नीतीश की पार्टी में बगावत का खतरा
15-Feb-2014 10:15 AM 1234775

बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार केंद्र की राजनीति में अपनी भूमिका तलाश रहें हैं लेकिन सच तो यह है कि उनके अपने ही राज्य बिहार में उनकी पार्टी का सत्यानाश होने लगा है। पार्टी के कई अहम नेता नाराज हैं और भारतीय जनता पार्टी का बढ़ता जनाधार नीतिश की चिंता में वृद्धि कर रहा है। दूसरी तरफ कांग्रेस और लालू, पासवान की तिकड़ी बिहार के मुस्लिम वोटों में सेंधमारी करने के लिए भरपूर प्रयास कर रही है। ऐसे हालात में बिहार की राजनीतिक स्थिति दिलचस्प हो चुकी है। केंद्र में बहुत से मुद्दों पर कांग्रेस का समर्थन करके नीतिश ने एक सहयोगी तलाशने की कोशिश की थी किंतु बिहार में नीतिश के साथ गठबंधन करने की स्थिति में कांग्रेस को बहुत कम सीटों पर चुनाव लडऩे का अवसर मिलेगा इसलिए चाह कर भी यह गठबंधन परवान नहीं चढ़ पा रहा है। उधर इन सबसे बेखबर बिहार की जनता नीतिश कुमार के मौजूदा शासन की समालोचना करने में जुटी हुई है। पिछले 8 वर्ष की सत्ता विरोधी लहर भी नीतिश को ही नुकसान पहुंचाने वाली है। भारतीय जनता पार्टी अब इस नुकसान से बेशक बच सकती है, वह सत्ता में नहीं है।
नीतीश पर पार्टी के असंतुष्ट नेताओं की ओर से तानाशाहÓ होने के आरोप लगाये जा रहे हैं। हालांकि यह आरोप नये नहीं है और समय समय पर विभिन्न नेता ऐसे आरोप लगाते रहे हैं। जनता को भी पार्टी में चल रही उठापटक से कोई सीधा वास्ता नहीं होता और वह सरकार के कार्यों के आधार पर ही अपना फैसला सुनाती है। जनता ने नीतीश का दोबारा साथ दिया तो यही माना गया कि यह विकास कार्यों पर मुहर है। सरकारी और गैर सरकारी एजेंसियों ने भी विकास की राह पर बिहार के आगे बढऩे की पुष्टि की। सब कुछ ठीक चल ही रहा था कि एक संसदीय उपचुनाव में सत्तारुढ़ दल की हार, उसके बाद नरेंद्र मोदी के विरोध में बिहार की गठबंधन सरकार से भाजपा को बाहर करने और फिर चारा घोटाला मामले में दोषी करार दिये गये राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के जमानत पर रिहा होने के बाद से राज्य के राजनीतिक माहौल में बदलाव आ गया। बतौर गठबंधन सरकार के मुखिया के रूप में सरकार चला रहे नीतीश को पूर्व में जब भी राजनीतिक संकट का सामना करना पड़ा, गठबंधन सहयोगी भाजपा ने उसका साथ दिया। राज्य के कुछ भाजपा नेता नीतीश के विरोध में बोलते थे तो पार्टी के दिल्ली में बैठे आला नेता नीतीश का पक्ष लेकर चुप करा देते थे। इसके चलते नीतीश की अपनी पार्टी में भी मजबूत स्थिति थी लेकिन भाजपा से नाता तोडऩे के बाद उन्हें अपने बचाव में बोलने वाले कम पडऩे लगे। जो भाजपा विनम्र सहयोगी की भूमिका के लिए जानी जाती है वह राज्य में सत्ता से हटते ही एक बार फिर आक्रामक भूमिका में आ गयी। इसके अलावा जब मजबूत होते लालू प्रसाद ने भी नीतीश के खिलाफ मोर्चाबंदी की तो उन्हें एक बार फिर राज्य की यात्रा कर लोगों के समक्ष अपनी बात रखने पर मजबूर होना पड़ा लेकिन इसी बीच हुए राज्यसभा चुनावों के दौरान पार्टी की एकता फिर तार तार हो गयी। पार्टी के राज्यसभा सांसद शिवानंद तिवारी ने नीतीश पर खुलेआम आरोप लगाया कि उन्हें साजिश के तहत दोबारा टिकट नहीं दिया गया और उनके चक्कर में एनके सिंह और साबिर अली का भी टिकट काट दिया गया। तिवारी ने कहा कि नीतीश ने उन्हें लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए कहा जबकि मैंने कभी ऐसी कोई इच्छा नहीं जताई थी। चुनाव लडऩे का प्रस्ताव एनके सिंह ने भी ठुकरा दिया मगर साबिर अली चुनाव लडऩे को राजी हो गये। मामला कुछ ठंडा हुआ ही था कि राज्य की समाज कल्याण मंत्री और सामाजिक क्षेत्र में बड़ी हस्ती माने जाने वाली परवीन अमानुल्लाह अपने पद से इस्तीफा देकर आम आदमी पार्टी में शामिल हो गयीं। उन्होंने अप्रत्यक्ष तौर पर नीतीश शासन में भ्रष्टाचार व्याप्त होने के आरोप भी लगाये। परवीन के जाने से अल्पसंख्यकों के बीच नीतीश की पैठ जरूर कम होगी। मीडिया की खबरों के अनुसार, लोकसभा चुनाव और फिर विधानसभा चुनाव नजदीक आने पर जदयू के कई और नेता पार्टी छोड़ सकते हैं। दरअसल इसके पीछे इन नेताओं की नीतीश से नाखुशी तो है ही साथ ही विभिन्न सर्वेक्षण रिपोर्टों से भी वह प्रभावित दिख रहे हैं जिसमें लोकसभा चुनावों में नीतीश की पार्टी को नुकसान की बात कही जा रही है। इसी बात का आभास कांग्रेस को भी हो गया है जोकि अब जदयू से दूरी बनाती दिख रही है और उसका गठबंधन राजद और लोजपा के साथ तय हो गया है। इससे पहले जदयू से भाजपा से अलग होने के बाद कांग्रेस नीतीश के करीब आई। कांग्रेस विधायकों ने विश्वास मत के दौरान नीतीश सरकार के पक्ष में मतदान किया और केंद्रीय वित्त मंत्री ने बिहार को पिछड़ा राज्य घोषित करने की मुख्यमंत्री की मांग पर गौर करने के लिए एक कमेटी बना दी।

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