बायो डायवर्सिटी एक्ट, लगेगा टैक्स?
15-Feb-2014 10:47 AM 1234931

महाभारत में एक प्रसंग है भीम पेड़ों को तहस-नहस कर रहे हैं, जलावन की लकड़ी के लिए, तभी धर्मराज आते हैं और उन्हें कहते हैं कि भीम प्रकृति से उतना ही लो जितने की आवश्यकता है। प्रकृति जीवन की पूर्ति के लिए है लालच के लिए नहीं। 1992 में जब रियो डी जेनेरियो में दुनिया पर्यावरण और जैव विविधता पर चर्चा करने के लिए एकत्रित हुई तो पर्यावरण की चिंता करने वालों के चेहरे पर यही सवाल था कि क्या हम बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उस लालच पर अंकुश लगा सकते हैं जिसके चलते विश्व के समक्ष जैव विविधता नष्ट होने का संकट मंडरा रहा है। उस समय कुछ कठोर उपायों की घोषणा उस कंवेंशन में की गई थी। लगभग सभी भागीदार यह तो मानते थे कि प्रकृति का आवश्यकता से अधिक  दोहन विनाश का कारण बन सकता है किंतु बहुराष्ट्रीय कंपनियों और मुनाफा कमाने वाले मुनाफाखोरों के लालच को रोकने का कोई प्रभावी उपाय किसी भी देश के पास नहीं था। लिहाजा यह संकल्प किया गया कि राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर से लेकर प्रांतीय स्तर तक ऐसे कानून बनाए जाएं जिनसे प्रकृति का दोहन न रुक सके तो कम से कम संरक्षण तो हो सके। भारत जैसे देश में जहां विश्व की सर्वाधिक जैव विविधता पाई जाती है इस कानून का सर्वाधिक महत्व था।
किंतु भारत ने ही जैव विविधता के लिए की गई इस महत्वपूर्ण पहल को अमल में लाने में लगभग एक दशक लगा दिया। उद्योगजगत के दबाव के बावजूद जब 2002 में बायोडायवर्सिटी एक्ट 2002 लाया गया तो लगा कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा रियो डी जेनेरिया में बुलाई गई यूनाटेड नेशन्स कंवेंशन ऑन बायोलॉजिकल डायवर्सिटी में पांच जून 1992 को भारत ने जो हस्ताक्षर किए थे उस वादे को निभाने का समय आ चुका है, लेकिन भारत के गणतंत्र की 53वीं वर्षगांठ के समय बनाया गया यह कानून केवल कागजों में दफन होकर रह गया। यदि इस कानून को उस समय से ही प्रभावी तरीके से लागू किया जाता तो संभवत: पिछले एक दशक के दौरान जैव विविधता संरक्षण का काम इतना आगे बढ़ सकता था कि इससे पर्यावरण को लेकर हमारे देश के लक्ष्य को पूरा करने में सफलता मिलती। लेकिन इस कानून को सख्ती से लागू करने की फिक्र किसे थी। अन्य कानूनों की तरह यह कानून भी कानून की किताबों में बंद रह गया। संभवत: उद्योगजगत इस कानून का भार ढोने के लिए राजी नहीं था इसलिए 2004 में जब इस कानून के तहत नेशनल बायो डायवर्सिटी अथॉरिटी का गठन किया गया तो यह केवल एक रस्मी संस्था बनकर रह गई और इसी कानून के तहत राज्यों में गठित स्टेट बायो डायवर्सिटी बोर्ड भी सुप्त होकर बैठे रहे। वैसे तो इस कानून का दायरा बहुत बड़ा है, लेकिन मोटे तौर पर देखा जाए तो इसमें कुछ महत्वपूर्ण बाते हैं। जैसे उन उद्योगों को जो जैविक सामग्री से उत्पाद बना रहे हैं। अपने उत्पाद के व्यावसायिक उपयोग के बदले में 2 प्रतिशत टैक्स देना होगा। खास बात यह है कि टैक्स की इस राशि का 95 प्रतिशत उन ग्राम एवं वन समितियों को सीधे मिलेगा जो जैव विविधता संरक्षण का काम कर रही हैं। सरल रूप में समझा जाए तो यह पैसा जैव विविधता को बनाए रखने एवं उसके दीर्घ कालीन संरक्षण के लिए है। यह एक अनूठी और बुद्धिमत्ता पूर्ण पहल थी जिसे बहुत सोच समझकर प्रस्तावित किया गया था। यदि इस पहल के अनुरूप कार्य होता तो टिकाऊ परिणाम मिलना तय थे, किंतु एक तो इस एक्ट को बहु प्रचारित नहीं किया गया। दूसरे इसके विषय में जागरुकता का अभाव देखने में आया और तीसरा महत्वपूर्ण कारण संभवत: इस टैक्स तथा कानून की सही व्याख्या न होना है।
