समलैंगिकता अपराध है?
18-Dec-2013 09:36 AM 1234805

सर्वोच्च न्यायालय ने वयस्कों के बीच सहमति से समलैंगिक यौन संबंध स्थापित करने को अपराध करार दिया। लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर (एलजीबीटी) समुदाय को करारा झटका देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली उच्च न्यायालय का वह बहुचर्चित फैसला खारिज कर दिया जिसके तहत समलैंगिक यौन संबंध बनाने को अपराध नहीं माना गया था। न्यायालय ने अपने फैसले में इस मुद्दे पर कानून में संशोधन करने की जिम्मेदारी संसद पर डाल दी। उधर, अदालत के इस फैसले से देश के समलिंगी, उभयलिंगी एवं किन्नर समुदाय (एलजीबीटी) में निराशा फैल गई। हालांकि समलैंगिक अधिकारों के लिए लडऩे वाले कार्यकर्ताओं ने अपनी लड़ाई जारी रखने का संकल्प लिया। न्यायालय के फैसले के खिलाफ पूरे देश में एलजीबीटी समुदाय सड़कों पर उतर आया, तो दूसरी ओर सरकार ने समलैंगिक रिश्तों को अपराध के दायरे से बाहर किए जाने के लिए विधायी रास्ता अख्तियार करने का संकेत दिया।
दिल्ली उच्च न्यायालय के 2009 में दिए गए फैसले के विपरीत सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी और न्यायमूर्ति एसजे मुखोपाध्याय की पीठ ने अपने फैसले में कहा कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 को बदलने के लिए कोई संवैधानिक गुंजाइश नहीं है। धारा 377 के तहत दो वयस्कों के बीच समलैंगिक रिश्ते को अपराध माना गया है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2009 में दिए अपने फैसले में धारा 377 के तहत के समलैगिक रिश्ते को गैर अपराधिक कृत्य करार दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने बुधवार को अपने फैसले में कहा कि हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि यह अदालत सिर्फ दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा आईपीसी की धारा 377 की संवैधानिकता पर रखे गए विचार की सत्यता पर अपना निर्णय दे रही है, तथा अदालत की नजरों में धारा 377 को बदलने के लिए कोई संवैधानिक गुंजाइश नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने महाधिवक्ता से कहा कि अगर सरकार चाहे तो कानून में संशोधन करवा सकती है।
न्यायालय ने कहा कि सक्षम विधानमंडल सांविधानिक पुस्तक से आईपीसी की धारा 377 को समाप्त करने या उसमें संशोधन करने की जरूरत और औचित्य पर विचार करने के लिए स्वतंत्र है। न्यायालय ने धारा 377 पर मार्च 2012 में हुई सुनवाई को सुरक्षित रखा था और 21 महीने बाद यह फैसला आया है। न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी और न्यायमूर्ति एसजे मुखोपाध्याय की पीठ ने दिल्ली उच्च न्यायालय के उस फैसले को दरकिनार कर दिया जिसमें वयस्कों के बीच पारस्परिक सहमति से बनने वाले समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया था। आईपीसी की धारा 377 के तहत समलैंगिक यौन संबंधों को अपराध माना गया है। इस मामले में दोषी पाए जाने पर उम्रकैद तक की सजा हो सकती है। पीठ ने विभिन्न सामाजिक और धार्मिक संगठनों की उन अपीलों को स्वीकार कर लिया जिनमें उच्च न्यायालय के फैसले को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि समलैंगिक संबंध देश के सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यों के खिलाफ हैं। समलैंगिक अधिकारों की लड़ाई लडऩे वाले कार्यकर्ताओं, अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल इंदिरा जयसिंह सहित कई संविधान विशेषज्ञों और बॉलीवुड की जानीमानी हस्तियों ने इसे काला दिनÓ करार दिया और कहा कि उच्चतम न्यायालय संवैधानिक मूल्यों के प्रसार का मौका चूक गयाÓ। सरकार ने यह कहते हुए उच्चतम न्यायालय के फैसले पर सतर्कता से प्रतिक्रिया जाहिर की कि वह कानून बनाने के अपने विशेषाधिकार का इस्तेमालÓ करेगी। न्यायालय ने यह कहते हुए विवादास्पद मुद्दे पर किसी फैसले के लिए गेंद संसद के पाले में डाल दी कि मुद्दे पर चर्चा और निर्णय करना विधायिका पर निर्भर करता है। शीर्ष अदालत के फैसले के साथ ही समलैंगिक संबंधों के खिलाफ दंड प्रावधान प्रभाव में आ गया है। जैसे ही फैसले की घोषणा हुई, अदालत में पहुंचे समलैंगिक कार्यकर्ता निराश नजर आए।
