16-Feb-2013 11:25 AM
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केंद्रीय मंत्रीमंडल ने 14 संशोधनों के साथ जिस दिन लोकपाल विधेयक पर मोहर लगाई उसके ठीक एक दिन पहले पटना के गांधी मैदान में आयोजित जनतांत्रिक रैली में अन्ना हजारे ने जनतांत्रिक मोर्चा नामक संगठन बनाने की घोषणा की। लोकसभा ने तो 27 दिसंबर 2011 को ही लोकपाल विधेयक जनता के दबाव में पारित कर दिया था, लेकिन राज्यसभा में यह लटक गया। उम्मीद है कि बजट सत्र में राज्यसभा में भी इस सरकारी विधेयक को पेश किया जाएगा। इस विधेयक में बहुत सी ऐसी बातें हैं जिनके चलते इसकी प्रभावशीलता को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। सरकार ने जिस प्रवर समिति को इस विधेयक पर विचार का दायित्व सौंपा था उसकी इस सिफारिश को नहीं माना गया है कि किसी आरोपी सरकारी कर्मचारी को प्रारंभिक जांच शुरू होने से पहले अपना पक्ष रखने का मौका नहीं दिया जाएगा। इस सिफारिश को भी कैबिनेट ने नहीं माना कि लोकपाल द्वारा केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के किसी अधिकारी को किसी मामले की जांच का जिम्मा सौंपे जाने की स्थिति में उस अधिकारी का तबादला लोकपाल की अनुमति के बगैर नहीं किया जा सकता। नारायणसामी ने कहा कि इससे सीबीआई के कामकाज पर असर पड़ेगा। इस संशोधनों के बाद सरकारी सहायता वाले एनजीओ और धार्मिक संगठन अब लोकपाल के दायरे में होंगे। वहीं, राजनीतिक दल लोकपाल के दायरे से बाहर होंगे। पांच लोग मिलकर लोकपाल की नियुक्ति करेंगे। बिल पास होने के एक साल के बाद राज्यों में लोकायुक्त बनेगा।

विधेयक में सीबीआई निदेशक की नियुक्ति तीन सदस्यीय कालेजियम द्वारा करने का प्रावधान होगा। इस कालेजियम में प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और भारत के प्रधान न्यायाधीश होंगे। सरकार द्वारा पारित लोकपाल बिल सार्थक होगा या नहीं यह देखने वाली बात होगी पर फिलहाल सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या सरकार द्वारा लागू किया गया लोकपाल बिल उस रूप में सक्षम होगा जिसे ध्यान रख कर इस पूरे बिल को लागू करने की बात की गई थी? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पत्र लिखकर आंदोलनकारियों को यह भरोसा दिलाया था कि उनकी मांगों के अनुसार ही लोकपाल बिल को पारित किया जाएगा पर जब बिल पारित किया गया तो उसमें कुछ भी वैसा देखने को नहीं मिला जिसकी अपेक्षा थी, जिसके परिणामस्वरूप अब सरकार के ऊपर भरोसा करना मुश्किल सा लग रहा है। लोकपाल बिल के विषय में जो मांगे की गई थीं उनके अनुसार सिटिजन चार्टर, लोवर डेमोक्रेसी और राज्यों में लोकायुक्त भी होगा, जबकि सरकार द्वारा पारित लोकपाल बिल में यह तीनों मुद्दे नहीं है, संसद और देश के प्रधानमंत्री द्वारा किया गया वायदा जिस प्रकार से तोड़ा गया है उसे देखकर यही लगता है कि सरकार ने बिना मन के एक अधिनियम के रूप में लोकपाल बिल को पास कर दिया है जिससे देश की स्थिति में सुधार होने के कोई लक्षण नहीं दिखाई दे रहें हैं।