जैसा कि फरवरी के दूसरे सप्ताह में इस टैक्स को लेकर फिक्की जैसे तमाम संगठनों की तरफ से सरकार के समक्ष अपना पक्ष रखने वाले लगभग 12 सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल के एक सदस्य अशोक खंडेरिया का कहना है कि यह एक्ट स्पष्ट नहीं है। क्योंकि सभी जैविक वस्तुओं के व्यवसाय से प्राप्त लाभ एक समान नहीं होता इसलिए 2 प्रतिशत कर सभी पर लगाना युक्तिसंगत नहीं है। इसमें विसंगतियों को दूर किया जाना चाहिए। खंडेरिया यह भी कहते हैं कि जो भी जैविक उत्पाद हैं वे फेयर प्राइज देकर किसानों से खरीदे जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि कंपनियां अपने लाभ का हिस्सा किसानों में पहले ही बांट रही हंै। ऐसी स्थिति में यह नया कर उद्योगों की कमर तोड़ देगा। इस पर राष्ट्रीय सहमति बनाने की आवश्यकता है। बायोलॉजिकल रिसोर्सेस को भी सही तरीके से परिभाषित करना होगा। क्योंकि हवा, धूप, पानी भी उसी श्रेणी में आते हैं। किस उपज पर कितना कर लिया जाए यह देखा जाना भी आवश्यक है। खासकर छोटे व्यवसायियों को यह नया कानून मुश्किल में डाल सकता है। इसमें यह नहीं बताया गया कि टैक्स किस राज्य में या किसे देना है। पंजीकरण कहां होगा। एक उत्पादक या व्यवसायी कई राज्यों से जैविक उत्पाद खरीदता है। यदि हर राज्य में उसे अलग-अलग टैक्स देना पड़े तो लागत बहुत बढ़ सकती है। सरकार को इसे स्पष्ट करना चाहिए। नेशनल जैव विविधता प्रबंधन समिति ने सोयाबीन, जौ सहित तमाम अनाज आंवला, नारियल, कोयला जैसी तमाम जैविक वस्तुओं को इस श्रेणी में रखते हुए इनके वावसायिक उपयोग पर टैक्स लगाने का प्रस्ताव दिया है।
राष्ट्रीय जैव विविधता प्रबंधन समिति और बहुत से राज्यों के जैव विविधता बोर्ड इस कानून को महज औपचारिकता मान सुप्त प्राय: से पड़े हुए हैं, किंतु मध्यप्रदेश में जैव विविधता बोर्ड ने थोड़ी सक्रियता दिखाई है और छिंदवाड़ा के इकलहरा गांव की एक समिति ने इस सिलसिले में मुकदमा भी दायर किया है जो एस्सार, रिलायंस, बीएलए पॉवर, साउथ वेस्टर्न कोल फील्ड जैसी तमाम कंपनियों के खिलाफ है इसमें कोयले को जैविक उत्पाद मानते हुए इस पर टैक्स लेने की बात कही गई है। मजेदार बात यह है कि सितंबर 2013 में यह मामला ग्रीन ट्यूबनल में भी गया है। राष्ट्रीय जैव विविधता प्रबंधन समिति ने कोयले को जैविक उत्पाद नहीं माना है जबकि मध्यप्रदेश के जैव विविधता बोर्ड का मत अलग है। इस अधनियम के सेक्शन 7 के तहत जो घरेलू कंपनियां अधिनियम की धाराओं का उल्लंघन करेंगी उन्हें पांच लाख रुपए जुर्माना तथा कंपनी के 4 शीर्ष अधिकारियों को छह माह तक की जेल का प्रावधान है। यदि कंपनी विदेशी है तो इस अधिनियम के सेक्शन 3 के तहत 10 लाख रुपए जुर्माना और 3 वर्ष तक की जेल का प्रावधान है। इस अधिनियम के तहत मध्यप्रदेश की बहुत सी कंपनियों को नोटिस दिया गया है। बायो डायवर्सिटी बोर्ड के अधिवक्ता दीपेश जोशी का कहना है कि यह कानून 2002 में बना और इसमें शुरुआती वर्षों में कुछ छूट थी लेकिन 2 वर्ष बाद कानून में कोई भी परिवर्तन संभव नहीं था। उन्होंने बताया कि मौजूदा कानून के दायरे में कई ऐसी कंपनियां आती है जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कच्चे माल के रूप में जैविक उत्पादों का प्रयोग कर रही हैं। इन कंपनियों पर पिछले कई वर्षों का जैविक टैक्स बकाया है। यह राशि अरबों में है और यदि इसे ब्याज सहित वसूलकर उन समितियों को इसका 95 प्रतिशत हिस्सा दिया जाता है तो जैव संपदा को संरक्षित करने की दिशा में क्रांतिकारी पहल की जा सकती है।
