15-Feb-2014 10:27 AM
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दिल्ली की सरकार अरविंद केजरीवाल की अवैध जिद की शिकार बन गई। जनलोकपाल विधेयक को दिल्ली में पारित करवाने के लिए केजरीवाल भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस का साथ चाह रहे थे जो नहीं मिला। इसीलिए उन्होंने 14

फरवरी की रात अपना और अपने मंत्रिमंडल का इस्तीफा दिल्ली के उपराज्यपाल को सौंप दिया। छह दिन पहले जब एक टीवी चैनल को अरविंद केजरीवाल ने बताया था कि दिल्ली में जनलोकपाल पारित न होने की स्थिति में वे इस्तीफा दे देंगे, उसी दिन उनके इस्तीफे के ड्रामे की स्क्रिप्ट लिखी जा चुकी थी। बाकी तो केवल औपचारिकता मात्र थी। केजरीवाल जिद पर अड़े हुए थे कि वे दिल्ली में जनलोकपाल लाएंगे, लेकिन कानूनी रूप से यह संभव नहीं था। संविधान के विशेषज्ञों ने भी हाथ खड़े कर दिए थे। क्योंकि दिल्ली पूर्ण रूप से राज्य नहीं बना है। कुछ विशेष प्रावधान हैं जो दिल्ली और केंद्र के बीच संवैधानिक स्थिति को व्यापक रूप से परिभाषित करते हैं। केजरीवाल संभवत: इन कानूनों से परिचित थे, लेकिन जनता में यह संदेश देना चाह रहे थे कि वे तो जनलोकपाल के पक्ष में हैं किंतु भाजपा और कांग्रेस मिलीभगत करके जनलोकपाल का रास्ता रोक रही हैं। एक तरह से केजरीवाल अपने इस मकसद में कामयाब भी हो गए हैं। उन्होंने विधानसभा में जनलोकपाल विधेयक रखने की कोशिश की, किंतु कांग्रेस और भाजपा के विरोध के बाद यह विधेयक प्रस्तुत नहीं हो सका। भाजपा विपक्ष में होने के नाते विधेयक का विरोध कर रही थी, किंतु सरकार को बाहर से समर्थन दे रही कांग्रेस और बाकी निर्दलीय विधायकों सहित आप से अलग हुए बिन्नी ने जब इस विधेयक का विरोध किया तो विधेयक का धराशायी होना स्वाभाविक था, लेकिन बात इतनी ही नहीं थी। केजरीवाल चाह रहे थे कि उनके इस नाटक को दुनिया देखे और उनकी यह चाहत टीवी चैनलों ने पूरी कर दी।
दिल्ली विधानसभा में जो कुछ हुआ उसका सीधा प्रसारण अनेक टीवी चैनलों पर देखने को मिला। नाटक के हर एक पात्र ने बेहतर भूमिका निभाई और नाटक का पटाक्षेप उस वक्त रचा गया जब सारा देश टीवी के सामने बैठता है। जिसे प्राइम टाइम कहते हैं। प्राइम टाइम में केजरीवाल ने अपने मंत्रिमंडल का इस्तीफा घोषित कर दिया और वे भारतीय राजनीति के चुनिंदा शहीदों में शरीक हो गए। जाहिर सी बात है इस शहादत का लाभ लोकसभा चुनाव में लेने की कोशिश की जाएगी। दिल्ली में सरकार की असफलता और वादे पूरे न होने की विवशता ने केजरीवाल को पिंजरे के पंछी की तरह छटपटाने को विवश कर दिया था। वे अकुला रहे थे किस तरह एक बार फिर फुटपाथ पर आकर अपने आंदोलन को गति दें। अन्ना हजारे ने भी कह दिया था कि केजरीवाल जनलोकपाल के लिए शहीद होते हैं तो वे उनका समर्थन करेंगे। लेकिन बात इतनी ही नहीं थी। केजरीवाल व्यापक राष्ट्रीय फलक पर अपनी भूमिका तलाश रहे थे। सोमनाथ भारती के समय एक अवसर आया था जब वे सरकार का बलिदान दे सकते थे, किंतु उस समय बलिदान देने से महिला विरोधी होने का धब्बा लग सकता था। लिहाजा केजरीवाल ने जन लोकपाल को अपने बलिदान का माध्यम बनाया। भारत की जनता कानूनी रूप से कितनी शिक्षित है यह केजरीवाल भलीभांति जानते हैं। इसीलिए जैसा कि किरण बेदी का कहना भी है कि केंद्र में पारित लोकपाल विधेयक की असलीयत जनता के सामने रखे बगैर केजरीवाल ने खुद को कुर्बान कर दिया। महज चुनावी फायदे के लिए। केजरीवाल चाहते तो केंद्र के लोकपाल को संशोधनों के साथ दिल्ली विधानसभा में ला सकते थे जो कि ज्यादा व्यावहारिक और तथ्यपूर्ण भी होता। किंतु उनका मकसद महज हंगामा खड़ा करना था। सूरत बदलना नहीं। इसीलिए दिल्ली अब फिर उसी अभिशप्त दौर में लौटने के लिए विवश है। जहां से उसने शुरुआत की थी। एक लोकप्रिय सरकार धराशायी हो चुकी है और अरविंद केजरीवाल राष्ट्रीय राजनीति में अपनी बेहतरीन लांचिंग से खुश भी हैं और आत्मविश्वास से लबरेज भी हैं।
