भैया पर पड़ गया भार प्रियंका बनो खेवनहार
18-Feb-2014 06:22 AM 1234793

राहुल गांधी के निवास पर बैठे कांग्रेस के कुछ खासमखास नेताओं के चेहरे भी उस दिन आश्चर्य से भरे हुए थे। राहुल के निवास पर आना उनका रुटीन कर्तव्य है। इसे वे अपनी शान समझते हैं, लेकिन उस दिन जब अचानक प्रियंका गांधी की कार राहुल के निवास के सामने रुकी और तेज कदमों से प्रियंका अंदर आती हुई दिखाई दीं तो कांग्रेसियों को भी बड़ा आश्चर्य हुआ। राहुल का कहीं अता-पता नहीं था, लेकिन प्रियंका पूरी गर्मजोशी के साथ उस बैठक में उपस्थित थीं जिसमें कथित रूप से राहुल गांधी की ताजपोशी की पूर्व तैयारियों का खाका तैयार किया जा रहा था। प्रियंका गांधी कांग्रेस में मुखर नहीं हंै। यूं कांग्रेस के शीर्ष तीन शक्तिशाली नेताओं में उनका नाम तीसरे नंबर पर सदैव आता रहा है पर अपनी इस शक्ति का प्रयोग उन्होंने कभी नहीं किया। तब भी नहीं जब उनके पति पर कथित रूप से कुछ हेराफेरी के आरोप लगे। बहरहाल उस दिन प्रियंका पूरे रंग में थीं। उन्होंने एक कुशल मैनेजर की तरह राहुल गांधी की टीम के खास सिपहसालारों से गुफ्तगूं की और अपने बहुमूल्य सुझाव भी दिए। वे ज्यादा देर नहीं रुकीं लेकिन उनकी संक्षिप्त मौजूदगी मीडिया में चर्चा का विषय बन गई। यूं भी देशभर का मीडिया और कांग्रेस से प्रेमÓ करने वाले मतदाता-कार्यकर्ता प्रियंका गांधी की भूमिका को बड़ी दिलचस्पी से देखा करते हैं। उन्हें कहीं न कहीं यह आभास है कि प्रियंका गांधी में अपनी दादी की विशेषताएं अवश्य होंगी, जिसका उपयोग कांग्रेस की डूबती नैय्या को पार लगाने में किया जा सकता है। लेकिन अब तक प्रियंका ने कोई ऐसा संकेत नहीं दिया है। वे समर्पित पत्नी, ममतामयी मां और कुशल गृहिणी के रूप में अपनी भूमिका का बखूबी निर्वाहन कर रही हैं। लोकसभा चुनाव के समय अवश्य अपनी मां और भाई के चुनावी क्षेत्र में उनके लगातार दौरे लगते रहते हैं और वहां के कार्यकर्ताओं से जुड़े रहना उनका शगल है, लेकिन इसके अतिरिक्त देश की राजनीति में अपनी प्रखर भागीदारी को लेकर प्रियंका लगभग मौन ही हैं। कदाचित उनकी मां सोनिया गांधी और उनके भाई राहुल गांधी ने भी उन्हें किसी भूमिका के लिए प्रोत्साहित नहीं किया है।
बहरहाल यह सिक्के का एक पहलू है। सिक्के के दूसरे पहलू को देखा जाए तो लगता है कि प्रियंका गांधी निर्विवाद और नैसर्गिक रूप से एक बेहतरीन राजनीतिज्ञ साबित हो सकती है। उनकी खासियत यह है कि कांग्रेसी तो उन्हें राजनीति की मुख्यधारा में लाने के लिए लालायित हैं ही, कांग्रेस के इतर भी यह राय व्यक्त की जा चुकी है कि प्रियंका में राहुल के मुकाबले ज्यादा काबिलियत और बेहतर नेतृत्व क्षमता है। हालांकि प्रियंका स्वयं इससे इनकार करती रही हैं। कई मौकों पर उन्होंने दृढ़ता पूर्वक कहा है कि राजनीति में राहुल सक्रिय हैं और वे समय-समय पर उनका सहयोग करती रहेंगी। लेकिन अब लगता है कि कांग्रेस के भीतर यह विश्वास दृढ़ता से आकार ले रहा है कि प्रियंका गांधी