किंतु इस कानून के दायरे से बचने के लिए बड़ी-बड़ी औद्योगिक इकाइयों से लेकर छोटे और मंझोले उत्पादक यथा संभव प्रयास कर रहे हैं। सरकार पर भी दबाव बनाया जा रहा है कि वह राष्ट्रीय और राज्यों के जैव विविधता बोर्ड का अस्तित्व ही समाप्त कर दे। टैक्स वसूलना तो दूर इस संबंध में प्रभावी उपाय करने की कोशिश भी नहीं की जा रही है। नौकरशाही व्यावसायिक लॉबी के दबाव में इस एक्ट का तोड़ निकालने में जुट गई है। किंतु समस्या यह है कि यह अधिनियम तभी समाप्त किया जा सकता है जब संसद में इसको पुन: लाकर संशोाधन किया जाए। पर सरकार के लिए भी इस कानून को समाप्त करना संभव नहीं होगा। क्योंकि सरकार ने रियो डी जेनेरियो में प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किए हैं। जेनेवा कंवेंशन में भी सरकार आश्वासन दे चुकी है। इस कानून से पीछे हटने का अर्थ पर्यावरण को लेकर चल रही विश्व व्यापी चिंताओं से मुंह मोडऩा ही होगा और भारत जैसे जैव विविधता संपन्न देश में इस तरह का कदम बहुत महंगा पड़ सकता है।
संभवत: इसीलिए व्यावसायिक जगत इसके अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव से अवगत रहते हुए एक ऐसा रास्ता तलाशने में जुटा हुआ है जिससे कम से कम कर देते हुए इस कानून का रक्षण किया जा सके। फिलहाल तो कानून से बचने के दांवपेंच जारी है। मध्यप्रदेश सरकार भी कोई रास्ता तलाश रही है। जैसा कि अशोक खंडेरिया का कहना भी है कि मध्यप्रदेश विकसित राज्यों की श्रेणी में नहीं है। यहां उद्योगों को आमंत्रित करना पड़ता है। राज्य सरकार उद्योगों की संख्या बढ़ाने के लिए जी-तोड़ प्रयास कर रही है, लेकिन जैव विविधता संरक्षण कानून के तहत लगने वाले टैक्स से सरकार के इस अभियान को धक्का भी पहुंच सकता है। उधर सरकार की चिंता अलग तरह की है। जो भी राज्य पर्यावरण संरक्षण के मानकों को सही तरीके से मानते नहीं हैं उन्हें अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से लोन आदि मिलने में दिक्कत होती है। इसीलिए मंत्री गौरीशंकर शेजवार ने साफ कर दिया है कि राज्य बायो डायवर्सिटी बोर्ड भंग नहीं किया जाएगा और न ही किसी भी हालत में उन 28 हजार 500 के करीब वन तथा ग्राम समितियों को उनके अधिकारों से वंचित किया जा सकता है। ऐसे हालात में सरकार का अगला कदम क्या होगा यह देखना दिलचस्प है। वैसे इस कानून को लागू करने का कोई रास्ता तलाशा जाता है तो संभवत: हमें फिर से गांव हरे-भरे दिखने लगे और वे पेड़ पौधे तथा वनस्पति जो लुप्त होती जा रही हैं फिर से अस्तित्व में आ जाएं।
खानापूर्ति के अलावा कुछ नहीं
भारत के बायोलॉजिकल डायवर्सिटी एक्ट 2002 के तहत नेशनल बायोडायवर्सिटी अथॉरिटी के ज़रिये एक कमेटी का गठन किया गया, जो राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से बायोलॉजिकल संसाधनों के इस्तेमाल के लिए आने वाले आवेदनों की जांच करता है। जबसे इस कमेटी का गठन हुआ है, तबसे अब तक इसकी पांच बार बैठक हो चुकी हैं। इस दौरान सरकारी मान्यता प्राप्त संस्थाओं मसलन, नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेज, एनआरसी ऑन मेडिसिनल एंड एरोमेटिक प्लांट आदि के आवेदनों को भी मंजूरी दी गई, जबकि इनके प्रतिनिधि भी इस कमेटी के सदस्य हैं। बैठक में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) का एक वैज्ञानिक भी शामिल था। इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स (आईपीआर) के लिए सीएसआईआर के 126 आवेदनों पर विचार किया गया और उसे मंजूरी भी दी गई। 