04-Feb-2013 10:46 AM
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अंग्रेजी में एक कहावत है जिसका सार यह है कि जब समुद्र में उथल-पुथल हो तो नाव नहीं उतारनी चाहिए। लेकिन कांग्रेस के भाग्य विधाता गांधी परिवार पर यह नियम लागू नहीं होता। उन्हें हर बार तूफान में ही नाव उतारनी पड़ती है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद अचानक राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाया गया। राजीव गांधी की हत्या के बाद जब कांग्रेस में नेतृत्व का संकट उत्पन्न हुआ तो कांग्रेस बिखर गई। यह बिखराव सीताराम केसरी की ताजपोशी के समय और तेजी से बढ़ा। कांग्रेस टूटने की कगार पर आ गई थी। बहुत से नेता अन्य दलों में जाकर शरण ले रहे थे। लग रहा था जैसे डूबते जहाज को छोड़कर चूहे भाग रहे हों। सोनिया गांधी राजनीति में आने की बिल्कुल इच्छुक नहीं थीं। जिस रक्त रंजित राजनीति ने उनके पति और उनकी सास को छीन लिया हो वे उससे दूर रहना चाहती थीं। किंतु कांग्रेस को अपनी आंखों के सामने बिखरते देखना उन्हें गवारा नहीं था। कांग्रेस के जो हालात थे वे कुछ इस तरह थे कि सोनिया गांधी उसकी बागडोर नहीं थामती तो पार्टी कई टुकड़ों में बंट जाती। लेकिन हालात कांग्रेस के खराब थे। देश में राजनीति तो चल ही रही थी और लोकतंत्र भी हिचकोले खाते हुए अपनी मंजिल की तरफ अग्रसर था। अतत: सोनिया ने कांग्रेस की बागडोर संभालने का फैसला कर लिया और कांग्रेस की एकजुटता बढ़ी। हालांकि प्रधानमंत्री बनने के अवसर पर 2004 में सोनिया ने पद ठुकरा कर बलिदान भी दिया जिसकी टीस लोकसभा में सुनाई पड़ी जब उन्होंने कहा कि देश नहीं चाहता तो मैं प्रधानमंत्री क्यों बनूं? जिसका परिणाम यह निकला कि कांग्रेस ने केंद्र में गठबंधन सरकार का नेतृत्व किया और यह नेतृत्व अभी तक जारी है, लेकिन अब सही मायनों में परिस्थितियां कमोबेश वैसी ही हैं। कांग्रेस में निजी तौर पर तो नहीं किंतु सारे राष्ट्र में राजनीतिक उथल-पुथल का दौर जारी है। दोनों राष्ट्रीय पार्टियां जनता के विश्वास के संकट का सामना कर रही हैं। भ्रष्टाचार, बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी और ग्रामीण आबादी का शहरों में पलायन एक बड़ी चुनौती हैं जो इस देश को लगातार राजनीतिक अस्थिरता में ढकेल रही है। राष्ट्रीय दल प्रासंगिकता खो रहे हैं तो क्षेत्रीय दलों में भी कम उथल-पुथल नहीं है। इस तूफानी दौर में देश की सबसे बड़ी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बागडोर राहुल गांधी को सौंपी गई है। कहने को तो वे पार्टी के उपाध्यक्ष बनाए गए हैं। किंतु सच यह है कि कांग्रेस युवा हाथों में हस्तांतरित हो चुकी है। यह कुछ वैसा ही है जैसा 1984 में राजीव गांधी की अचानक ताजपोशी के समय था। तब राजनीति की ए,बी,सी,डी न जानने वाले राजीव को देश की बागडोर अचानक ही थमा दी गई थी। कांग्रेस के लिए यह एक भावुक फैसला था, लेकिन इसका कोई विकल्प ही नहीं था। इस बार फिर कांग्रेस ने एक भावुक फैसला किया है। राहुल गांधी की ताजपोशी के रूप में। अब धीरे-धीरे यह स्पष्ट होता जा रहा है कि आगामी लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी ही कांग्रेस के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी बनाए जाएंगे। इसीलिए उपाध्यक्ष के तौर पर जब राहुल गांधी को स्थापित किया गया तो कहीं कोई आश्चर्य नहीं हुआ। कांग्रेस की दृष्टि से यह एक सहज स्वाभाविक निर्णय था जो बहुप्रतीक्षित होने के साथ-साथ सर्व स्वीकार्य भी था।