को सक्रिय राजनीति में आ ही जाना चाहिए। जिस तरह राहुल गांधी लगातार असफल हो रहे हैं। चुनाव दर-चुनाव उनकी लोकप्रियता में कमी आ रही है। कांग्रेस की पराजय का ग्राफ बढ़ता जा रहा है। दिल्ली जैसे राज्यों में कांग्रेस तीसरे स्थान पर जाने को विवश हुई है। राजस्थान जैसे राज्यों में उसका सफाया हो चुका है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे गढ़ों में वह पराजय की हैट्रिक लगा चुकी है और सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में लगभग शून्य हो चुकी है। उसे देखते हुए कांग्रेस में विशाल परिवर्तन की जरूरत महसूस की जा रही है। 17 जनवरी को इस परिवर्तन की एक झलक दिखाई दे सकती है। संभवत: उस दिन भावी प्रधानमंत्री के रूप में राहुल गांधी के नाम की घोषणा कर दी जाए। लेकिन इसके साथ-साथ कांग्रेस के भीतर प्रियंका गांधी की भूमिका को लेकर गहरा मंथन भी चल रहा है। प्रियंका भले ही देश में कोई पद न संभालें लेकिन पार्टी के भीतर उन्हें एक प्रभावशाली भूमिका में लाने के लिए कांग्रेस के कई दिग्गज नेता लगातार प्रयासरत हैं। इससे पहले भी कई नेताओं ने दबी जुबान से प्रियंका का नाम लिया है, लेकिन खुले रूप से कोई भी प्रियंका की पैरवी करते नहीं देखा गया। क्योंकि इसका अर्थ राहुल को नकारना भी हो सकता था। पर जैसा कि कांग्रेस के महासचिव जनार्दन द्विवेदी का कहना है कि प्रियंका भले ही राजनीति में भागीदारी करते न दिखती हों किंतु वे लंबे समय से कांग्रेस की सक्रिय सदस्य हैं। जनार्दन द्विवेदी के इस कथन से यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता कि रायबरेली और अमेठी चुनावी क्षेत्रों के बाहर प्रियंका कोई भूमिका तलाश रही हैं। पिछले एक दशक  से गांधी परिवार की राजनीति में सक्रियता के साथ ही प्रियंका का इंतजार होने लगा था। 2011 में जब सोनिया गांधी इलाज के लिए विदेश गईं उस वक्त भी यही कहा गया कि प्रियंका रायबरेली लोकसभा सीट से चुनाव लड़ सकती हैं। लेकिन कांग्रेस ने इसे खारिज कर दिया। 7 जनवरी को अहमद पटेल, जनार्दन द्विवेदी, मधुसूदन मिस्त्री, जयराम रमेश, मोहन गोपाल और अजय माकन जैसे नेताओं से बातचीत करते समय भी प्रियंका ने 17 जनवरी को होने वाली ऑलइंडिया कांग्रेस कमेटी की बैठक पर ही अपना रुख फोकस रखा। उन्होंने इन नेताओं को भी किसी प्रकार के संकेत नहीं दिए। क्योंकि बाद में ऑफ द रिकार्ड भी इन नेताओं के मुंह से कुछ ऐसा नहीं निकला जिससे यह पता चले कि प्रियंका फिलहाल क्या चाहती हैं। लेकिन प्रियंका की कांग्रेस को बेहद आवश्यकता है। खासकर उत्तरप्रदेश में कांग्रेस में पुनर्जीवन लाने के लिए प्रियंका बहुत महत्वपूर्ण साबित हो सकती हैं। रायबरेली की पांचों विधानसभा सीटें कांग्रेस ने गंवा दी थी। उसके बाद मांग उठी थी कि प्रियंका को सक्रिय राजनीति में लाया जाए। लेकिन प्रियंका ने कोई रुचि नहीं दिखाई। कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला कहते हैं कि प्रियंका का राहुल के निवास पर अपने भाई से मिलने जाना और पार्टी नेताओं से शिष्टाचारवश चर्चा करना एक सामान्य सी बात है। लेकिन पार्टी के सूत्रों का कहना है कि प्रियंका हमेशा अपनी भूमिका स्वयं ही तय करती हैं और इस बार भी वे कुछ नया करने वाली हैं।