दिल्ली का है अलग कानून
दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त नहीं है। इसलिए संविधान का सातवां शेड्यूल- जिसमें राज्य और केंद्र की शक्तियों का विभाजन किया गया है और समवर्ती (जिसमें दोनों कानून बना सकते हैं)- वह दिल्ली पर उस तरह लागू नहीं होता, जिस तरह अन्य राज्यों पर होता है। इसका मतलब यह है कि राज्य की सूची में जो विषय हैं केंद्र सरकार उन पर भी कानून बना सकती है। मान लेते हैं कि दिल्ली सरकार ने कोई कानून बनाया तो भी केंद्र का कानून ही प्रभावी होगा। दिल्ली की विधानसभा और मंत्रिमंडल की शक्तियां सीमित हैं और संविधान द्वारा इनकी व्याख्या की गई है।
लोकपाल विधेयक को संसद पास कर चुकी है और वह कानून बन चुका है तो ऐसा कोई भी कानून जो उसका विरोधाभासी हो, वह संवैधानिक नहीं हो सकता। इसमें ऐसे बहुत से प्रावधान हैं, जैसे कि पुलिस, भूमि, कानून-व्यवस्था के बारे में जो सीधे लोकपाल कानून से टकराती हैं। केजरीवाल को चुनाव लडऩे से पहले और बहुत से वायदे करने से पहले यह देखना चाहिए था कि संविधान में इसके लिए प्रावधान क्या है? अगर वह सरकार बनाते हैं तो सरकार के पास क्या शक्तियां हैं? वह कुछ कर भी सकते हैं या नहीं? दिल्ली सरकार द्वारा किसी भी विधेयक को पेश करने संबंधी नियम 2002 में राजग शासनकाल के दौरान बनाया गया था और उसे संसद में भी रखा गया था। अगर किसी भी विधेयक का वित्तीय प्रभाव पड़ता है तो विधानसभा में पेश करने से पहले इसे केंद्र की मंजूरी लेनी होती है। केजरीवाल ने जब इस्तीफा देने के बाद भाषण दिया तो उसमें मुख्य निशाना भाजपा और कांग्रेस के ऊपर साधा उन्होंने आरोप लगाए कि कांग्रेस को रिलायंस चला रही है। रिलायंस अब भाजपा को भी चलाने लगी है। केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी को भी आड़े हाथों लिया। रिलायंस पर तो केजरीवाल लगभग एक सप्ताह से हमला बोल रहे थे। संभवत: वे यह सिद्ध करना चाह रहे थे कि भाजपा और कांग्रेस से अलग आम आदमी पार्टी भारत की एकमात्र ऐसी पार्टी है जो कार्पोरेट जगत की कठपुतली नहीं है। केजरीवाल का मकसद था जनता को यह समझाना कि कार्पोरेट जगत से चंदा लेकर जो भी पार्टी चलेगी वह कार्पोरेट जगत के लिहाज से नीतियां बनाएगी। कुछ हद तक यह सही भी है, लेकिन केजरीवाल ने जो रास्ता चुना उसमें धोखा ज्यादा है। क्योंकि उन्होंने जनता को आधा सच बताया। यह नहीं बताया कि दिल्ली की संवैधानिक स्थिति क्या है और उस संवैधानिक स्थिति के चलते उनकी सरकार की क्या मजबूरियां हैं। बेहतर होता यदि केजरीवाल दिल्ली की संवैधानिक स्थिति मजबूत करने के लिए आंदोलन करते। पर उन्हें तीन माह बाद होने वाले लोकसभा चुनाव दिख रहे हैं। जिनमें कोई भी दल सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है। केजरीवाल ने जनता को कहा है कि कानून दिल्ली में राज कराने वाले नहीं बल्कि केंद्र में राज करने वाले बनाते हैं। इसीलिए वे जनता से समर्थन चाह रहे हैं कि जनता उन्हें दिल्ली में केंद्र सरकार के ्रप्रधानमंत्री के रूप में स्थापित करें। केजरीवाल को यह भी मालूम है कि उनकी पार्टी का काडर सारे देश में मजबूत नहीं है। इसलिए आम आदमी पार्टी को मीडिया के भरोसे ही अपनी नैय्या पार लगानी होगी। यही कारण है कि उन्होंने मीडिया के समक्ष मीडिया को मसाला देते हुए एक सफल प्रहसन प्रस्तुत किया है जो यदि कामयाब हो गया तो भारतीय लोकतंत्र की अभूतपूर्व घटना ही होगी। चिंता की बात यह है कि केजरीवाल के इस नाटक को भाजपा और कांग्रेस दोनों ने गंभीरता से नहीं लिया है और न ही दोनों पार्टियों ने कोई रणनीति तैयार की है। केजरीवाल जिस सहजता से जनता के बीच जा रहे हैं कांग्रेस और भाजपा के नेता उतने ही असहज है और एक तरह से जनता से उनकी दूरी आम आदमी के लिए स्पेस बना रही है।
