पर एक साथ रहे हैं। लेकिन इनकी सम्पूर्ण संख्या भाजपा और कांग्रेस की कुल संख्या से अधिक होगी इसकी संभावना कम ही है। भाजपा को 180 से 200 और कांग्रेस को 90 से 110 सीटें मिलने की संभावना है। कांग्रेस ने अपना अभियान अब तेज किया है, जिसका फायदा मिलना तय है। ऐसे हालात में केंद्र की सत्ता पर जो भी विराजेगा वह भाजपा अथवा कांग्रेस के हाथ की कठपुतली ही होगा। इसलिए तीसरे मोर्चे की संभावना में राजनीतिक अनिश्चितता की झलक भी दिखाई दे रही है। शायद यही भांपकर भाजपा और कांग्रेस ने अपने चुनावी अभियान को आक्रामक बनाया है। राहुल गांधी को अधिक से अधिक सीटें दिलाने के लिए यूपीए ने कई घोषणाएं की है। जैसे सब्सिडी वाले गैस सिलेंडरों की संख्या बढ़ाकर 12 कर दी गई, दिल्ली में सीएनजी के दाम लगभग 30 प्रतिशत गिराए गए। खाद्य सुरक्षा विधेयक पहले ही लाया जा चुका है और सुनने में आया है कि राहुल गांधी के दबाव में आगामी संसद सत्र के दौरान लगभग छह विधेयक इस तरह के प्रस्तुत किए जा रहे हैं जिनमें निश्चित रूप से भ्रष्टाचार रोकने के प्रभावी उपाय संभव हो सकें। उधर नरेंद्र मोदी ने भी उत्तरप्रदेश में अपने चुनावी अभियान को धार देने की कोशिश की है। वे मुलायम सिंह यादव को चुनौती दे रहे हैं और अपनी सभाओं में कांग्रेस के साथ-साथ मुलायम सिंह को भी लक्ष्य बना रहे हैं। तुलना उत्तरप्रदेश और गुजरात के विकास की है। कांग्रेस पर भी उतना ही तीखा निशाना है। चुनाव में बमुश्किल 100 दिन शेष हैं। किंतु इतना तय है कि वर्ष 2009 के मुकाबले इस बार तश्वीर धुंधली है। वर्ष 2009 में जनता ने यूपीए को स्पष्ट जीत दी थी लेकिन इस बार किसी भी गठबंधन को स्पष्ट जीत शायद न मिले। इसलिए अगली सरकार में पूर्व, पुश्चिम, उत्तर, दक्षिण सभी का समावेश दिखना तय है। नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडू, ममता बनर्जी, नीतिश कुमार, शरद पवार, करुणानिधि जैसे नेताओं की पूछ-परख इस मई-जून माह में अचानक बढऩे वाली है।
देखना यह है कि यह चुनाव ब्रांड मोदी बनाम ब्रांड राहुल के आसपास केंद्रित रहते हैं या उससे कहीं अधिक व्यापक प्रभाव पैदा करते हैं। अरविंद केजरीवाल ने निश्चित रूप से नरेंद्र मोदी के विजयरथ को रोका है, लेकिन अंतिम फैसला आना बाकी है और इस बार भारतीय जनता पार्टी दिल्ली की गल्ती शायद न दोहराए। यदि दिल्ली में भाजपा सरकार बनाने की कोशिश करती तो शायद देश की सत्ता में भी उसका रास्ता आसान हो जाता। दिल्ली की राह कठिन है न केवल कांग्रेस बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भूमिका तलाश रही हर पार्टी के लिए।

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