लेकिन जयपुर में कांग्रेस के चिंतन शिविर के दौरान जो चिंताएं उभरीं उनका समाधान अचानक राहुल गांधी की ताजपोशी से नहीं निकलने वाला यह कांग्रेस भलीभांति जानती है। राहुल गांधी कांग्रेस में निर्विवाद रूप से सबसे बड़े लीडर हैं, लेकिन भारत के राजनीतिक पटल पर उनके कद के नेताओं की लंबी कतार है। प्राय: सभी बड़े दलों में राष्ट्रीय स्तर के कद्दावर नेता मौजूद हैं। देखा जाए तो राहुल गांधी इस कतार में बहुत पीछे खड़े नजर आते हैं। स्वयं कांग्रेस में ही कद्दावर नेताओं की कमी नहीं है, लेकिन समस्या वही है कि कांग्रेस को एकजुट रहने के लिए नेहरू गांधी परिवार की मौजूदगी अत्यंत आवश्यक है। राहुल गांधी की इस बात के लिए प्रशंसा करनी होगी कि सब कुछ सामान्य होते हुए भी वे पिछले लगभग पांच वर्ष से प्रधानमंत्री पद के लिए लगातार इनकार करते आ रहे हैं। मनमोहन सिंह को एक बार पुन: प्रधानमंत्री बनाने की बात जब उठी थी उस वक्त कांग्रेस के भीतर यह मांग बहुत तेजी से की गई थी कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बने, लेकिन राहुल गांधी ने बड़ी कुशलता से इस मांग को ठुकरा दिया। देखा जाए तो अपने पिता राजीव गांधी से राहुल गांधी इस मामले में थोड़ा समझदार और व्यावहारिक साबित हुए हैं। हालांकि राजीव गांधी के समय जो परिस्थितियां थी उनके चलते राजीव गांधी उस वक्त प्रधानमंत्री पद चाह कर भी नहीं ठुकरा सकते थे, लेकिन वह जल्दबाजी कांग्रेस को महंगी पड़ी और राजीव के समय ही कांग्रेस का पतन हुआ। शायद इसीलिए राहुल गांधी ने बड़े धैर्य से अपने आपको राजनीतिक रूप से मांझना शुरू कर दिया और राजनीति की पाठशाला में वे ककहरा भी पढऩे लगे। इसका फायदा यह हुआ कि एक तो उनकी वाकशक्ति पहले की अपेक्षा सुधरी। दूसरे जनता की समस्याओं को नजदीक से समझने का उन्हें अवसर मिला। कुल मिलाकर राहुल गांधी को इस बात का श्रेय तो दिया ही जाएगा कि उन्होंने अपनी मां की ही तरह पद का लालच बिल्कुल नहीं रखा और वे पद से निरपेक्ष बने रहे। लेकिन राजनीतिक चुनौतियां केवल पद के प्रति उदासीन बने रहने से खत्म नहीं होती। वे तो पल-प्रतिपल सर उठाए रहती है। इसीलिए जयपुर में चिंतन शिविर में राहुल के भावुक भाषण के दौरान कांग्रेसियों की आंखों में आसु भले ही आ गए हों पर राहुल के ऊपर जो अपेक्षाओं का बोझ लादा गया है वह इन आंसुओं से कम नहीं होने वाला। इसीलिए सोनिया ने राजनीति को जहर कहा और अपने बेटे को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिलने पर वे खुश होने की बजाए बहुत रोईं। मनमोहन सिंह एक बार फिर अपनी दावेदारी प्रस्तुत नहीं करेंगे। उन्हें करने भी नहीं दिया जाएगा। 10 साल तक केंद्र की राजनीति में महत्वपूर्ण पद पर रहने के बाद वे राजनीतिक हवा समझने लगे हैं। इतना उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि देश में कांग्रेस के पक्ष में माहौल नहीं है। यह बात राहुल गांधी भी जानते हैं कि महंगाई, भ्रष्टाचार सहित कई ऐसी समस्याएं हैं जिन पर कांग्रेस की नाकामी ने उसकी लोकप्रियता को बहुत नुकसान पहुंचाया है। बीच-बीच में कुछ घटनाएं भी ऐसी घटी जिनका खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ा। इसी कारण राहुल गांधी के समक्ष अब ज्यादा पेंचीदा हालात हैं। बहुत से राज्यों में कांग्रेस को स्वीकार नहीं किया जा रहा है। हालांकि मुख्य विपक्षी दल भाजपा की भी स्थिति कुछ बेहतर नहीं है, लेकिन जिस तरह कांग्रेस ने अपनी लोकप्रियता खो दी है उसे पुन: प्राप्त करना राहुल गांधी के लिए एक बड़ी चुनौती साबित होगा। 2004 में जब राहुल गांधी ने अमेठी से लोकसभा चुनाव लडऩे का ऐलान किया था उस वक्त उनके लिए कोई विशेष चुनौती नहीं थी, लेकिन 2007 में सितंबर में जब उन्होंने कांग्रेस के महासचिव का पद स्वीकार करते हुए एनएसयूआई का प्रभार संभाला तो फिर चुनौती बढ़ गई। अब सवाल यह है कि वे प्रधानमंत्री पद के योग्य अपने को साबित करने में कितना वक्त लगाएंगे। राहुल गांधी को फिलहाल कांग्रेस कार्य समिति में उपाध्यक्ष बनाया गया है। संभवत: गांधी परिवार के वे पहले नेता हैं जो उपाध्यक्ष बने हैं। अभी तक गांधी परिवार से बाहर के ही व्यक्ति उपाध्यक्ष बनते रहे हैं। शायद इसीलिए जो कांग्रेस में दूसरे नंबर पर आया वह नंबर वन नहीं बन पाया। नंबर वन का पद तो गांधी परिवार के लिए ही सुरक्षित था, लेकिन राहुल को देखकर यह कह सकते हैं कि राहुल नंबर दो के पद को अब शापित नहीं रहने देंगे। बल्कि वे कालंतर में नंबर वन बन ही जाएंगे। 