अरविंद केजरीवाल ने एक तरह से आगामी लोकसभा चुनाव के लिए स्वयं को खाली करने का मन बना लिया था। दिल्ली में बंध से गए थे। दिल्ली की राजनीति ने उन्हें जकड़ लिया था। वे दिल्ली से निकलने के लिए छटपटा रहे थे।
दूसरी तरफ जनता से किए गए वादों को भी निभाना था।
केजरीवाल जनता को यह बताने की कोशिश कर रहे थे कि देश में बढ़ती कीमतों की असली सच्चाई क्या है, लेकिन सवाल वही है कि क्या वे जनता को सुशासन दे सकेंगे। दिल्ली में फिलहाल कोई बदलाव नहीं दिख रहा है। बल्कि इसके विपरीत दिल्ली के मतदाताओं को सरकारी लाभ की आशा कुछ ज्यादा ही बंधी है। मुफ्त बिजली देने के बाद केजरीवाल ने अब उन उपभोक्ताओं के बिजली बिल आधे माफ कर दिए थे जिन्होंने कभी विरोध स्वरूप बिजली का बिल अदा नहीं किया था। विशेषज्ञ मानते हैं कि सरकारी खजाने पर भार डालकर जनता को खुश करने की यह चाल कामयाब नहीं होने वाली। केजरीवाल को कोई अन्य रास्ता तलाशना होगा। क्योंकि खाली खजाने से जनता की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना असंभव है। संभव है देश की राजनीति में आकर वे अलग रास्ता तलाशें।
केजरीवाल का रिलायंस के खिलाफ पैंतरा
केजरीवाल ने वीरप्पा मोइली, मुकेश अंबानी सहित जिन दिग्गजों के खिलाफ एफआईआर कराई है उनमें से मुकेश अंबानी सभी राजनीतिक दलों के खासमखास हैं। सभी से उनके मधुर रिश्ते हैं। यही कारण है कि किसी ने भी केजरीवाल के कदम का समर्थन नहीं किया। आम आदमी पार्टी ने नरेंद्र मोदी से भी पूछा था कि गैस की बेतहाशा कीमतें बढ़ाने पर वे चुप क्यों बैठे हैं तो नरेंद्र मोदी ने कोई जवाब नहीं दिया। चुनाव सामने हैं ऐसे में व्यापारी और व्यावसायियों से कोई भी बैर मोल नहीं लेना चाहता।
एडमिरल टहलीयानी, कामिनी जायसवाल, टीएसआर सुब्रह्मण्यम के नाम शिकायतकर्ता के तौर पर सामने आये हैं। मुख्यमंत्री के मुताबिक इस शिकायत के आधार पर एंटी करप्शन ब्यूरो को मुकेश अंबानी, केंद्रीय मंत्री मुरली देवड़ा, वीरप्पा मोइली, रिलायंस सहित वीके सिब्बल के खिलाफ आपराधिक केस दर्ज करने के आदेश दिए गए हैं। केजरीवाल इस मामले को प्रधानमंत्री के भी सामने उठाने वाले हैं।
केजरीवाल ने कहा कि रिलायंस ने कुछ मीडिया संगठन और भाजपा को पैसे दिये हैं। उन्होंने कहा कि गैस कंपनियां दाम बढ़ाने की फिराक में हैं।
रिलायंस ने सरकार के साथ हुए गैस समझौते का उल्लंघन किया
भारत के नियंत्रक-महालेखापरीक्षक (सीएजी) ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि मुकेश अम्बानी की कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज ने कृष्णा-गोदावरी बेसिन में उत्पादित गैस के बंटवारे के लिए सरकार के साथ हुए समझौते का उल्लंघन करते हुए सरकार को उसकी हिस्सेदारी नहीं दी।
संसद में पेश सीएजी की रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्पादन बंटवारा समझौते के मुताबिक रिलायंस इंडस्ट्रीज को आवंटित क्षेत्र में से 25 प्रतिशत सरकार को देना था। लेकिन इसने ऐसा नहीं किया और पूरे क्षेत्र को अपने पास रखा, जैसे कि इसने ही उसे ढूंढ़ा हो।
रिपोर्ट के मुताबिक सरकार और निगरानी संस्था भी अपनी ही व्याख्याओं से मुकर गए, जिसमें कहा गया था कि 25 प्रतिशत हिस्सा सरकार को देना आवश्यक होगा।
रिपोर्ट में कहा गया है, फरवरी 2009 में केंद्र सरकार ने भी 7,645 वर्ग किलोमीटर के पूरे समझौता क्षेत्र को खोजी क्षेत्र के रूप में मान्यता दे दी, जिसके बाद कम्पनी ने सरकार के लिए 25 प्रतिशत क्षेत्र छोडऩे के समझौते की उपेक्षा की।