अफजल को अंजाम तक पहुंचाया प्रणब ने?
16-Feb-2013 09:32 AM 1234961

भारत के इतिहास में पहली बार 80 दिनों के भीतर दो दुर्भांत आतंकवादियों को फांसी के फंदे पर चढ़ाया गया। अफजल गुरु और उससे पहले अजमल कसाब की फांसी भारत के लोगों के लिए नींद से जागने पर सबसे बड़ा सरप्राइज बनकर आई। ये दोनों आतंकवादी भारत में सर्वाधिक घृणा और गुस्से के पात्र थे। कसाब ने जहां अपनी बंदूक से 66 निर्दोष लोगों की जान ली वहीं अफजल गुरु ने भारत की संवैधानिक संस्था लोकतंत्र के मंदिर संसद पर हमले के षड्यंत्र को अंजाम दिया। 2001 में संसद पर हुए हमले में अफजल प्रत्यक्ष रूप से शामिल नहीं था पर पर्दे के पीछे रहकर उसने इस कार्यवाही को अंजाम दिया। वह पाक अधिकृत कश्मीर प्रशिक्षण लेने गया। उसने उन पांच आतंकवादियों को हर संभव सहयोग मुहैया कराया और उन पांच आतंकवादियों ने संसद पर हमला बोलने का दुस्साहस किया। 2006 में ही समस्त कानूनी कार्यवाहियों के उपरांत यह तय हो गया था कि अफजल को फांसी दी जाएगी। लेकिन 2006 से लेकर 2013 तक अफजल की फांसी की फाइल गृहमंत्रालय की देहलीज पर पड़ी रही। कभी कहा गया कि वह राष्ट्रपति के पास दया याचिका के लिए लंबित है तो कभी कोई और बहाना दिया गया। अफवाह यहां तक फैलाई गई कि अफजल की फांसी से कश्मीर में अलगाव की आग फिर सुलग सकती है और देश के अन्य हिस्सों में भी यह आग कहर बरपा सकती है। ये सारी आशंकाएं अफजल की फांसी के बाद निर्मूल साबित हुई हैं। कश्मीर में अवश्य कुछ विरोध प्रदर्शन देखे जा रहे हैं। लेकिन बाकी देश में प्राय:-प्राय: शांति है सिर्फ उथल-पुथल है तो उन लोगों के सीने में जो अफजल की फांसी को उम्रकैद में तब्दील किए जाने की सिफारिश कर रहे हैं। इनमें जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला सहित, बुकर पुरस्कार विजेता अरुंधती राय भी शामिल है। लेकिन सबसे बड़ा मुद्दा देश की जनभावनाओं का है। जिस तरह सत्ता के गलियारों में लगभग छह वर्ष तक अफजल की मौत का फरमान जान बूझकर या अंजाने में ही दबाया गया वह भारतीय जनमानस के लिए एक बड़ा धक्का था। अफजल को सजा मिलने में देरी राजनीतिक रूप से भी कांग्रेस के लिए दुखदायी साबित हो रही थी। भारतीय जनता पार्टी के नजर में यह एक प्रमुख चुनावी मुद्दा था तो कांग्रेस को भी अपने नए युवराज राहुल गांधी के राष्ट्रीय परिदृष्य में आगमन को सुगम बनाना था। इसीलिए कांग्रेस ने इस सजा को अंजाम तक पहुंचाने की एक महफूज टाइमिंग प्लान की। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो हालात हैं उनके चलते आतंकवाद के प्रति सारी दुनिया का जनमानस एकजुट है। आतंकवाद को मानवाधिकार से जोडऩे की कोशिशें भी नाकाम सिद्ध हो चुकी हैं। सारी दुनिया यह सवाल कर रही है कि जो लोग निर्दोषों का खून बहाते हैं उनके मानवाधिकार के प्रति चिंता कहा तक जायज है। किंतु इसके बाद भी अफजल की फांसी में भारत सरकार ने सारे मानवीय पहलुओं को ध्यान में रखा। उसके परिवार को पहले सूचित किया गया। जिस दिन उसे सवेरे 8 बजे फांसी होनी थी उसी दिन सुबह छह बजे दिल्ली से गीलानी ने फोन करके अफजल की बीवी से तस्दीक की थी इससे जाहिर होता है कि अफजल के मृत्युदंड के समय के विषय में उसके परिजन अवगत थे। उमर अब्दुल्ला सहित कश्मीर की पुलिस को भी बता दिया गया था। हालांकि बाद में मीडिया में यह भ्रम फैलाने का प्रयास किया गया कि अफजल की फांसी की पूर्व सूचना उसके परिजनों को नहीं दी थी। सरकार ने मौखिक सूचना के अतिरिक्त स्पीड पोस्ट और रजिस्ट्री से भी वह पत्र भेजा था। जिसमें अफजल की फांसी का फरमान था। हालांकि फांसी के बाद उसके शव को 1984 में फांसी की सजा पाए मकबूल भट्ट की कब्र के पास ही तिहाड़ जेल में दफनाया गया। इसके पीछे सरकार का मकसद यह था कि अफजल की मृत्यु का महिमामंडन न हो और उसके शव को लेकर राजनीति न की जाए। बाद में गृहमंत्री शिंदे ने स्पष्ट किया कि सरकार अफजल की कब्र पर उसके परिजनों को फातिहा पढऩे की इजाजत दे सकती है।