1980 के दशक में जब इंदिरा गांधी ने पंडित कमलापति त्रिपाठी को कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया था तो लग रहा था कि त्रिपाठी किसी बड़ी भूमिका में दिखाई देंगे, लेकिन इंदिरा जी के निधन के बाद राजीव गांधी ने कांग्रेस का नेतृत्व संभालते ही त्रिपाठी को हाशिए पर फेंक दिया। बाद में राजीव गांधी की कृपा से अर्जुन सिंह उपाध्यक्ष तो बने, लेकिन वे कांग्रेस के न तो अध्यक्ष बने और न ही प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी बन सके। पीवी नरसिम्हा राव नंबर दो नहीं थे इसीलिए वे नंबर वन बन पाए। बाद में 1998 में जब सोनिया गांधी ने अचानक कांग्रेस में धमाकेदार एंट्री की तो अर्जुन सिंह का कद बहुत छोटा हो गया। फिलहाल आम कांग्रेसी के लिए महत्वपूर्ण है कि क्या आने वाले 16 महीनों में राहुल गांधी कांग्रेस की चुनावों में नैया पार करने की ऊर्जा जुटा पाएंगे? इस सवाल का जवाब जानने के लिए वर्तमान राष्ट्रीय परिदृश्य की पड़ताल जरूरी है।
केंद्र में कांग्रेस संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का नेतृत्व जरूर कर रही है, पर यह अब सर्वज्ञात तथ्य है कि यह सरकार सीबीआई के डंडे के भरोसे टिकी हुई है। जिस दिन मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी, मायावती की बहुजन समाज पार्टी और करुणानिधि की द्रविड़ मुनेत्र कजगम को विश्वास हो जाए कि उनके वोटरों को नाराज किए बिना कोई वैकल्पिक सरकार बन सकती है तो वे सरकार गिराने में जरा भी देरी नहीं करेंगे। कुल 12 राज्यों में कांग्रेस की सरकार है, इनमें आंध्र प्रदेश, राजस्थान और असम ही तीन ऐसे बड़े राज्य हैं जहां कांग्रेस अकेले के बूते सरकार में है। महाराष्ट्र में वह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ गठबंधन सरकार चला रही है। आंध्र प्रदेश में पिछले दो चुनावों में जीत के शिल्पकार रहे वाईएस राजशेखर रेड्डी का परिवार अब कांग्रेस से बाहर है और कांग्रेस का खाना खराब करना उनके पुत्र जगनमोहन रेड्डी का परम धर्म बन चुका है। तेलंगाना का मुद्दा तो कांग्रेस की गले की हड्डी तो अकरबरुद्दीन ओवैसी परिवार की आक्रामकता उनके लिए कोढ़ का खाज साबित हो रहा है। महाराष्ट्र में भी कांग्रेस के राकांपा से रिश्ते 2009 की तुलना में डांवाडोल हैं।
राहुल गांधी के नेतृत्व संभालने के मुद्दे पर शरद पवार की प्रतिक्रिया ही सब कुछ कह जाती है। पवार ने चुटकी ली कि- अभी हमें राकांपा के नेतृत्व में जान फूंकने के लिए सुप्रिया सुले की जरूरत नहीं पड़ी।Ó पवार का इरादा साफ तो नहीं नजर आता, सो महाराष्ट्र में भी कांग्रेस से 2004 और 2009 की तरह के चुनाव परिणामों की उम्मीद नहीं की जा सकती। इसी वर्ष राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली और कनार्टक में विधानसभा चुनाव होने हैं। इनमें केवल कर्नाटक में ही कांग्रेस जीत के प्रति आश्वस्त है। वह भी भाजपा नेता अंनत कुमार और पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा के बीच हुए टकराव के चलते भाजपा के बिखराव के कारण। वहां भी देवेगौड़ा उनके सिर पर सवार हैं। उत्तर प्रदेश में 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को लाभ हुआ था। अधिकांश विशेषज्ञ उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के ज्वार को भाटे में तब्दील होते देख रहे हैं। बिहार और तमिलनाडु में कांग्रेस कहीं से भी लड़ाई में नहीं है। उड़ीसा, पश्चिम बंगाल और गुजरात में कांग्रेस के उल्लेखनीय इजाफे की गारंटी कोई नहीं दे सकता। फिर राहुल गांधी का नेतृत्व किस आधार पर कांग्रेस में नवऊर्जा का संचार कर सकता है? यह यक्ष प्रश्न है लेकिन आशा से आसमान टिका है।
-सुनील सिंह बघेल