26 जुलाई, 2007 को सेवानिवृत आईएएस अधिकारी एमएल मजूमदार की अध्यक्षता में गठित एक्सपर्ट अपराइजल कमेटी यानी विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति (ईएसी) द्वारा पांडुरंगा टिंबलो इंडस्ट्रीज को मंजूरी दी गई। मंजूरी देने के समय मजूमदार खुद चार कंपनियों यूरेनियम कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड, आरबीजी मिनरल्स इंडस्ट्रीज लिमिटेड, हिंदुस्तान डॉर-ऑलिवर लिमिटेड और आधुनिक मेटालिक्स लिमिटेड के निदेशक थे। प्रत्यक्ष तौर पर इन माइंस का पांडुरंगा टिंबलो से कुछ खास लेना-देना नहीं है, लेकिन निश्चित तौर पर अध्यक्ष की नियुक्ति में निष्पक्षता नहीं बरती गई। अक्टूबर 2009 में जेनेटिकली इंजीनियरिंग अप्रुवल कमेटी (जीईएसी) ने भारत में पहले जेनेटिकली मोडिफाइड फसल बीटी बैंगन को मंजूरी दी। फैसला लेने से पहले मामले पर विचार करने के लिए एक एक्सपर्ट कमेटी का गठन किया गया। जीईएसी का अंतिम फैसला व्यापक तौर पर इसी कमेटी के सुझावों पर आधारित था। इस विशेषज्ञ समिति में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ वेजीटेबल रिसर्च (आईआईवीआर) के निदेशक डॉ. मथुरा राय शामिल थे। आईआईवीआर यूएस-एड के एबीएसपी-टू प्रोजेक्ट से जुड़ा है, जिसके तहत बीटी बैंगन को विकसित किया गया। जाहिर है, बीटी बैंगन की मंजूरी में किसी तरह का कोई संदेह नहीं था। समिति में शामिल अन्य लोगों में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के डॉ. आनंद कुमार भी थे, जो ख़ुद बीटी बैंगन को विकसित करने के काम से जुड़े हैं। ध्यान रहे कि इस कमेटी का प्रमुख काम जैविक सुरक्षा और प्रायोगिक परीक्षणों से मिलने वाले आंकड़ों का आकलन करना था। उक्त सभी टकराव के गंभीर कारण हैं।
हालांकि कई बार हितों का यह टकराव सतह पर नजर नहीं आता, लेकिन यही वह अवसर है, जिसमें कोई नीति निर्धारक किसी क्षेत्र विशेष के विकास के लिए वहां पहले से मौजूद वनक्षेत्र को खत्म करने के प्रस्ताव पर विचार करता है। ऐसी परिस्थितियों में ही उसके पूर्वाग्रह उसकी निर्णय प्रक्रिया में अहम भूमिका निभाने की हालत में आ जाते हैं, अन्यथा इसकी और कोई व्याख्या नहीं हो सकती कि ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए किसी प्रोजेक्ट को मंजूरी दे दी जाए, भले ही वह किसी पुराने फैसले के मुताबिक गैरकानूनी हो। सवाल यह है कि कहां गए ऐसे वैज्ञानिक, जिनका संबंध कॉरपोरेट घरानों से नहीं है? कहां हैं ऐसे विशेषज्ञ, जिनका राजनीतिक दलों से ताल्लुक नहीं है? पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर लिए जा रहे फैसलों में विशेषज्ञों का रंग तो बेशक दिखता है।

विभाग बंद कराने की मंशा
देखा जाए तो बायोटेक्नोलॉजी बोर्ड और बायोटेक्नोलॉजी विभाग दोनों ही कोई खास करिश्मा नहीं दिखा पाए हैं। स्टाफ भी ज्यादा बड़ा नहीं है। बोर्ड में तो कुल जमा 23 सदस्य ही हैं। इसीलिए प्रशासनिक मुखिया तो बोर्ड को बंद करने के पक्ष में है, किंतु गौरीशंकर शेजवार का कहना है कि मेरे रहते हुए विभाग बंद नहीं होगा। उधर प्रिंसिपल सेकेट्री ने संदेश दिया है कि कृषि विभाग बायोटेक्नोलॉजी अपने पास रखना चाहता है जबकि बायोडायवर्सिटी को फारेस्ट को देने के पक्ष में है। इससे साफ है कि मध्यप्रदेश में भी भले ही बोर्ड ने सक्रियता दिखाई हो, लेकिन सरकार के नुमाइंदे जैव विविधता को लेकर विशेष गंभीर नहीं है।

बायो डायवर्सिटी लाभांश वितरण में निर्णय लेने का अधिकार बोर्ड को है।
-राजेश राजौरा, प्रमुख सचिव

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