भारत सरकार ने अफजल की फांसी को पूरी कानूनी प्रक्रिया के तहत भले ही अंजाम दिया हो लेकिन देश बार-बार यह प्रश्न पूछ रहा है कि इस फांसी की सजा को पूरा करने में इतनी देरी क्यों हुई, वे कौन से कारण थे जिनके चलते अफजल को फांसी के फंदे पर लटकने में पूरे छह वर्ष लगे। प्रतिभा पाटिल के राष्ट्रपति रहते तो लगभग पांच वर्ष ही अफजल की फाइल धूल खाती रही और यही हाल कसाब के मामले में भी हुआ। जबकि इससे पूर्व एपीजे अब्दुल कलाम ने बलात्कार के आरोपी धनंजय की दया याचिका ठुकरा दी थी, लेकिन प्रतिभा पाटिल ने लगभग 35 मामलों में रियायत दी। वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी इस मामले में ज्यादा सख्त और दृढ़ दिखाई दे रहे हैं कसाब और उसके बाद अफजल गुरु की फांसी पर उनकी तत्परता कहीं न कहीं इस बात का संकेत है कि प्रधानमंत्री का पद भले ही न मिला हो लेकिन प्रणब मुखर्जी अपनी कुशलता और शक्ति का परिचय सर्वोच्च पद पर रहते हुए दे रहे हैं। 26/11/2008 के मुंबई  हमलों के बाद जब तत्कालीन विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी से कड़े स्वर में बात की थी तब आए दिन परमाणु युद्ध की धौंस देने वाले पाकिस्तानी संस्थान के पैर इतने फूल गए थे कि जरदारी ने 26/11 की जांच में मदद के लिए पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के तत्कालीन प्रमुख शुजा पाशा को नई दिल्ली भेजने की भी पेशकश कर दी थी। एलओसी की घुसपैठ के मुद्दे पर भी जब भारत ने कड़े तेवर दिखाए तो पाकिस्तान सहम गया। फिलहाल एलओसी पर घुसपैठ कराने की उसकी कार्रवाइयां ठंडी हैं। भले ही कश्मीर की अलगाववादी, हुर्रियत कांफ्रेंस कश्मीर में अफजल की फांसी के विरोध में बंदÓ और प्रदर्शन आयोजित कर ले जब तक गर्मियां नहीं शुरू होतीं और एलओसी पर बर्फ नहीं पिघलती तब तक पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी कश्मीर में किसी बड़ी कार्रवाई को अंजाम देने की स्थिति में नहीं हैं। अफजल गुरु उस जैश-ए-मोहम्मद से जुड़ा हुआ है जिसके मुखिया मौलाना अजहर मसूद को छुड़ाने के लिए सन् 2000 में इंडियन एयरलाइंस के विमान का अपहरण कर उसे कंधार ले जाया गया था। आईसी-184 के विमानयात्रियों जिनमें अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का एक अत्यंत प्रभावशाली अधिकारी मौजूद था और जिसकी रिहाई के लिए अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को अंतर्राष्ट्रीय दबाव में आतंकियों से समझौता करना पड़ा था।  संसद पर हमले के बाद वाजपेयी सरकार ने कई महीनों तक पाकिस्तानी सीमा पर अपने सैनिकों की घेराबंदी कर रखी थी। इस घेराबंदी का लाभ किसे मिला? इस घेराबंदी के चलते ही पाकिस्तान अफगानिस्तान में अमेरिकी नेतृत्व वाली नाटोÓ की फौजों को साथ देने के लिए मजबूर हुआ। 13 दिसंबर 2001 की घटना के कुछ दिन बाद अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू.बुश ने पहले  प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को दावत खिलाई और उनसे तालिबान विरोधी युद्ध में साथ लेने का प्रस्ताव प्राप्त कर उसी धमक से कुछ दिन बाद मुशर्रफ को व्हाइट हाउसÓ बुलाकर आतंकविरोधी युद्ध का साथी बनने के लिए मजबूर कर लिया था। जैसे ही मुशर्रफ वॉशिंगटन से लौटे भारत-पाकिस्तान सीमा का तनाव घटने लगा और कुछ महीनों बाद सेनाएं बैरकों में लौट गर्इं। यह एक मनोबल तोडऩे वाला कदम था। इसके बाद भारत ने कई आतंकी हमले झेले और भारत की छवि एक कमजोर इच्छा शक्ति वाले राष्ट्र की बनने लगी जो दुनिया की तीसरी सर्वाधिक शक्तिशाली सामरिक ताकत होने के बावजूद छोटे से देश के षड्यंत्र से जूझने के लिए विवश था। कसाब और अफजल की फांसी ने भारत की इस छवि को तोडऩे में कुछ हद तक साथ अवश्य दिया है लेकिन मंजिलें बहुत लंबी हैं। आतंकवादियों के निशाने पर भारत का नाम सबसे ऊपर है। पाकिस्तान के हालात जिस तरह बद्तर होते जा रहे हैं। उसके चलते वहां शांति और सद्भावना की उम्मीद लगाना नासमझी है। भारत को अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी और स्वयं ही दृढ़ता दिखाते हुए आतंक से लडऩा होगा।
श्यामसिंह सिकरवार

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