05-Dec-2013 09:37 AM
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इंडोनेशिया के बाली में शक्तिशाली देशों के द्वारा अपेक्षाकृत कमजोर और विकासशील देशों को शिकंजे में लेने के लिए जो विश्व व्यापार संगठन की मंत्री स्तरीय बैठक दिसंबर के पहले सप्ताह में होनी है उसमें शामिल एजेंडे में इन देशों की

कृषि को पूरी तरह बंधक बनाए जाने की बात तो है ही इसका असर पर्यावरण पर भी विपरीत पड़ सकता है। भारत की दुविधा तो यह है कि वह पहले ही खाद्य सुरक्षा योजना का बोझ ढोने के लिए विवश है, जिसका असर विपरीत रूप से पडऩा तय है और यदि विश्व व्यापार संगठन द्वारा प्रस्तावित पीस क्लाज को मंजूर कर लिया जाता है तो कृषि उत्पादन पर बुरा असर पडऩे के साथ-साथ पर्यावरण भी पूरी तरह नष्ट हो जाएगा।
खबर है कि सरकार ने जी-33 समूह का सदस्य देश होने के कारण पीस क्लाज के पक्ष में मतदान करने का मन बना लिया है। बाली बैठक के लिए हुई कैबिनेट की बैठक में इस बात की सहमति बन गई है कि वह पीस क्लाज के पक्ष में मतदान करेगी। किसान संगठन सरकार के इस रुख का विरोध कर रहे हैं क्योंकि पीस क्लाज को मंजूरी देने पर खाद्यान उत्पादन और वितरण से जुड़ी नीतियों को दुनिया के दूसरे देशों से साझा करने की अनिवार्यता हो जाएगी। इसके साथ ही किसान संगठनों का कहना है कि इसलिए सरकार को इसे खारिज कर देना चाहिए और जी-33 देशों के वास्तविक मुद्दों पर नेगोसिएशन करना चाहिए।
असल में डब्ल्यूटीओ वार्ता के उरुग्वे राउंड के समझौतों के बाद पीस क्लॉजÓ प्रभाव में आया और इसकी अवधि नौ वर्ष की रखी गई थी। उरुग्वे राउंड में कृषि समझौते पर कोई नतीजा ना निकलने पर यूरोपीय कमीशन और अमेरिका ने पीस क्लॉजÓ का उपयोग, बात को आगे बढ़ाने के लिए किया था। अब डब्ल्यूटीओ के अधिकतर सदस्य देश इस विवदास्पद पीस क्लॉजÓ के हक में नहीं थे, लेकिन डब्ल्यूटीओ ही कहीं पटरी से फिसल न जाए, इसलिए मजबूरी में इन देशों ने इसे माना। हालांकि सोचने वाली बात यह है कि फिसलने देते डब्ल्यूटीओ पटरी से, क्या जरुरी थी ऐसे व्यापार समझौते को मानने की जिसमें सिर्फ विकसित देशों का ही भला हो, लेकिन पीस क्लॉजÓ को पीस फुल्लीÓ सहमति दे दी गई।
डब्ल्यूटीओ की नौंवीं मंत्री स्तरीय बैठक में देश के हित में सोचने वाले लोगों को भारत के नेतृत्व में जी-33 देशों के समूह द्वारा रखे जाने वाले खाद्य सुरक्षा प्रस्ताव को लेकर काफी चिंताएं उभर रही हैं। यह चिंता इसलिए है कि भारत के नेतृत्व में जी-33 देश इस विवादास्पद पीस क्लॉजÓ को लाने को तैयार हैं। डब्ल्यूटीओ की शर्तों के अनुसार कुल कृषि उत्पादन के 10 फीसदी मूल्य को सब्सिडी के तौर पर दिया जा सकता है। लेकिन, कई विकासशील देशों खासकर भारत में खाद्य सुरक्षा विधेयक पूरी तरह लागू होने के बाद ये सीमा से सब्सिडी ऊपर निकल जाएगी, इसलिए पीस क्लॉज को बाली में लाने की तैयारी है, इससे भारत में किसानों और अन्य सब्सिडी पर कोई आवाज नहीं उठाएगा और न ही भारत किसी अन्य को कुछ कह सकता है। सरकार एक तरफ तो किसानों को उपज का उचित मूल्य दिलवाने के लिए एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है और साथ ही गरीबों को सस्ती दरों पर अन्न उपलब्ध कराने के लिए खाद्य सुरक्षा जैसे कानून बनावा रही है, लेकिन वहीं दूसरी तरफ विकसित देशों के दबाव में पूरी खाद्य सुरक्षा और किसानों की आजीविका को गिरवी रख रही है। डब्ल्यूटीओ के नियमों के अनुसार सब्सिडी को व्यापार के लिए विकृत करने वाला माना जाता है और इसीलिए सब्सिडी को कुल उत्पादन के 10 फीसदी तक सीमित करना आवश्यक है। आप खुद भी यह जानते हैं कि हाल ही में आए खाद्य सुरक्षा विधेयक के चलते, जल्दी ही भारत इस 10 फीसदी की सीमा को तोड़ देगा। इसलिए एओए यानी एग्रीमेंट ऑन एग्रीकल्चर में पीस क्लॉज के प्रस्ताव द्वारा बदलाव करने की बात कही जा रही है जिससे ग्रीन बॉक्स का लाभ लेकर विकासशील व गरीब देश सब्सिडी अपने किसानों को दे सकेंगे, जैसे विकसित देश दें रहें हैं। डब्ल्यूटीओ में अपनी बात रखने के लिए पीस क्लॉज का सहारा लेने की बात उठाई जा रही है, जिससे भारत अगर सब्सिडी की सीमा पार करता है तो कोई भी उसे तंग नहीं करेगा। लेकिन साथ ही ये बात भी है कि ये पीस क्लॉज 4 वर्ष के लिए ही है, जबकि पहले भारत करीब 8 साल के लिए इसकी मांग कर रहा था। असल में इस पीस क्लॉज की अवधी के दौरान कृषि समझौते, सब्सिडी आदि का स्थाई समाधान ढूंढने की बात है। लेकिन अच्छा होता कि भारत पीस क्लॉज के झमेले ना पड़ कर डब्ल्यूटीओ में विकासशील व गरीब देशों के हित में सब्सिडी आदि का मुद्दा उठाता और अमीर देशों द्वारा दी जाने वाली कृषि व निर्यात सब्सिडी से गरीब देशों को होने वाले नुकसान का स्थाई समाधान ढूंढता।
