कोको द्वीप में क्या है चीन की मंशा ?
15-Feb-2014 10:59 AM 1236046

साम्यवादी चीन भारत की घेराबंदी कर रहा है और भारत इस तथ्य से अनजान है। श्रीलंका, पाकिस्तान जैसे देशों में अपनी नौसैनिक ताकत बढ़ाने के लिए चीन ने बड़े पैमाने पर निवेश किया है और अब वह म्यांमार के एक द्वीप में अपना नौसैनिक अड्डा बना रहा है जहां से भारत पर सीधे हमला किया जा सकता है। भारत इस तथ्य से शायद भली-भांति परिचित है  किंतु सब कुछ देखते हुए भी कोई प्रभावी कदम न उठाना रहस्य का विषय है। श्रीलंका, पाकिस्तान और म्यांमार से तीन तरफा हमला भारत को किस दुर्दशा में धकेल सकता है यह अनुमान लगाना मुमकिन नहीं है। किंतु चीन की चालों से बचे बगैर भारत एशिया की महाशक्ति बनने का सपना नहीं देख सकता। म्यांमार के कोको आइलैंड का मामला उलझता जा रहा है। यह एक बड़ा खतरा बन सकता है।
उल्लेखनीय है कि सामरिक दृष्टि से अंडमान व निकोबार द्वीप समूह महत्वपूर्ण हंै। अंडमान के उत्तर में 38 सागरीय मील दूर स्थित है म्यांमार का कोको द्वीप जो भारत के लिए विशेष चिंता खड़ी कर रहा है। म्यांमार ने वह द्वीप चीनी सैन्य अड्डे के लिए चीन को पट्टे पर दिया हुआ है। उधर निकोबार द्वीप के धुर दक्षिण में कैम्पबेल की खाड़ी प्रमुख अन्तरराष्ट्रीय जल मार्ग है। अंडमान व निकोबार द्वीप समूह में करीब 570 टापू हैं जिनमें से केवल 36 टापुओं पर ही आबादी बसी हुई है।  व्यापार मार्गों के रखरखाव में अमेरिका, चीन या भारत के हितों में टकराव नहीं है। असली टकराव सामरिक उद्देश्यों का है। चीन ने श्रीलंका में केवल हम्बनटोटा बंदरगाह बनाने में ही मदद नहीं दी है। हम्बनटोटा के उद्घाटन के दो महीने पहले चीन के रक्षामंत्री लियांग गुआंग ली श्रीलंका आए थे। चीन ने श्रीलंका को 10 करोड़ डॉलर (तकरीबन 550 करोड़ रु) की सैन्य सहायता दी है। वह उसकी रक्षा-व्यवस्था को दुरुस्त कर रहा है। माना जा सकता है कि लिट्टे के कारण लम्बे अर्से तक आतंकवाद से पीडि़त देश की सुरक्षा आवश्यकताएं हैं। पर सवाल है उसने बजाय भारत के चीन के सामने हाथ क्यों पसारा? उधर पाकिस्तान-ईरान सीमा पर चीन ने पाकिस्तान के लिए न सिर्फ ग्वादर बंदरगाह तैयार कर दिया है, उसका संचालन भी उसके पास आ गया है। पाकिस्तान ने सन 2007 में पोर्ट ऑफ सिंगापुर अथॉरिटी के साथ 40 साल तक बंदरगाह के प्रबंध का समझौता किया था। यह समझौता अचानक पिछले अक्टूबर में खत्म हो गया। अब एक चीनी कम्पनी यह काम करेगी।
बंगाल की खाड़ी के उत्तर में कोको द्वीपों को म्यांमार सरकार ने 1994 में चीन को सौंप दिया था। हालांकि म्यांमार या चीन सरकार ने कभी आधिकारिक रूप से इसकी पुष्टि नहीं की, पर यह खुली जानकारी में है कि अंडमान निकोबार से तकरीबन 20 किलोमीटर दूर चीन ने सैनिक अड्डा बना लिया है, जहां से भारतीय नौसेना की गतिविधियों पर नजर रखी जाती है। भारत के सारे मिसाइल परीक्षण और उपग्रह प्रक्षेपण के काम पूर्वी तट पर होते हैं। इस लिहाज से चीन का यह अड्डा सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। पिछले दिनों चीन ने हिन्द महासागर के छोटे से द्वीप सेशेल्स में भी नौसैनिक अड्डा बना लिया। चीन का कहना है कि यह नौसैनिक अड्डा उसने समुद्री लुटेरों से अपने जहाजों की रक्षा के लिए स्थापित किया है। पर यह चीन की उस स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स का हिस्सा