15-Feb-2014 10:56 AM
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समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव विकास के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी की बराबरी नहीं कर सकते इसलिए अब उन्होंने राम मंदिर का मुद्दा उठाकर भाजपा को घेरने की चाल चली है। मुलायम अच्छी तरह जानते हैं कि राम मंदिर मुद्दे

पर वादा खिलाफी करके भारतीय जनता पार्टी ने उत्तरप्रदेश के लोगों के बीच अपनी छवि पूरी तरह नष्ट कर ली है। इसी कारण वे आगामी लोकसभा चुनाव में भी इस मुद्दे को पुनर्जीवित करना चाहते हैं। मजेदार बात तो यह है कि जिस भारतीय जनता पार्टी ने 2 सीटों से लेकर 180 सीटों तक का सफर राम मंदिर मुद्दे के भरोसे तय किया वह भाजपा सार्वजनिक मंचों से भी राम मंदिर का नाम कभी-कभार ही लेती है। पिछली बार कुंभ मेले के समय भाजपा ने राम मंदिर पर माहौल बनाने की कोशिश की थी उससे पहले जब सुप्रीम कोर्ट ने हाइकोर्ट की लखनऊ बेंच के फैसले को रोकते हुए राम मंदिर मुद्दे का हल बातचीत से निकालने का सुझाव दिया था उस वक्त भी भाजपा काफी मुखर थी। लेकिन अशोक सिंघल ने यह कहकर भाजपा को मायूस कर दिया था कि राम मंदिर का मुद्दा किसी राजनीतिक दल का मोहताज नहीं है। विहिप खुद इसे सुलझाने में सक्षम है। अब उत्तरप्रदेश में नरेंद्र मोदी मुख्यत: कांग्रेस और समाजवादी पार्टी पर निशाना साध रहे हैं। उनका संदेश स्पष्ट है कि उत्तरप्रदेश को गुजरात की तरह उन्नत प्रदेश बनाना है तो मौजूदा निजाम को बदलना होगा। मुलायम के पास इसकी तोड़ नहीं है। क्योंकि उत्तरप्रदेश की हालत बदतर है। बिजली, सड़क, पानी हर मुद्दे पर किसान बेतहाशा परेशान हैं। सरकार भी नाकाम हो चुकी है। इसीलिए मुलायम को राम मंदिर का मुद्दा याद आया है। उन्होंने हिंदुओं से कहा है कि उनके मुख्यमंत्रित्व काल में वे मंदिर निर्माण के लिए 17 एकड़ जमीन देना चाहते थे, लेकिन भाजपा ने राम मंदिर नहीं बनने दिया। देश और दुनिया से चंदा लिया। भाजपा बताए कि चंदे में मिले रुपए कहां हैं। क्या इस पर ब्याज हो गया है। क्या इसे बैंक में रखा है, सभी को यह जानने का हक है। मुलायम सांप्रदायिकता निवारण विधेयक और राम मंदिर का जिक्र करके मुसलमानों को शायद याद दिलाना चाह रहे हैं कि वे अकेले हिंदू हैं जिन्होंने विवादास्पद बाबरी ढांचा बचाने के लिए हिंदुओं को गोलियों से छलनी करवा दिया था। मुलायम 1990 कार सेवकों पर चलाई गई गोलियों का कर्ज मुसलमानों से अब उतरवाना चाहते हैं क्योंकि उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि यह एकमात्र मौका है जब वे प्रधानमंत्री बनने की अपनी चिर-प्रतीक्षित अभिलाषा को पूरा कर सकते हैं। इसके बाद उन्हें शायद ही मौका मिले। क्योंकि तब तक उनकी उम्र भी हो जाएगी और राजनीति में नई पीढ़ी सक्रिय होगी जो शायद किसी बुढ़ाते राजनीतिज्ञ को देश का प्रधानमंत्री बनाना पसंद न करें। इसी कारण मुलायम स्वयं को धर्मनिरपेक्षता का सरताज बताते हुए कांग्रेस पर भी हमला कर रहे हैं। उनका कहना है कि सांप्रदायिकता निवारण बिल के मुद्दे पर कांग्रेस हमेशा ढुलमुल नीति अपनाती है और सांप्रदायिक ताकतों के आगे घुटने टेक देती है। विधेयक को लेकर उसकी नीयत ठीक नहीं है।