पीठ ने कहा कि आईपीसी की धारा 377 को हटाने के लिए संसद अधिकृत है, लेकिन जब तक यह प्रावधान मौजूद है, तब तक न्यायालय इस तरह के यौन संबंधों को वैध नहीं ठहरा सकता। फैसले की घोषणा होने के बाद समलैंगिक कार्यकर्ताओं ने कहा कि वे शीर्ष अदालत के फैसले की समीक्षा की मांग करेंगे। न्यायालय ने समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने वाले उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ समलैंगिकता विरोधी कार्यकर्ताओं और सामाजिक तथा धार्मिक संगठनों द्वारा दायर याचिकाओं पर आदेश पारित किया। उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि पुलिस द्वारा धारा 377 का दुरुपयोग उस कानून को निरस्त करने या संशोधित करने का आधार नहीं हो सकता जिसके तहत समलैंगिक यौन संबंध एक अपराध है। शीर्ष न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि भारत की संसद या विधानमंडलों द्वारा लागू किए गए कानून की वैधानिकता तय करने के लिए विदेशी कानून आंखें मूंद करÓ लागू नहीं किए जा सकते। न्यायालय ने कहा कि विदेशों में सुनाए गए फैसले एलजीबीटी समुदाय के अधिकारों के विभिन्न पहलुओं पर रोशनी डाल सकते हैं और वे सूचनाप्रद भी हो सकते हैं पर उन्हें यहा नहीं लागू किया जा सकता। उच्चतम न्यायालय के इस फैसले की कड़ी आलोचना हो रही है। कुछ लोग इसे मध्यकालीनÓ तो कुछ इसे प्रतिगामीÓ करार दे रहे हैं।
राहुल गांधी, सोनिया गांधी, वित्त मंत्री पी. चिदंबरम और कपिल सिब्बल ने इस फैसले की आलोचना की है। भारत में समलैंगिकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है और अब यह एक अच्छे वोट बैंक में भी तब्दील हो चुका है। यदि कांग्रेस इस फैसले को मान्य करते हुए संसद में कोई कानून नहीं लाती है तो उसकी और दुर्गति हो जाएगी। उधर भारतीय जनता पार्टी भी हिंदुवादी संगठनों के दबाव के बावजूद सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समर्थन करने में हिचक रही है। भाजपा ने कोई अधिकृत बयान नहीं दिया है। किंतु भाजपा के कई नेताओं ने सैद्धांतिक तौर पर इस निर्णय की आलोचना की है। समाज के बीच काम करने वालों का कहना है कि स्त्री और पुरुष की यौन आकांक्षाएं उनका निजी विषय है। इसे उन पर ही छोडऩा चाहिए। किसकी क्या आवश्यकता है और किसकी क्या प्राथमिकता है इस विषय में कोर्ट हस्तक्षेप न ही करें तो ठीक है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की आलोचना के बीच यह भी कहा जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने संसद को इस विषय में कानून बनाने को कहा है। संसद चाहे तो समलैंगिकता को वैध भी घोषित कर सकती है। देखना यह है कि कितनी जल्दी संसद में इस विषय पर विधेयक लाया जाता है। यदि कोई इस तरह का विधेयक आया तो उस पर होने वाली बहस पर भी सारे देश की निगाहें रहेंगी। सारा देश विभिन्न राजनीतिक दलों के मत जानना चाहेगा। जहां तक समलैंगिक समुदाय का प्रश्न है यह फैसला उनके लिए बहुत बड़ा धक्का है क्योंकि इस फैसले के अनुसार सारे समलैंगिक अपराधी घोषित कर दिए जाएंगे। विक्रम सेठ जैसे कई बड़े लोगों ने इस फैसले की आलोचना की है। समाज के सभी वर्गों से बुद्धिजीवियों ने इस फैसले को गलत बताया है, लेकिन धार्मिक नजरिए से फैसले का स्वागत किया जा रहा है।

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