अब कुलियों के बीच राहुल
15-Feb-2014 10:19 AM 1234758

कांग्रेस का लोकसभा चुनावी घोषणापत्र जब आपके सामने होगा तो यह किन्हीं विशेषज्ञों द्वारा नहीं बल्कि आम आदमी के द्वारा तैयार किया हुआ होगा। राहुल गांधी ने बड़ी संख्या में लोगों को जोडऩे के लिए चुनावी घोषणापत्र पर उनकी राय जानी है। उन्होंने हर वर्ग से मिलने की कोशिश की है। चाहे वह कुली हों या महिलाएं हो या फिर ट्रांसजेंडर हों। यह एक अच्छी पहल है, लेकिन सवाल वही है कि राहुल जो भी कदम उठाते हैं उसे पूरे मन से लागू नहीं किया जाता। संभवत: कांग्रेस में कुछ ऐसे लोग हैं जो यह विचार रखते हैं कि लीक से हटकर राजनीति करने में जोखिम ज्यादा है। इसी कारण मध्यप्रदेश सहित तमाम प्रदेशों में विधानसभा चुनाव के समय राहुल के फार्मूले को दरकिनार किया गया और अब घोषणापत्र पर जो राय मांगी जा रही है उसे मूर्तरूप देने में कितनी रुचि दिखाई जाएगी कहना असंभव है।
वैसे घोषणा पत्र पर अमल शायद ही किसी पार्टी ने किया हो क्योंकि आमतौर पर घोषणा पत्रों में चांद-सितारे तोडऩे जैसे चुनावी वादे किए जाते हैं जो कभी पूरे नहीं हो पाते और घोषणापत्र रद्दी की टोकरी की शोभा बढ़ाते हैं, लेकिन पिछले एक दशक में राजनीति में थोड़ा बदलाव आया है। अब चुनाव में जाने से पहले राजनीतिक दल पत्रकार वार्ता में यह बताने लगे हैं कि घोषणापत्र में किए गए वादों के सिलसिले में उन्होंने कितनी सफलता पाई। यह एक अच्छी शुरुआत कही जा सकती है। संभवत: इसके पीछे जनता को यह जताने की मंशा है कि हम आपको नासमझ नहीं समझ रहे बल्कि परिपक्व समझने के लिए विवश हैं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सफलता के बाद अब शायद घोषणापत्रों की तासीर में भी बदलाव आए और वे ज्यादा व्यावहारिक बनने लगें। राहुल गांधी की पहल को इसी नजरिए से देखा जा रहा है। लेकिन एक तरफ तो राहुल गांधी अपनी युवाओं की टीम जोड़ते हुए चुनावी मैदान में दस्तक देने को आतुर हैं तो दूसरी तरफ पार्टी के वर्षों से जमे नेता हाशिए पर जाने को तैयार नहीं हैं। हाल ही में लोकसभा चुनाव की अगुवाई राहुल को सौंपने का फैसला किया गया था, लेकिन अब कहा जा रहा है कि प्रचार समिति की अगुवाई सोनिया गांधी करेंगी। राहुल इस पैनल के को चेयरमैन होंगे। पार्टी की ओर से 50 सदस्यों वाले जिस बड़े पैनल की घोषणा की गई उसमें भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सहित कई कैबिनेट सहयोगी और पार्टी के वरिष्ठ नेता शामिल हैं। कोई मुख्यमंत्री इसमें शामिल नहीं है। शीला दीक्षित और अशोक गहलोत को जरूर जगह दी गई है, जिन्हें अभूतपूर्व हार का अनुभव है। पैनल में युवा भी पर्याप्त संख्या में नहीं हैं। यह बात अलग है कि राहुल गांधी के प्रभाव में कई राज्यों में कांग्रेस प्रदेशाध्यक्षों की घोषणा के समय यह ध्यान रखा गया कि कमान युवाओं के हाथों में हो। इससे सिद्ध होता है कि पुरानी पीढ़ी अभी भी कांग्रेस में सर्वेसर्वा है और राहुल गांधी पर