ज्ञात रहे कि सांप्रदायिक हिंसा निवारण विधेयक हाल ही में संसद में गिर चुका है। भाजपा इसका प्रबल विरोध कर रही है और उधर कांग्रेस तथा समाजवादी पार्टी हर हाल में इस विधेयक को पारित करना चाहती है क्योंकि इसमेंं उनकी संजीवनी छिपी हुई है। सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा निवारण से संबंधित विधेयक को सबसे पहले मनमोहन सिंह सरकार ने 2005 में लागू करने की कोशिश की थी, लेकिन विभिन्न दलों के विरोध को देखते हुए केंद्र सरकार ने इसे वापस ले लिया था। इसका संशोधित प्रारूप संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्षा सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् (नेशनल एडवाइजरी काउंसिल- एनएसी) ने तैयार किया था। एनएसी ने 14 जुलाई, 2010 को सांप्रदायिकता विरोधी बिल का प्रारूप बनाने के लिए एक समिति का गठन किया था। 28 अप्रैल, 2011 की एनएसी ने बैठक के बाद नौ अध्यायों और 138 धाराओं में तैयार किया था। इसके बाद 2011 में यूपीए सरकार कुछ संशोधनों के बाद इस विधेयक को लेकर आयी और इसमें अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लोगों को भी इस विधेयक के तहत लाया गया।
एससी/एसटी को शामिल करने को लेकर एक बार फिर इस विधेयक का भारी विरोध हुआ और विरोधियों ने कहा कि अगर कोई सांप्रदायिक हिंसा मुसलिमों और अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजातियों के बीच होती है, तो ऐसी हालत में यह विधेयक सिर्फ मुसलमानों का ही साथ देगा और बहुत संभव है कि तब दलितों की रक्षा के लिए बना दलित एक्ट भी अप्रभावी हो जायेगा। इस तरह यह विधेयक एक बार फिर पास होते-होते रह गया। दरअसल, इसकी सबसे अधिक विवादस्पद बात यह है कि इसमें यह बात पहले से ही मान ली गयी थी कि हिंसक केवल बहुसंख्यक होते हैं, अल्पसंख्यक नहीं। दिसंबर, 2013 में एक बार फिर कैबिनेट ने विधेयक को हरी झंडी दी। 5 फरवरी 2014 को राज्यसभा में पेश भी किया गया, लेकिन इसका हश्र भी पहले जैसा ही हुआ।
इस बीच बेनी प्रसाद वर्मा ने समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव को राम मंदिर मुद्दे पर खुली बहस की चुनौती देकर आग में घी डालने का काम किया है। सवाल यह है कि बेनी खुले मंच से बहस क्या करेंगे। जिस वक्त बाबरी ढांचा अयोध्या में गिराया गया उस वक्त केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और राज्य में भाजपा की सरकार थी। इसी कारण कांग्रेस के लिए भी यह अहम मुद्दा है क्योंकि उसे राज्य के मुस्लिम वोटों से बड़ी उम्मीद है और बाबरी ढांचे पर कांग्रेस पहले भी कई बार स्पष्टीकरण दे चुकी है।
हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
12 सितंबर 2011 को इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ ने अयोध्या के विवादित स्थल बाबरी मस्जिद पर ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए इस स्थल को राम जन्मभूमि घोषित कर दिया। हाईकोर्ट ने इस मामले में बहुमत से फैसला करते हुए तीन हिस्सों में बांट दिया।
क्या है विवाद?