है, जो वह मेनलैंड चीन से सूडान के पोर्ट तक बना रहा है। वाशिंगटन के सेंटर फॉर ए न्यू अमेरिकन सिक्योरिटी के विशेषज्ञ रॉबर्ट कपलान के अनुसार चीन सामुद्रिक शक्ति के रूप में उभरने के लिए सबसे अच्छी स्थिति में है। उसने अपनी ज्यादातर भू-सीमाओं को व्यवस्थित कर रखा है, वह इस वक्त प्रभुत्व के चरम पर है। पिछले दिनों उसने अपनी नई ई-पासपोर्ट व्यवस्था में अरुणाचल प्रदेश और अक्साई चिन के कुछ हिस्सों को शामिल कर भारत को उकसाने की कोशिश भी की। हालांकि चीन के मुख्य वार्ताकार दाई बिनगुओ ने उम्मीद जताई है कि भारत और चीन के बीच दो हजार साल पुराने संबंध रहे हैं और दोनों देश कड़वाहट भूलकर आगे बढ़ेंगे। लेकिन यह संभव तब होगा जब चीन साम्राज्यवादी मानसिकता छोड़कर भारत से सीमा विवाद को ईमानदारी से हल करेगा।
चीन जो भी दलील दे लेकिन सच यही है कि उसकी उदासीनता की वजह से ही दोनों देशों के बीच सीमा विवाद ज्यों का त्यों बना हुआ है। उसके असंवेदनशील रुख के कारण 1976 से चल रही बातचीत किसी तार्किक नतीजे पर नहीं पहुंची है। उसके रुख को देखते हुए कहना गलत नहीं होगा कि वह सीमा विवाद सुलझाने के बजाए उसे उलझाए रखना चाहता है। विडंबना यह है कि मैकमोहन रेखा को भी वह स्वीकारने को तैयार नहीं है। चीन उसे अवैध बताता है।
गौरतलब है कि ब्रिटिश भारत और तिब्बत ने 1913 में शिमला समझौते के तहत अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में मैकमोहन रेखा का निर्धारण किया था। समझना जरूरी है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी एलओसी की वास्तविक स्थिति भी कमोवेश यही है। इस क्षेत्र में हिमालय प्राकृतिक सीमा का निर्धारण नहीं करता क्योंकि यहां से अनेक नदियां निकलती और सीमाओं को काटती हैं। वर्तमान स्थिति यह है कि दोनों देश एलओसी पर निगरानी कर रहे हैं। ऐतिहासिक संदर्भ में जाए तो तिब्बत, भारत और बर्मा की सीमाओं का ठीक से रेखांकन नहीं होने से अक्टूबर, 1913 में शिमला में अंग्रेजी सरकार की देखरेख में इन देशों के अधिकारियों की बैठक हुई।  भारत के पूर्वोत्तर हिस्से की सीमाएं रेखांकित न होने के कारण दिसम्बर, 1913 में दूसरी बैठक शिमला में हुई और अंग्रेज प्रतिनिधि जनरल मैकमोहन ने तिब्बत, भारत और बर्मा की सीमा को रेखांकित किया। आज के अरुणाचल का तवांग क्षेत्र मैकमोहन द्वारा खींची गई रेखा के दक्षिण में होता था। इसलिए तिब्बती सरकार बार-बार उस पर अपना दावा करती रही। तिब्बत का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकारने से उत्तर से पूर्वोत्तर तक कहीं भी भारत और चीन की सीमा नहीं मिलती थी। इस तरह उत्तरी-पूर्वी सीमा को एक प्राकृतिक सुरक्षा मिली हुई थी। लेकिन स्वतंत्र भारत की नेहरू सरकार की अदूरदर्शी नीति ने स्वतंत्र तिब्बत को बलिदान हो जाने दिया।
चीन पर साम्यवादियों का कब्जा होने के उपरांत 23 मई, 1951 को तिब्बत की दलाई लामा सरकार के प्रतिनिधियों और चीनी सरकार के अधिकारियों के बीच 17 सूत्रीय कार्यक्रम पर समझौता हुआ। इस समझौते को दलाई लामा ने तिब्बत के स्वतंत्र अस्तित्व की समाप्ति के रूप में देखते हुए भारत से रक्षा की गुहार लगाई, लेकिन तत्कालीन नेहरू सरकार ने अंग्रेजी दस्तावेजों का हवाला देकर तिब्बत पर चीन की अधीनता की बात स्वीकार ली। नतीजा माओ के रेडगार्डों ने तिब्बत पर चढ़ाई कर एक वर्ष के अंदर उस पर नियंत्रण स्थापित कर लिया।  