जोखिम उठाना उन्हें रास नहीं आ रहा है। वैसे भी राहुल गांधी का नौसिखियापन मुसीबत खड़ी कर देता है। हाल ही में उन्होंने कहा था कि 84 के दंगों में कांग्रेस के कुछ लोग भी शामिल थे, जिसके बाद बहुत हंगामा मचा। जब विज्ञापनों से लेकर सारे अभियानों में राहुल गांधी ही प्रमुख चेहरा हैं तो फिर सोनिया गांधी की अगुवाई में चुनावी मैदान में आने के पीछे क्या रणनीति है। कांग्रेस ने जो पैनल बनाया है उसमें पी. चिदम्बरम, एके एंटनी, सुशील कुमार शिंदे, सलमान खुर्शीद, आनंद शर्मा, गुलाम नबी आजाद, अहमद पटेल, मोतीलाल वोरा, जैसे वयोवृद्ध कांग्रेसी हैं। युवाओं में जितेंद्र सिंह कृष्णा बायरे गोडा के अतिरिक्त मनीष तिवारी, रणदीप सुरजेवाला, ज्योतिरादित्य सिंधिया, दिनेश गुंडू राव और अनंत गाडगिल के नाम सामने आते हैं, लेकिन ये नेता उतने प्रभावी नहीं हैं। विधानसभा चुनाव के समय ज्योतिरादित्य सिंधिया को जिस तरह मध्यप्रदेश में परेशानी हुई उससे साफ झलकता है कि राहुल भी सहजता पूर्वक दिग्गजों के समक्ष काम नहीं कर सकेंगे। लेकिन सोनिया गांधी ने कमान अपने हाथ में लेकर राहुल का रास्ता आसान करने की कोशिश की है। ब्रांड राहुल पर जो 500 करोड़ रुपए खर्च किए जा रहे हैं उसका असर टीवी और प्रिंट मीडिया में देखा जा सकता है, लेकिन जनता कितनी प्रभावित है यह तो अप्रैल-मई में पता चल सकेगा, जब चुनावी गर्मी चरम पर होगी। वैसे राहुल गांधी भी भरसक कोशिश कर रहे हैं और उनकी चुनावी सभाओं में जुटने वालों की तादाद बढ़ी है। जहां तक घोषणापत्र पर हर वर्ग को साथ लेने की पहल है वह एक प्रभावी कदम साबित हो सकता है। इस बीच नरेंद्र मोदी के खिलाफ भी राहुल गांधी मुखर हुए हैं। गुजरात में उन्होंने कहा कि चाय पिलाने वाले अच्छे हैं लेकिन मूर्ख बनाने वाले नेताओं से दूर रहना चाहिए। उन्होंने इस बार मोदी के लिए जहरीला या मौत का सौदागर जैसा तीखा सम्बोधन प्रयुक्त नहीं किया। शायद इसके पीछे वही रणनीति है कि मोदी को सहानुभूति का लाभ नहीं मिलना चाहिए क्योंकि मोदी मौके तलाशने में बड़े माहिर हैं। जब राहुल को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाने से कांग्रेस ने इनकार कर दिया था उस वक्त मोदी ने कहा था कि एक राजकुमार भला पिछड़े और साधारण परिवार के नेता के मुकाबले मैदान में क्यों उतरेंगे। कांग्रेस अब इस तरह के बयानों से बच रही है। मणिशंकर अय्यर का चाय वाला बयान भी कांग्रेस को भारी पड़ गया था।
इस बीच कांग्रेस में टिकिट को लेकर भारी भ्रम की स्थिति निर्मित हो रही है। जो टिकिट की चाह रखते हैं वे राहुल गांधी के फार्मूले को समझने की कोशिश कर रहे हैं। लगभग सभी प्रदेशों में यह सवाल है कि किस आधार पर टिकिटों की घोषणा की जाएगी। यह तो तय है कि इस बार कांग्रेस अपने आधे के लगभग सांसदों को बदलने की कोशिश करेगी। लेकिन उनके स्थान पर कौन से चेहरे सामने आएंगे, क्या युवाओं को मौका मिलेगा?

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