मानवीय चेतना ही है विशेषता
18-Feb-2014 06:14 AM 1234829

मनुष्य के पास जो कुछ भी विशेषता और महत्ता है, इससे वह स्वयं उन्नति कर जाता है और अपने समाज को ऊँचा उठा ले जाता है। उसकी अंतरंग की दिशाधारा को जिसको हम चेतना कहते हैं, अन्तरात्मा कहते हैं, विचारणा कहते हैं। वही

एक चीज है जो मनुष्य को ऊँचा उठा सकती है, महान बना सकती है, शान्ति दे सकती है और समाज के लिए उपयोगी बना सकती है। चेतना मनुष्य की, जिसको विचारणा हम कहते हैं। विचार करने का क्रम आदमी का किसका कैसा है? बस असल में वही उसका स्वरूप है। छोटा आदमी लम्बाई -चौड़ाई के हिसाब से नहीं होता है। कोई भी, जिस आदमी की मानसिक स्तर की ऊँचाई कम है, जो आदमी ऊँचे सिद्धान्तों, ऊँचे आदर्शों को नहीं सोच सकता, जो आदमी सिर्फ पेट तक और अपनी संतान पैदा करने तक सीमाबद्ध हो जाता है, वो छोटा आदमी, एक इंच का आदमी कहें तो कोई अचंभे की बात नहीं, उसको मेढक- कीड़े की तुलना करें, तो कोई अचंभे की बात नहीं। कीड़े- मकोड़ों में से कोई गिनती करें, तो कोई हर्ज की बात नहीं। मनुष्य का स्तर और मनुष्य का गौरव उसके ऊँचे विचारों पर टिका हुआ है और ऊँचे विचार जब कभी भी मनुष्य के होते हैं तो उसका जीवन देवत्व जैसा दिखाई पड़ता है। गरीब हो तो क्या? अमीर हो तो क्या? गरीबी से क्या बनता- बिगड़ता है? अमीरी में जौ की रोटी खा सकता है, गरीबी में मक्का की रोटी खा सकता है। क्या शर्म की बात है? अमीर आदमी रेशमी कपड़े पहन सकता है और गरीब आदमी मोटे कपड़े पहन सकता है और कौन खास बात है? आदमी के स्तर पर कुछ फर्क नहीं जाता है, एक कानी कौड़ी के बराबर भी। मनुष्य का स्तर जब बढ़ता है, तो उसके विचार करने के क्रम और उसके सोचने के तरीके पर टिका रहता है।
मनुष्य की महानता भी उसी पर टिकी हुई है। मनुष्य की शान्ति भी उसी पर टिकी हुई है, गौरव भी उसी पर टिका हुआ है, परलोक भी उसी पर टिका हुआ है और समाज के लिए उपयोगिता- अनुपयोगिता भी उसी पर टिकी हुई है। इसीलिए हमको सारा ध्यान इस बात पर देना चाहिए कि आदमी का विचार करने का तरीका- सोचने का तरीका बदल जाए। पिछले दिनों जब हमारे देश के नागरिकों के विचारणा का स्तर बहुत ऊँचा था और शिक्षा के माध्यम से और अन्य वातावरण के माध्यम से या धर्म- अध्यात्म के माध्यम से ये प्रयत्न किया था कि आदमी ऊँचे किस्म का सोचने वाला हो और उसके विचार, उसकी इच्छाएँ और उसकी आकांक्षाएँ और उसकी महत्वाकांक्षाएं नीच श्रेणी के जानवरों जैसी न होकर के महापुरुषों जैसी हों। जब ये प्रयास किया जाता था तो अपना देश कितना ऊँचा था। देवता गिने जाते थे यहाँ के नागरिक। ये राष्ट्र सारी दुनिया की आँखों में स्वर्ग जैसा दिखाई पड़ता था। इस महानता और विशेषता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए धर्म और अध्यात्म का सारा ढाँचा खड़ा किया गया। धर्म और अध्यात्म खड़ा किया गया है, मूल नहीं है। मूल नहीं है धर्म और अध्यात्म। मूल तो है, मनुष्य की विचार करने की ऊँचाई और उस ऊँचाई को कायम करने के लिए एक बाड़ बनाई गयी हैं, एक ढाँचा खड़ा किया गया है, एक ढाँचा ढाला गया है; ताकि आदमियों के विचार करने की ऊँचाई बनी रहे। धर्म यही है और अध्यात्म यही है और ईश्वर भी यही है। साधना या पद्धति का पालन करने वालों में अधिकांश का यह मानना है, ध्येय में सफल होने पर उन्हें आनंददायक पारलौकिक अनुभूतियों की प्राप्ति होगी। स्वर्ग की प्राप्ति, ध्यान, समाधि, आत्मज्ञान, निर्वाण आदि को हमने परमानंद से सम्बद्ध कर दिया है। जीवन के हर संघर्ष और दु:ख लिए सुखमय जीवन, ईश्वर-दर्शन की कामना, अनात्म की भावना को उत्तरदायी मानता हूं। वास्तविकता में घट रही घटनाओं को साक्षी भाव से देखने से हमारे मानस और काया को शांति मिलती है, भले ही यह श्रमसाध्य प्रीतिकर हो। इसमें द्वैत नहीं होता। इसे आनंद भी कह सकते हैं पर इसमें कोई हिलोर नहीं है। किसी घोर वेदना से गुजरनेवाले व्यक्ति के भीतर भी ऐसी ही भावना उपज सकती है क्योंकि उसके सामने कोई विकल्प नहीं होते। आपने ऐसे व्यक्ति के बारे में पढ़ा होगा, जो बड़े-से-बड़े दर्द को भी अपार शांति से झेल गया होगा। यदि आप उसे निर्मोही कहेंगे तो मैं उसे अनासक्त कहूंगा। उस व्यक्ति का वर्णन करने के लिए ये दो भिन्न दृष्टिकोण हैं जिसमें आप किसी एक में अधिक सकारात्मकता देख सकते हैं। जीवन अनुभवों की सतत धारा है। आप इसमें बहकर डूब भी सकते हैं और इसके विपरीत तैरने की जद्दोजहद में स्वयं को नष्ट भी कर सकते हैं। दोनों ही स्थितियों में आपका मिटना तय है। यदि आप इसे केवल बहते हुए देखेंगे तो सुरक्षित रहेंगे। तब आप स्थिर रहेंगे, शांत रहेंगे, और अन्त:प्रज्ञ बनेंगे। उस दशा में आपके भीतर मौलिक बोध उपजेगा। आवश्यकता सिर्फ दर्शक बनने की है, जिसे न तो नाटक का निर्देशन करना है और न ही उसमें कूद पडऩा है। आप जागृत अवस्था में जो कुछ भी करेंगे वही आपका ध्यान बन जाएगा।

 

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