डब्ल्यूटीओ में एक तरह से देखा जाए तो गरीब और विकासशील देशों के लिए कुछ खास है ही नहीं, असल में डब्ल्यूटीओ की शर्त न मानने पर प्रतिबंध आदि लगाने का प्रावधान है, लेकिन क्या कोई गरीब अफ्रीकी देश, किसी विकसित देश जैसे अमेरिका की दादागिरी पर प्रतिबंध लगा सकता है? अमेरिका और यूरोप के देश भी डब्ल्यूटीओ के सारे तोड़ ढूंढकर अपने हित में इस्तेमाल करते है। ये विकसित देश एक तरफ कारोबार के लिए आसान शर्तों की बात करके आयात की शर्तें कम करते है तो दूसरी तरफ आयातित उत्पाद के लिए ऊंचे मानक रखते है और निर्यात सब्सिडी देकर गरीब और विकासशील देशों के लिए कारोबार का रास्ता बंद कर देते है या फिर बहुत थोड़ा खोलते है।
अब सोचिए सरकार चार साल के लिए अपना हित सुरक्षित रखने की बात कर रही है, तो क्या इस क्लॉज की अवधी खत्म होने के बाद हमें अपने देश के भूखों को खाना खिलाने की जरुरत नहीं रह जाएगी? क्या उसके बाद किसानों को कोई भी आर्थिक मदद देना बंद कर किसानों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाएगा? हम डब्ल्यूटीओ में इस समस्या का स्थाई समाधान क्यों नहीं खोजते हैं और वैसे भी पीस क्लॉज जिस रूप में पेश किया जा रहा है उससे आप अपने देश के लोगों को सब्सिडी का अधिक लाभ दिला पाएंगे...इसपर कुछ गंभीर सवाल हैं।
मजेदार बात है कि विकासशील और गरीब देशों में दी जाने वाली कृषि सब्सिडी का विरोध सबसे अधिक अमेरिका, यूरोपीय संघ और कनाडा कर रहे हैं, जो खुद अरबों डॉलर की घरेलू और निर्यात सब्सिडी देतें हैं और इन सब्सिडी को इन देशों ने ग्रीन बॉक्स में डाल दिया है, जिस पर सवाल भी उठता। ये विकसित देश सब्सिडी में कितना खर्च करते हैं, उसे इस बात से समझा जा सकता है कि 1996 में इन विकसित देशों में करीब 350 अरब अमेरिकी डॉलर की सब्सिडी दी गई थी, जो 2011 में बढ़कर 406 अरब डॉलर हो गई।
डब्ल्यूटीओ की नीतियों में बदलाव होना भी चाहिए क्योंकि एओए के नियम सन् 1986-88 के दामों के अनुसार तय किए गए हैं और साथ ही एक्सटरनल रिफें्रस प्राइस जो पहले रुपये में तय किया था, अब उसे डॉलर में कर दिया गया है, इसे भी बदलवाने की आवश्यकता है। पर ऐसा होने नहीं जा रहा है। अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो 1986-88 से 2013 तक चावल और गेहूं के दामों में 300 फीसदी से भी अधिक का उछाल आ चुका है और उर्वरकों के दामों में भी करीब 480 फीसदी की वृद्धि हो चुकी है यही हाल बीजों का भी है और डीजल के दामों के बारे में तो हम सब जानतें ही हैं।
पीस क्लॉज पर लगाई जा रही शर्तों पर अमल करना न सिर्फ देश के किसानों की आजीविका पर सवालिया निशान लगा देगा, बल्कि भारत की खाद्य सुरक्षा और प्रभुसत्ता को भी खतरे में डाल देगा। हमने देश की करीब 67 फीसदी आबादी को भूखा न सोने देने के सरकार के संकल्प का समर्थन किया था और इसलिए खाद्य सुरक्षा विधेयक को अपनी सहमति भी दी थी।
लेकिन पीस क्लॉज की अवधी खत्म होने के बाद क्या सरकार खाद्य सुरक्षा के हाथ खीच लेगी और इस बोझ को आने वाली सरकारों के सर रखकर अपना पल्ला झाड़ लेना चाहती है। ये कहां की नीति हुई कि अपना भार दूसरों के कंधों पर रख दो? क्या देश सिर्फ अगले दो या तीन साल ही चलने वाला है फिर क्या किसी की जिम्मेवारी नहीं रहेगी? क्या हम डब्ल्यूटीओ में होने वाली अनीतियों को अपने देश के किसान और गरीबों पर हावी होने देंगे? क्या किसान और गरीबों के हित को अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी सुरक्षित रखना चयनीत सरकार का दायित्व नहीं है?