जहां तक राजनीति का सवाल है प्रियंका राजनीति में आने के प्रति पहले से ही 1999 के चुनाव अभियान के दौरान, एक साक्षात्कार में कह चुकी हैं मेरे दिमाग में यह बात बिलकुल स्पष्ट है कि राजनीति शक्तिशाली नहीं है, बल्कि जनता अधिक महत्वपूर्ण है, और मैं उनकी सेवा राजनीति से बाहर रहकर भी कर सकती हूँ।Ó तथापि उनके औपचारिक राजनीति में जाने का प्रश्न परेशानीयुक्त लगता है। मैं यह बात हजारों बार दोहरा चुकी हूँ, कि मैं राजनीति में जाने की इच्छुक नहीं हूँ...Ó। हालांकि, उन्होंने अपनी माँ और भाई के निर्वाचन क्षेत्रों रायबरेली और अमेठी में नियमित रूप से दौरा किया और जहां उन्होंने लोगों से सीधा संवाद ही स्थापित नहीं किया वरन इसका आनंद भी लिया। वह निर्वाचन क्षेत्र में एक लोकप्रिय व्यक्तित्व है, अपनी चारों तरफ अपार जनता को आकर्षित करने में सफल भी हैं; अमेठी में प्रत्येक चुनाव के समय एक लोकप्रिय नारा है अमेठी का डंका, बिटिया प्रियंका 2004 के भारतीय आम चुनाव में, वह अपनी माँ की चुनाव अभियान प्रबंधक थी और अपने भाई राहुल गाँधी के चुनाव प्रबंधन में मदद की। एक प्रेस वार्ता में इन्ही चुनावों के दौरान उन्होंने कहा कि राजनीति का मतलब जनता की सेवा करना है और मैं वह पहले से ही कर रही हूँ। मैं इसे पांच और अधिक सालों के लिए जारी रख सकती हूँ।  इस बात से यह अटकलें तेज हो गई कि वह उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के लिए कोई जिम्मेदारी वहन कर सकती हैं। 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में, जहाँ राहुल गाँधी ने राज्यव्यापी अभियान का प्रबंधन किया, वही वह अमेठी रायबरेली क्षेत्र के दस सीटों पर ध्यान केंद्रित कर रही थी, वहां दो सप्ताह बिता कर उन्होनें पार्टी कार्यकर्ताओं में मध्य सीटों के आवंटन को लेकर हुई अंदरूनी कलह को सुलझाने की कोशिश की। कुल मिलाकर, कांग्रेस पार्टी राज्य में हासिये पर चली गई, उसे 402 में से मात्र 22 सीटों पर ही जीत हासिल हुई, जो की इन दशकों में न्यूनतम है। लेकिन, इसमें व्यापक रूप से प्रियंका गाँधी के अन्तर संगठनात्मक गुण और वोट खींचने की क्षमता का पता चलता है, जिस कांग्रेस को 2002 के विधानसभा में सिर्फ दो सीटें हासिल हुई थी, उसने सात सीटें हथिया ली, इन सभी सीटों पर महत्वपूर्ण बढ़त प्राप्त हुई, जो कि कार्यकर्ताओं में पार्टी अंतर्कलह के बावजूद संभव हुआ। ध्यान दें कि रायबरेली से, पूर्व कांग्रेस प्रत्याशी, जो 1993 से कांग्रेस से ही जीतते थे, असन्तुष्ट हो कर कोंग्रेस से अलग हो कर, एक निर्दलीय के रूप में खड़े होकर जीत गए। हालाँकि इस क्षेत्र के अन्य सभी चुनाव क्षेत्रों में कांग्रेस को महत्वपूर्ण बढ़त हासिल हुई।
पीएम की बेबाकी का राज क्या?