हिंदुओं के मुताबिक भारत के प्रथम मुगल सम्राट बाबर के आदेश पर 1527 में बाबरी मस्जिद का निर्माण किया गया था। पुजारियों से हिंदू ढांचे या निर्माण को छीनने के बाद मीर बाकी ने इसका नाम बाबरी मस्जिद रखा। 1940 से पहले, मस्जिद को मस्जिद-ए-जन्मस्थान कहा जाता था। हिंदुओं का तर्क है कि बाबर के रोजनामचा में विवादित स्थल पर मस्जिद होने का कोई जिक्र मौजूद नहीं है। लेकिन मुस्लिम समुदाय ऐसा नहीं है। उनके मुताबिक बाबर ने जिस वक्त यहा पर आक्रमण किया और मस्जिद का निर्माण करवाया उस वक्त यहां पर कोई मंदिर मौजूद नहीं था।
मुस्लिम समुदाय के मुताबिक 1949 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस मस्जिद में रामलला की मूर्तियां रखवाने पर अपनी गहरी नाराजगी जताई थी और इस बाबत सूबे के मुखिया जेबी पंत को एक पत्र भी लिखा था। लेकिन पंत ने उनकी सभी आशकाओं को खारिज करते हुए अपना काम जारी रखा था।
1908 में प्रकाशित इंपीरियल गजेट ऑफ इंडिया में भी कहा गया है कि इस विवादित स्थल पर बाबर ने ही 1528 में मस्जिद का निर्माण करवाया था। इस ढांचे को लेकर होने वाले विवाद के कई पन्ने भारतीय इतिहास में दर्ज किए जा चुके हैं। 1883, 1885, 1886, 1905, 1934 में इस जगह पर विवाद हुआ और कुछ मामलों में कोर्ट को हस्तक्षेप भी करना पड़ा। आजाद भारत में 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाधी ने जब इस विवादित स्थल के ताले खोलने के आदेश दिए तो यह मामला एक बार फिर से तूल पकड़ा। प्रधानमंत्री ने यहां पर कुछ खास दिनों में पूजा करने की अनुमति दी थी।
1989 में विश्व हिंदू परिषद को यहां पर मंदिर के शिलान्यास की अनुमति मिलने के बाद यह मामला हाथ से निकलता हुआ दिखाई दे रहा था। इसके बाद भारतीय जनता पार्टी ने रामजन्म भूमि के मुद्दे को भुनाया भी। अयोध्या में विवादित स्थल पर मंदिर निर्माण को लेकर रथ यात्रा शुरू की। छह दिसंबर को डेढ़ लाख कारसेवकों की भीड़ ने इस विवादित ढांचे को जमींदोज कर दिया। उस वक्त केंद्र में कांग्रेस की और प्रदेश में भाजपा की सरकार थी। राज्य में इस सरकार की कमान कल्याण सिंह के हाथों में थी।
राम मंदिर मामले में कब क्या हुआ
विवाद की शुरुआत साल 1987 में हुई। 1940 से पहले मुसलमान इस मस्जिद को मस्जिद-ए-जन्मस्थान कहते थे, इस बात के भी प्रमाण मिले हैं। 1947 में भारत सरकार ने मुस्लिम समुदाय को विवादित स्थल से दूर रहने के आदेश दिए और मस्जिद के मुख्य द्वार पर ताला डाल दिया गया, जबकि हिंदू श्रद्धालुओं को एक अलग जगह से प्रवेश दिया जाता रहा।
विश्व हिंदू परिषद ने 1984 में मंदिर की जमीन को वापस लेने और दोबारा मंदिर का निर्माण कराने को एक अभियान शुरू किया।
1989 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने आदेश दिया कि विवादित स्थल के मुख्य द्वारों को खोल देना चाहिए और इस जगह को हमेशा के लिए हिंदुओं को दे देना चाहिए। साप्रदायिक ज्वाला तब भड़की जब विवादित स्थल पर स्थित मस्जिद को नुकसान पहुंचाया गया। जब भारत सरकार के आदेश के अनुसार इस स्थल पर नए मंदिर का निर्माण शुरू हुआ तब मुसलमानों के विरोध ने सामुदायिक गुस्से का रूप लेना शुरू कर दिया।
6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के साथ ही यह मुद्दा साप्रदायिक हिंसा और नफरत का रूप लेकर पूरे देश में फैल गया। देश भर में हुए दंगों में दो हजार से अधिक लोग मारे गए। विवादित ढांचे के विध्वंस के 10 दिन बाद मामले की जाच के लिए लिब्रहान आयोग का गठन किया गया।
2003 में हाईकोर्ट के आदेश पर भारतीय पुरात्ताव विभाग ने विवादित स्थल पर 12 मार्च 2003 से 7 अगस्त 2003 तक खुदाई की जिसमें एक प्राचीन मंदिर के प्रमाण मिले। 2003 में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में 574 पेज की नक्शों और समस्त साक्ष्यों सहित एक रिपोर्ट पेश की गयी।