महिला संतों का अखाड़ा विवाद में
15-Feb-2014 10:40 AM 1234854

अलग-अलग संप्रदायों व अखाड़ों से जुड़ी महिला संतों ने जब पिछले दिनों अपना अलग अखाड़ा बनाने की घोषणा की तो नया विवाद शुरू हो गया। कुछ लोग इसे परिवर्तन की शुरुआत मानते हैं और महिलाओं के बराबरी के हक से जोड़कर देख रहे हैं। वहीं कुछ ऐसे हैं जो मानते हैं कि ऐसा करने से वर्षों पुरानी परंपरा का उल्लंघन होगा। हिंदू संप्रदाय में कुल 13 अखाड़े हैं। जिनमें शिव सन्यासी संप्रदाय के 7 अखाड़े, बैरागी वैष्णव संप्रदाय के 3 अखाड़े तथा उदासीन संप्रदाय के 3 अखाड़े शामिल हैं। ज्यादातर अखाड़े उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड में हैं। गुजरात के दो अखाड़े इसका अपवाद है। इसका अर्थ सीधा सा यह है कि उत्तर भारत में ही ज्यादातर अखाड़ों का प्रचलन रहा। अब दशनामी सन्यासी अखाड़ा की अध्यक्ष महंत दिव्यागिरी ने 14वें अखाड़े की घोषणा की है जो महिला संतों को समर्पित है। सवाल यह है कि क्या एक नए अखाड़े की घोषणा से यह स्थापित हो सकेगा कि हिंदू धर्म महिलाओं को समान अधिकार देता है। क्योंकि अभी तक किसी भी महिला के शंकराचार्य बनने का प्रमाण नहीं है। इस संबंध में बात करने पर कहा जाता है कि शंकराचार्य की पदवी पुरुषों के लिए ही है।
वैसे महामंडलेश्वर की पदवी से विभूषित होने वाली महिलाओं की संख्या दिनों-दिन बढ़ रही है। कई संतों को यह पदवी दी गई है। इसके अलावा भी कई अन्य महत्वपूर्ण पदवियों पर महिला संत विराजमान हो चुकी हैं। नए अखाड़े के संविधान के विषय में अभी कोई स्पष्ट जानकारी सामने नहीं आ पाई है। निरंजनी अखाड़ा के सचिव महंत नरेंद्र गिरी का कहना है कि महिला अखाड़े की बजाय संस्था बनाए तो बेहतर है क्योंकि परंपरागत 13 अखाड़ों के अतिरिक्त 14वें अखाड़े को स्वीकार नहीं किया जा सकता। ऐसा माना जाता है कि पहले अखाड़ों को बेड़ा यानी साधुओं का जत्था कहा जाता था। बाद में मुगलकाल से इसे अखाड़ा कहा जाने लगा। क्योंकि उस समय काफी धर्मयुद्ध हुए जिनमें शस्त्र विद्या में पारंगत साधुओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। अब माहौल बदल चुका है। इसीलिए महिलाओं के द्वारा नए अखाड़े का गठन कई सवाल पैदा करता है। बहरहाल इसे एक परिवर्तन की शुरुआत तो कहा ही जा रहा है। देखना यह है कि महिलाओं के इस अखाड़े को लेकर संत समाज में क्या प्रतिक्रिया होती है। क्योंकि शुरुआती दौर में आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार प्रमुख अखाड़े थे, इनमें महानिर्वाणी, निरंजनी, जूना, अटल, आवाहन, अगिन और आनंद अखाड़े शामिल हैं। ये सभी शैव मत के माने जाते हैं। बाद में भक्तिकाल में इन शैव अखाड़ों की तरह रामभक्त वैष्णव साधुओं के अखाड़े बने। इनमें दिगंबर अखाड़ा, निर्वाणी अखाड़ा और निर्मोही अखाड़ा प्रमुख हैं। साधुओं की अखाड़ा परंपरा के बाद गुरु नानकदेव के पुत्र श्री श्रीचंद्र द्वारा स्थापित उदासीन संप्रदाय भी चला, जिसके आज दो अखाड़े कार्यरत हैं। एक श्री पंचायती अखाड़ा बड़ा उदासीन और दूसरा श्री पंचायती अखाड़ा नया उदासीन। इसी तरह पिछली शताब्दी में सिख साधुओं के एक नए संप्रदाय निर्मल संप्रदाय और उसके अधीन श्री पंचायती निर्मल अखाड़ा का भी उदय हुआ। साधुओं की संख्या के आधार पर देखा जाए तो जूना अखाड़ा सबसे बड़ा है, फिर निरंजनी एवं महानिर्वाणी। किसी अखाड़े के मुखिया को आचार्य महामंडलेश्वर कहते हैं, उनके अंतर्गत कई महामंडलेश्वर और कई मंडलेश्वर एवं कई श्री महंत होते हैं।
दरअसल इन अखाड़ों की स्थापना का मूल उद्देश्य धर्म की रक्षा था। इनकी स्थापना भी धर्म सैनिक बनाने के लिए हुई थी जो सामाजिक बुराइयों से अपने धर्म को बचा सके। अखाड़ों का यह स्वरूप हर धर्म-सम्प्रदाय में रहा है। विभिन्न धर्मों में अखाड़ों के जरिए धर्मरक्षक सेना का एक स्वरूप बनता चला गया। हिन्दू धर्म को इस्लाम की आंधी से बचाने के लिए सिख पंथ एक सामरिक संगठन के तौर पर ही सामने आया था। इसके महान गुरुओं ने अध्यात्म की रोशनी में लोगों को धर्मरक्षा के लिए शस्त्र उठाने की प्रेरणा दी। शैवों और वैष्णवों में शुरू से संघर्ष रहा है। खासकर शाही स्नान के वक्त अखाड़ों की आपसी तनातनी और साधु-सम्प्रदायों के टकराव खूनी संघर्ष में बदलते रहे हैं। हरिद्वार कुंभ में तो ऐसा अनेक बार हुआ है। साधु संगतों के झगड़ों और खूनी टकराव की बढ़ती घटनाओं से बचने के लिए अखाड़ा परिषद की स्थापना की गई, जो सरकार से मान्यता प्राप्त है। इसमें कुल मिलाकर उक्त तेरह अखाड़ों को शामिल किया गया है। प्रत्येक कुम्भ में शाही स्नान के दौरान इनका क्रम तय है। इसी कारण इन सभी अखाड़ों का संचालन लोकतांत्रिक तरीक़े से कुंभ महापर्व के अवसरों पर चुनावों के माध्यम से चुने गए पंच और सचिवगण करते हैं। परंपरा के अनुसार स्नान के दिन नागा साधू और अखाड़े अगुवाई करते हैं और स्नान की रस्म की शुरुआत करते हैं। बाद में आम लोग कुम्भ स्नान करते हैं।

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