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नरेंद्र मोदी पर एक बेबाक राय रखी और उन्हें  विनाशकारी बताया। सोनिया गांधी मोदी को मौत का सौदागर बता चुकी हैं और सोनिया के इस कथन के बाद नरेंद्र मोदी गुजरात में तो चुनाव जीते ही सारे देश में भी इतने लोकप्रिय हो गए कि भाजपा को उन्हें प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करना पड़ा। अब मनमोहन सिंह ने उन्हें जनसंहार की अगुवाई करने वाला कहकर एक तरह से भाजपा को नवजीवन प्रदान कर दिया है। मीडिया में अरविंद केजरीवाल छाए हुए हैं और नरेंद्र मोदी लगभग आउट हो चुके हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को केजरीवाल की बाइट से ज्यादा टीआरपी मिल रही है इसलिए मीडिया के बाजार में केजरीवाल के दाम फिलहाल नरेंद्र मोदी से ज्यादा हंै। प्रधानमंत्री ने नरेंद्र मोदी को जिस तरह विनाशकारी बताया है उससे एक नई बहस छिड़ सकती है। उधर भाजपा को भी एक मुद्दा मिल गया है। अरुण जेटली ने तो पूछ ही लिया कि यदि यूपीए एक की असफलता का दोष यूपीए दो पर नहीं मढ़ा जा सकता तो वर्ष 2002 में नरेंद्र मोदी के समय हुए दंगों का दोष अब क्यों उन पर मढ़ा जा रहा है। दरअसल मोदी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के विशेष जांच दल ने भी कोई खास सबूत नहीं पाए हैं और उन्हें फिर क्लीनचिट मिल
चुकी है ऐसे हालात में भाजपा मोदी की दंगों
के समय भूमिका को लेकर न्यायालय के रुख
को आधार बनाते हुए नए साथियों की तलाश
कर रही है। लेकिन कांग्रेस की तरफ से हर संभव प्रयास यही हो रहा है कि भाजपा को इसमें कामयाबी न मिलेे।
आम आदमी पार्टी की सफलता ने भी कहीं न कहीं कांग्रेस के इस मंसूबे को बल दिया है। क्योंकि देश भर में आम आदमी पार्टी से जुडऩे वाले लोगों की तादाद लगातार बढ़ी है। बहरहाल यह अलग चर्चा का विषय है। प्रश्न यह है कि प्रधानमंत्री तीन साल बाद अचानक इतने आक्रामक क्यों हुए इसका सीधा-साधा मतलब तो यही है कि अपने कार्यकाल के अंतिम दौर में अब प्रधानमंत्री बिना किसी दबाव के काम करना चाहते हैं। उन्हें पता है कि जो कुछ बिगड़ चुका है वह दोबारा नहीं बनेगा  अपनी छवि को जाते-जाते सुधारने के मूड में हैं प्रधानमंत्री।  जानकारों का कहना है कि इससे प्रधानमंत्री को विशेष लाभ नहीं पहुंचेगा। क्योंकि भारतीय लोकतंत्र में संभवत: यह पहली बार हुआ है जब किसी प्रधानमंत्री ने पद पर रहते हुए अगला चुनाव न लडऩे की घोषणा की हो। बल्कि नए नेतृत्व को कमान सौंपने की बात भी चला दी है। मनमोहन के इस रुख से कांग्रेस को नुकसान भी हो सकता है। भारत में अमेरिका की तरह अध्यक्षीय प्रणाली नहीं है और न ही यह बंधन है कि कोई व्यक्ति दो बार से अधिक प्रधानमंत्री नहीं बन सकता। इसी कारण पद पर रहते हुए प्रधानमंत्री ने अपने आपको रेस से अलग करके एक तरह से नरेंद्र मोदी का रास्ता साफ कर दिया है। हालांकि जानकारों का कहना है कि यह सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया है। ताकि राहुल गांधी को सही समय पर प्रोजेक्ट करते हुए कांग्रेस अपनी बची-खुची साख को बचाए।
