उल्लास भरी दुनिया परोपकार से बनती है
15-Feb-2014 10:12 AM 1234788

रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा है, तुम्हारे जीवन में जैसे-जैसे दूसरों को स्थान मिलेगा, वैसे-वैसे तुम्हारा अपना व्यक्तित्व होगा। पुराने समय के खगोलशास्त्री मानते थे कि विश्व का मध्यबिंदु पृथ्वी ही है। चंद्र और सूर्य, ग्रह और तारे उसके आसपास चक्कर लगाते हैं। सदियों के बाद वैज्ञानिक दृष्टि विकसित हुई, तब महान खगोल शास्त्री कोपरनिकस तथा गेलिलियो ने रूढिवादियों के रोष का जोखिम उठाकर दुनिया को बताया कि पृथ्वी स्थिर नहीं है, न वह विश्व का मध्यबिंदु है, बल्कि वह सूर्य के आसपास घूमती है। पृथ्वी पदभ्रष्ट हुई और यह धृष्टता करने के बदले गेलिलियो को कैद भुगतनी पड़ी। परन्तु ब्रह्मांड का सच्चा बोध हो जाने से आधुनिक खगोलशास्त्र की नींव पड़ी और आकाशयुग की सिद्धियों के लिए द्वार खुल गए।
मनुष्य भी बाल्यावस्था में यही मानता है कि दुनिया का केंद्र मैं हूं। बालक देखता है कि माता-पिता सूर्य-चंद्र की तरह-दिन-रात उसके आसपास घूमा करते हैं। उसके मुंह से निकली बात को वे उठा लेते हैं, उसकी एक-एक इच्छा पूर्ण करने के लिए सब दौड़े-दौड़े फिरते हैं। मानो बालराजा का दरबार हो। रोना शुरू किया, मानो ढिंढोरा पीटा हो! दूसरों की भी ऐसी ही जरूरतें और इच्छाएं होती हैं, इसका ख्याल बालक को नहीं होता। फिर घर में छोटा भाई का जन्म होने पर सबका ध्यान उसकी ओर हो जाता है तब, अथवा स्कूल जाने पर कक्षा का एक विद्यार्थी बनकर दूसरे बालकों के साथ बेंच पर बैठना पड़ता है तब, उसे गेलिलियो का संदेश मिलता है-दुनिया का केंद्र तुममें नहीं, दूसरे ही ठिकाने हैं।
गेलिलियो के समय कितने ही विद्वानों ने पृथिवी के मध्यबिंदु होने का मोह छोडऩे से इंकार किया, यही नहीं, बल्कि दूरबीन द्वारा देखने से पृथिवी के परिभ्रमण का निश्चय हो सकेगा, ऐसा उनसे कहा गया तो उन्होंने आंखों पर दूरबीन न लगाने का ही व्रत ले लिया।
अपने को केंद्र में रखने से न तो विज्ञान की प्रगति होती है और न व्यक्तित्व-निर्माण संभव होता है। जैसे-जैसे मनुष्य दूसरों के आसपास फिरने लगता है, वैसे-वैसे उसका मानसिक क्षितिज और जीवन-आकाश विशाल बनते जाते हैं। जैसे-जैसे अपना स्वार्थ छोड़कर दूसरों के लिए वह जीना सीखता है, वैसे-वैसे ही उसका व्यक्तित्व परिपक्व होता है।
इस बारे में धर्म का उपदेश, विज्ञान का पाठ, शिष्टाचार का विवेक और मनोविज्ञान की सीख सब एकमत हैं-स्वार्थ-त्याग प्रगति की आवश्यक शर्त है। मनुष्य यदि अपने चारों ओर फिरता रहेगा तो वह चक्कर खाकर गिर पडेगा, लेकिन अगर दूसरों के आस-पास फिरेगा तो जीवनाकाश में ऊंचा-ही-ऊंचा चढता जाएगा।
घूमना तो सबको है, लेकिन कोल्हू के बैल और आकाश के तारों के घूमने में कितना अंतर पड जाता है!
एक छोटा-सा प्रयोग करके देखो। किसी मित्र को तुमने हाल में कोई पत्र लिखा हो तो उसमें मैं, मेरा ऐसे सर्वनाम कितनी बार आते हैं और तुम, तुम्हारा आदि कितनी बार; यह गिन जाओ। अगर तुम की अपेक्षा मैं की संख्या बढ़ जाय और तुम्हारी सामान्य बातचीत में भी ऐसा ही होता हो, तो तुम्हारी परिभ्रमण-कक्षा बहुत विशाल नहीं, ऐसा मानने का कारण मिलेगा।
उसे अधिक विशाल बनाने के लिए दूसरों में सच्चे दिल से व्यक्तिगत रस लेने लगो। उनके विचार जानने से तुम्हारी दृष्टि अच्छी बन जाएगी, उनका दुख देखकर तुम्हारा दुख कम होने लगेगा, उनके सुख में भागीदार बनकर तुम्हारा आनंद छलकने लगेगा।
घडे का पानी घड़े में रहे तो वह बंधा हुआए गतिहीन, निस्पंद रहेगा; लेकिन अगर उसे समुद्र में डाल दिया जाए तो उसमें महासागर का वेग और शक्ति, विशालता और गहनता आ जाएगी!

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