जनता की मांग क्या थी: जनता के अनुसार उसे देश से भ्रष्टाचार मिटाने के लिए एक ऐसा बिल चाहिए था जिससे भ्रष्टाचार के मामलों से सीधे तौर पर निपटा जा सके। लेकिन सरकार का यह फैसला देश की जनता के हितों के लिए नहीं बल्कि राजनैतिक हित को साधने के लिए किया गया है। भारत की जनता यह मान चुकी है कि भारत के सभी राजनैतिक दल भ्रष्ट हो चुके हैं पर इसके बावजूद भी इस भ्रष्टता को रोकने के लिए इस लोकपाल बिल में कोई नियम नहीं हैं। अन्ना हजारे की यह भी मांग थी कि राजनैतिक पार्टियों को भी इसके दायरे में रखा जाए पर इस बिल में यह देखने को नहीं मिला है, राजनैतिक पार्टियों के निरीक्षण के लिए अब भी कोई जांच आयोग नहीं गठित किया गया है। इस मामले को लोकसभा के पास करवा दिया गया था पर राज्य सभा में जब इस पर विचार किया गया तो उसे लटका दिया गया, अब यह बिल पुन: राज्यसभा में जाएगा और उसके बाद इसे फिर से लोकसभा में पारित किया जाएगा, जहां उसे कोई असुविधा नहीं होगी पारित होने में। यह बात देखी गई है कि जिस लोकपाल की आशा संसद और लोकपाल चयन समिति द्वारा की जा रही थी उसके अनुसार यह बिल खुद को साबित नहीं कर पाया है।
लोकपाल कानून पर मचे ताजा विवाद जनलोकपाल और सरकारी बिल में अंतर समझना जरूरी है। सरकारी लोकपाल के पास भ्रष्टाचार के मामलों पर खुद या आम लोगों की शिकायत पर सीधे कार्रवाई शुरू करने का अधिकार नहीं होगा। प्रस्तावित जनलोकपाल बिल के तहत लोकपाल खुद किसी भी मामले की जांच शुरू करने का अधिकार रखता है। सरकारी विधेयक में लोकपाल केवल परामर्शदात्री संस्था बन कर रह जाएगी। जनलोकपाल सशक्त संस्था होगी। सरकारी विधेयक में लोकपाल के पास पुलिस शक्ति नहीं होगी। जनलोकपाल न केवल प्राथमिकी दर्ज करा पाएगा बल्कि उसके पास पुलिस फोर्स भी होगी। सरकारी विधेयक में लोकपाल का अधिकार क्षेत्र सांसद, मंत्री और प्रधानमंत्री तक सीमित रहेगा। जनलोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री समेत नेता, अधिकारी, न्यायाधीश सभी आएंगे। लोकपाल में तीन सदस्य होंगे जो सभी सेवानिवृत्त न्यायाधीश होंगे। जनलोकपाल में 10 सदस्य होंगे और इसका एक अध्यक्ष होगा। चार की कानूनी पृष्ठभूमि होगी। बाकी का चयन किसी भी क्षेत्र से होगा। सरकार द्वारा प्रस्तावित लोकपाल को नियुक्त करने वाली समिति में उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, दोनों सदनों के नेता, दोनों सदनों के विपक्ष के नेता, कानून और गृहमंत्री होंगे। प्रस्तावित जनलोकपाल बिल में न्यायिक क्षेत्र के लोग, मुख्य चुनाव आयुक्त, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, भारतीय मूल के नोबेल और मैगासेसे पुरस्कार के विजेता चयन करेंगे। सरकारी लोकपाल विधेयक में दोषी को छह से सात महीने की सजा हो सकती है और घोटाले के धन को वापिस लेने का कोई प्रावधान नहीं है। जनलोकपाल बिल में कम से कम पांच साल और अधिकतम उम्र कैद की सजा हो सकती है। साथ ही दोषियों से घोटाले के धन की भरपाई का भी प्रावधान है। सरकार ने सिविल सोसायटी के ड्राफ्ट को शुरूआती दौर में ही खारिज कर दिया था ऐसे में सरकार से यह उम्मीद करना कि वो जनआंकक्षाओं के अनुरूप कोई निर्णय लेगी बेमानी है। यही कारण है कि अन्ना हजारे और उनके संगठन ने सरकारी लोकपाल का विरोध किया है। उसमें उनके साथ पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह, जलयोद्धा राजेंद्र सिंह, पीवी राजगोपाल और मुस्लिम नेता सैय्यद गिलानी भी शामिल हैं। हालांकि किरण बेदी की राय थोड़ी अलग है पर यह तो तय है कि सरकारी लोकपाल से अन्ना की टीम सहमत नहीं है। आने वाले वक्त में अन्ना ने अपने आंदोलन को तीव्र करने का कहा है। लेकिन अन्ना के आंदोलन पर अब जनसमर्थन पहले की अपेक्षा बहुत कम है। शायद इसका कारण अन्ना की टीम का बिखराव और आपसी सूझबूझ का अभाव है।
दिल्ली से ऋतेंद्र माथुर