राहुल गांधी की दावेदारी के लिए 17 जनवरी का समय  तय किया गया है पर कांग्रेस की समस्या यह है कि राहुल गांधी के मैदान में आते ही उन्हें एक आक्रामक विपक्ष का सामना करना पड़ेगा। खासकर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर विपक्ष के आरोपों को झेलना आसान नहीं होगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस आशंका को यह कहते हुए खारिज कर दिया है कि यूपीए-1 पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे, लेकिन लोगों ने यूपीए को दोबारा मौका दिया। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि मीडिया और कैग ने इसे बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया। प्रधानमंत्री अपनी ईमानदारी का डंका पीटते भी नजर आए और कहा कि उन्होंने परिवार, दोस्तों को लाभान्वित करने के लिए ऑफिस का इस्तेमाल नहीं किया। एक तरह से देखा जाए तो प्रधानमंत्री की यह सफाई उचित ही है और वे शायद यह कहना चाह रहे हैं कि व्यक्ति के ईमानदार होने से फर्क नहीं पड़ता पूरे सिस्टम को ईमानदार होना पड़ता है, किंतु प्रश्न यही है कि जिस सिस्टम की अगुवाई वे कर रहे थे उसे ईमानदार बनाने में उन्होंने भरपूर प्रयास क्यों नहीं किया। राहुल गांधी मनमोहन सिंह की इसी असफलता को अपनी विशेषता बनाते हुए आगे बढऩा चाह रहे हैं। इसी कारण उन्होंने सबसे पहले तो उस विधेयक को फाड़ा जिसमें दागियों को कथित रूप से छूट देने के लिए कानून बनाने की पहल थी और फिर बाद में आदर्श घोटाले पर अपना रुख स्पष्ट करके इसकी पुष्टि कर दी कि वे भी अगले चुनाव में भ्रष्टाचारियों के खिलाफ लडऩे वाले योद्धा के रूप में अपने आपको प्रस्तुत करने वाले हैं। लेकिन प्रश्न वहीं है कि इस लड़ाई में कांग्रेस अपनी विश्वसनीयता कैसे कायम कर सकती है। खासकर कोल ब्लाक आवंटन और स्पैक्ट्रम के मामले में जिस तरह पारदर्शी प्रक्रिया नहीं अपनाई गई उसे देखते हुए राहुल का यह मिशन ज्यादा कामयाब होगा ऐसा लग नहीं रहा। चुनौती और भी हैं। स्वयं मनमोहन सिंह ने स्वीकार किया है कि यूपीए-2 महंगाई रोकने में विफल रहा और खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमत से हालत खराब हुई। मनमोहन सिंह की यह स्वीकारोक्ति कहीं न कहीं राहुल के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा भी है। अब उन्हें लोगों को यह विश्वास दिलाना होगा कि वे महंगाई पर काबू पाएंगे और गरीबी उन्मूलन के लिए प्रभावी कदम उठाएंगे। खासकर अर्थव्यवस्था में चल रही मंदी के लिए कांग्रेस क्या रोडमैप प्रस्तुत करेगी यह जानना दिलचस्प रहेगा। मनमोहन सिंह का कहना है कि महंगाई के साथ-साथ लोगों की आमदनी भी बढ़ी है पर क्या सचमुच ऐसा है।

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