आज की तारीख में सिक्किम-तिब्बत सीमा को छोड़कर लगभग पूरी भारत-चीन सीमा विवादित है। भारत और चीन के बीच विवाद की वजह अक्साई चिन और अरुणाचल प्रदेश का क्षेत्र भी है। पश्चिमी सेक्टर में अक्साई चिन का लगभग 3800 वर्ग किमी भू-भाग चीन के कब्जे में है। अक्साई चिन जम्मू-कश्मीर के उत्तर-पूर्व में विशाल निर्जन इलाका है। इस क्षेत्र पर भारत का अपना दावा है। लेकिन नियंत्रण चीन का है। दूसरी ओर पूर्वी सेक्टर में चीन अरुणाचल प्रदेश के 90 हजार वर्ग किमी पर अपना दावा कर उसे अपना मानता है। वह अरुणाचल प्रदेश से चुने गए किसी भारतीय सांसद को वीजा नहीं देता है। भारत की मनाही के बावजूद भी वह कश्मीर के लोगों को स्टेपल वीजा जारी कर रहा है। साथ ही पाकिस्तान से गलबहियां कर वह भारतीय संप्रभुता को भी चुनौती दे रहा है। गुलाम कश्मीर में सामरिक रूप से महत्वपूर्ण गिलगित-बल्तिस्तान क्षेत्र पर चीन अपना वर्चस्व बढ़ा रहा है। यहां तकरीबन 10 हजार से अधिक चीनी सैनिकों की मौजूदगी बनी हुई है। वह इन क्षेत्रों में सड़कों और रेल संपर्कों का जाल बिछा रहा है। सिर्फ इसलिए की भारत तक उसकी पहुंच आसान हो सके।
दरअसल चीन की मंशा अरबों रुपये खर्च करके कराकोरम पहाड़ को दो फाड़ करते हुए गवादर के बंदरगाह तक अपनी रेल पहुंच बनानी है, ताकि युद्धकाल में जरूरत पडऩे पर वह अपने सैनिकों तक आसानी से रसद पहुंचा सके। भारत सरकार की कूटनीतिक असफलता का ही परिणाम है कि चीन, नेपाल, बांग्लादेश और म्यांमार में भी अपना दखल बढ़ा रहा है। वह श्रीलंका में बंदरगाह भी बना रहा है जो भारतीय सुरक्षा के लिए बेहद खतरनाक है। लेकिन भारत सरकार श्रीलंका को साधकर चीन के मंसूबों को ध्वस्त करने में नाकामयाब है। चीन म्यांमार के गैस संसाधनों पर कब्जा करने में भी जुटा है। हालांकि भारत का म्यांमार से शताब्दियों का गहरा रिश्ता है और वह हमेशा भारत के साथ खड़ा रहा है। लेकिन परिस्थितियां तेजी से बदल रही हैं और चीन उसे अपने अनुकूल कर रहा है। विडंबना यह है कि भारत सरकार चीन के साथ सीमा विवादों में उलझी हुई है और वह भारत को चौतरफा घेरने में जुटा है। भारत को चीन पर दबाव बनाने के लिए तिब्बत के मसले पर अपना रुख कड़ा करना होगा। तिब्बत का स्वतंत्र अस्तित्व ही भारत की सीमाओं की रक्षा की सबसे बड़ी गारंटी है। लेकिन दुर्भाग्य है कि भारत की अब तक की सभी सरकारें तिब्बत का खुलकर पक्ष लेने से कतराती रही हैं। जबकि चीन भारतीय प्रतिनिधियों से वार्ता से पहले हर बार कुबूलवाने में सफल रहा है कि तिब्बत चीन का हिस्सा है। उसके विपरीत भारतीय हुक्मरान कभी भी चीन से यह कुबूलवाने में सफल नहीं हुए कि कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है। फिलहाल चीन, भारत के साथ सीमा विवाद सुलझाने की बात तो कर रहा है लेकिन उसके मन में क्या चल रहा है, यह समझना कठिन है। भारत 1962 में युद्ध के समय चीन से धोखा खा चुका है। उस समय हिंदी चीनी भाई-भाई का नारा देते हुए चीन ने भारत पर आक्रमण बोल दिया था और भारत की सैकड़ों मील जमीन दबा दी थी उस पराजय को भारत अभी तक नहीं भूल पाया है। आज फिर वही हालात हैं। चीन एक बड़ा बाजार है और बड़ा उत्पादक भी ऐसे में यह समझना कि चीन के विरोध में भारत का कोई साथी बन जाएगा सबसे बड़ी गलतफहमी है।

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